पिछले साल 26 और 27 दिसंबर को जम्मू कश्मीर के राजौरी तहसील में स्थित एक ईंट-भट्टे से 91 मज़दूरों को मुक्त कराया गया. इनमें महिला और पुरुषों के अलावा 41 बच्चे भी शामिल हैं. ये सभी छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चापा ज़िले के रहने वाले हैं.
नई दिल्ली: बंधुआ मज़दूरी प्रथा को 44 साल पहले यानी 1976 में भले ही ग़ैर-क़ानूनी घोषित किया गया हो, लेकिन अब भी रह-रहकर इसे जुड़ी ख़बरें आती ही रहती हैं. लेकिन न तो मुख्यधारा का मीडिया इन ख़बरों को जगह देता है और न ही सरकार द्वारा इन घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए कोई पुख़्ता कदम उठाए जाते हैं.
केंद्रशासित प्रदेश जम्मू कश्मीर के जम्मू की राजौरी तहसील में दो ईंट-भट्ठों से बीते साल 26 और 27 दिसंबर 91 बंधुआ मज़दूरों को छुड़ाया गया. ये सब मजदूर 24 परिवारों के हैं. इनमें महिला और पुरुषों के अलावा 41 बच्चे भी शामिल हैं, जिनमें से कुछ को बंधुआ मज़दूर बनाकर रखा गया था. महिलाओं में से कुछ फिलहाल गर्भवती हैं.
ये सारे लोग छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चापा ज़िले के विभिन्न गांवों से हैं. इन्हें छुड़ाने की कार्रवाई दिल्ली के कुछ एनजीओ की पहल पर स्थानीय प्रशासन की अगुवाई में पूरी हुई.
यह बचाव कार्य राजौरी तहसील में फंसे एक 25 वर्षीय मज़दूर अजय कुमार द्वारा संभव हो पाया. अजय को इससे पहले फरवरी 2019 में हिमाचल प्रदेश के एक ईंट-भट्ठे से बंधुआ मज़दूरी से छुड़ाया गया था. लेकिन चूंकि उसका कोई पुनर्वास नहीं हुआ था, इसलिए वो दोबारा दूसरे एजेंट के चंगुल में फंस गए.
अजय कुमार को बंधुआ मज़दूरी से पहले कैसे छुड़ाया गया था, इस बारे में उन्होंने बताया, ‘पांच साल पहले राजू राजा नाम का एक जमादार (एजेंट) हमारे घर आया था. उसने हमें काम दिलाने की बात कहीं तो मैं अपने परिवार (बीवी-बच्चों) के साथ आ गया.’
वे कहते हैं, ‘पहले उसने हमें हरियाणा के राजा तालाब के एक ईंट-भट्ठे में काम पर लगा दिया. वहां हमने दो साल काम किया था लेकिन हमें पैसा नहीं दिया गया. उसके बाद हमें श्रीनगर ले जाया गया था. वहां भी हमने काम किया लेकिन पैसा नहीं मिला. मालिक हमारे साथ मारपीट करता था. मेरे छोटे-छोटे बच्चों से भी काम कराता था. श्रीनगर से दोबारा हमें हरियाणा लाया गया.’
उन्होंने आगे बताया, ‘हमें पलवल के करीब बल्लभगढ़ के ईंट-भट्ठे में ले जाया गया था, बाद में वहीं से हमें मुक्त कराया गया था. जिस समय हमें छुड़ाया गया, तब घर जाने के लिए किराया का भी पैसा नहीं था. थोड़ा बहुत जो पैसा था उससे मेरी बहन और दो बच्चों को छत्तीसगढ़ भिजवा दिया. हम वहीं मज़दूरी के लिए इधर-उधर भटक रहे थे, ताकि कुछ पैसों का जुगाड़ हो और हम घर जा सकें. उसी दौरान एक दूसरा जमादार मिला, जिसने कहा कि दो महीना काम करो तो पैसा दूंगा फिर तुम घर चले जाना.’
दोबार काम मिलने के बाद अजय का दर्द कम नहीं हुआ क्योंकि वे एक बार फिर बंधुआ मज़दूरी के चंगुल में फंस गए थे.
उन्होंने बताया, ‘हम हरियाणा में ही उसके पास तीन महीना काम किया, लेकिन उसने भी कुछ नहीं दिया. कभी-कभार दो-पांच सौ दे दिया करता था. उससे हमारे खाने-पीने का इंतज़ाम भी ठीक से नहीं हो पाता था. कभी खाते तो कभी भूखे ही रह जाते थे.’
इस बीच राजू राजा दोबारा आया हरियाणा के ईंट-भट्ठे के मालिक से अजय कुमार पर कर्ज होने की बात कहकर उन्हें, उनकी पत्नी और उनके रिश्तेदारों को दोबारा अपने साथ जम्मू कश्मीर ले गया.
अजय कहते हैं, ‘राजू राजा हमें राजौरी के एक ईंट-भट्ठे में छोड़ दिया. वहां हमसे बहुत काम करवाया जाता था. वहीं मेरा तीसरा बच्चा पैदा हुआ. मेरी पत्नी को डिलीवरी के लिए अस्पताल ले जाने के लिए भी मेरे पास पैसे नहीं थे. पैसा मांगने पर मालिक ने कहा कि यहीं ईंट-भट्ठे में बच्चा पैदा करो, कोई पैसा नहीं मिलेगा. डिलीवरी के समय मेरी पत्नी को काफी दिक्कत झेलनी पड़ी. कई दिनों तक वह दर्द से कराहती रही. बाद में हमारे ही कुछ बुज़ुर्ग लोगों ने घरेलू नुस्खों के जरिये उसे ठीक किया.’
अजय का राष्ट्रीय बंधुआ मज़दूर उन्मूलन अभियान समिति (एनसीसीबीएल) से कैसे संपर्क हुआ, यह पूछने पर अजय ने ‘द वायर’ को बताया कि उनके गांव के एक बंधुआ मज़दूर को कहीं और से छुड़ाया गया था, उसके पास इस संगठन के कार्यकर्ताओं का फ़ोन नंबर था. उससे नंबर लेकर उनसे संपर्क किया गया.
छुड़ाए गए 91 लोगों में से एक मनीषा ने भी अपनी आपबीती बताई.
मनीषा छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा ज़िले के छोटे रबेली गांव की हैं. पांच बच्चों की मां मनीषा ने बताया कि उनका परिवार पिछले पांच साल से ऐसे ही भटक रहा है. अपने रिश्तेदारों और मां-बाप की मौत के दौरान भी वह घर नहीं जा सकीं.
ये बताते हुए वह रो पड़ीं. दुखी होकर वे कहती हैं कि मेरे पांचों बच्चे भी मेरी ही तरह अनपढ़ रह जाएंगे.
उन्होंने बताया, ‘एजेंट राजू राजा ने हमें हरियाणा से श्रीनगर ले जाकर एक आदमी के पास छोड़ दिया था. बाद में उसने हमें राजौरी के एक ईंट-भट्टे में दस लाख में बेच दिया था. ऐसा भट्ठे का मालिक कहता था. वहां पर हमें बंधक की तरह रखा जाता था. कहीं आने-जाने नहीं दिया जाता था.’
मनीषा के अनुसार, महिलाओं के साथ मालिक अभद्र व्यवहार करता था, गाली-गलौज करता था. परिवार को खाने के लिए एक या दो किलो चावल फोटो खींचकर देता था, जिससे उन्हें तीन-चार दिन पेट भरना होता था.
वे कहती हैं, ‘हम एक समय खाते थे तो एक समय भूखे पेट काम करते थे. बच्चों को भी भूखा रहना पड़ता था. अगर मांगते थे तो कहता था कि देने के लिए यहां तुम्हारे बाप ने कुछ रखा है क्या. तुम लोग यहां बंधुआ मज़दूर हो, वैसे ही रहो. हमारे बच्चों के काम नहीं करने से पर वह उनसे भी मारपीट करता था. बीमार पड़ने पर भी दवाई के लिए पैसा नहीं होता था. ऐसे ही मुश्किल से काम करना पड़ता था.’
एक और मज़दूर सूरज कुमार की आपबीती भी लगभग वैसी ही है. वे बताते हैं कि उनको उनके ही इलाके के माखन और कोमल नामक दो व्यक्तियों ने छत्तीसगढ़ के उनके गांव से लेकर आए थे.
उन्होंने बताया, ‘माखन और कोमल ने हमें हरियाणा के ईंट-भट्ठे में काम दिलाया था. वहां पर हमें मज़दूरी मिली थी. बाद में हीरालाल नामक व्यक्ति ने मुझे और मेरे भाई को श्रीनगर लेकर आया. वहां हमने लगभग 22 हजार रुपये (प्रति व्यक्ति) का काम किया था. मालिक ने हीरालाल को पैसा दिया लेकिन उसने हमें कुछ भी नहीं दिया.’
वे कहते हैं, ‘उसके बाद हमें विजय नामक व्यक्ति राजौरी में दुर्गेश के ईंट-भट्ठे में ले गया. वहां भी हमें मज़दूरी नहीं दी जाती थी. खर्चे के लिए कभी 500 तो कभी 600 रुपये दिए जाते थे. उससे हमें राशन-पानी, कपड़े सभी ज़रूरतों को पूरा करना पड़ता था. खाने के लिए बहुत तंगी होती थी.’
सूरज ने बताया, ‘हमें रात के एक-दो बजे भी उठाकर काम करवाया जाता था. सोने भी नहीं दिया जाता था. गालियां देते थे, मारपीट करते थे. मालिक ने दो मज़दूरों की बहुत पिटाई की थी. महिलाओं के साथ भी वह गाली-गलौज करता था. कहता था, मैंने तुम लोगों को बीस लाख में खरीदा है, वो पैसा भरो और चले जाओ.’
राजौरी से मुक्त कराई गईं ज्योति कोहली जांजगीर-चांपा ज़िले के बस्ती बाराद्वार गांव की हैं. फिलहाल वो गर्भवती हैं और उनका डेढ़ साल का एक बच्चा भी है.
उन्होंने बताया, ‘हमको वहां रहने के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं थी. तिरपाल के नीचे रहना पड़ता था. नाली के पानी से नहाना पड़ता था, पीने के लिए पानी नहीं मिलता था. हम नाली का पानी पीने को मजबूर थे.’
ज्योति कहती हैं, ‘रात के एक-दो बजे मालिक उठाता और काम करने के लिए कहता था. दो या तीन दिन में एक बार हमें एक-दो किलो चावल दिया जाता था, जिससे एक समय खाकर एक समय खाली पेट रहकर हमें काम करना पड़ता था.’
एक अन्य मज़दूर ममता सिधार ने बताया कि उनको भी राजू राजा ने राजौरी के ठेकेदार अमज़द खान और किशोर के हाथों बेचा था. अमज़द खान और किशोर ईंट-भट्ठे के पार्टनरशिप में थे.
ममता ने बताया, ‘महिलाओं को वहां बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती थी. कोई महिला गर्भ से होती थी तब भी उसे काम करना पड़ता था. बीमार पड़ने से भी दवा नहीं दी जाती थी. हाथ में पैसे भी नहीं होते थे. हम ग़ुलामों की तरह जी रहे थे.’
ममता सिसकते हुए कहती हैं, ‘हम ऐसे दर-दर भटकना नहीं चाहते, हमारा पुनर्वास हो. हमें बंधुआ मजदूरी से मुक्ति का प्रमाण-पत्र मिले.’
इन बंधुआ मज़दूरों को छुड़ाने में अहम भूमिका निभाने वाले मानव अधिकार कार्यकर्ता निर्मल गौराना बताते हैं कि आज देश के खेतीहर मज़दूरों की स्थिति बहुत ही बुरी है. देश में सबसे ज्यादा बंधुआ मज़दूर खेतिहर मज़दूर ही हैं.
निर्मल ने सवाल उठाया, ‘क्या मनरेगा और राज्य सरकार की तमाम योजनाएं दम तोड़ रही हैं, जिसकी वजह से खेतिहर मज़दूर और असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को दूसरे राज्यों में काम की तलाश में पलायन करना पड़ रहा है, जहां न तो उन्हें सामाजिक सुरक्षा, काम की सुरक्षा मिलती है और न ही सही ढंग से मज़दूरी मिल पाती है.’
निर्मल ने कहा, ‘ये गरीब और अनपढ़ हैं इसलिए ऐसे लोगों के चंगुल में फंस जाते हैं जहां से वे वापस अपने घर नहीं लौट पाते. ये 24 परिवार छत्तीसगढ़ के अलग-अलग गांवों के रहने वाले हैं, उन्हें अलग-अलग मानव तस्कर पंजाब, हरियाणा, जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में लेकर गए. उनको बेचा गया हालांकि सरकार इसे मानने को तैयार नहीं है कि ये बंधुआ मज़दूर हैं और मानव तस्करी के शिकार हुए हैं. सरकार ये बताए कि मानव तस्करी और बंधुआ मज़दूरी की परिभाषा क्या है?’
निर्मल से मिली जानकारी के मुताबिक, इन बंधुआ मज़दूरों को छुड़ाने के प्रति प्रशासन का रवैया सुस्त और उदासीन था. राष्ट्रीय बंधुआ मज़दूर उन्मूलन अभियान तरफ से राजौरी प्रशासन को इन बंधुआ मज़दूरों को लेकर एक शिकायत ई-मेल के जरिये भेजी गई थी.
उनका आरोप है कि 19 दिसंबर को ये शिकायत राजौरी के जिला कलेक्टर को भेजा गया था. जिला कलेक्टर ने उसका कोई जवाब नहीं दिया. उसके बाद मजबूरन एक टीम ने खुद जाकर जिला कलेक्टर को शिकायत पत्र दिया. उसके बाद उन्होंने बताया कि एक टीम बनाई गई है, जो उन्हें छुड़ाएगी.
बहरहाल 26 और 27 दिसंबर को उन्हें छुड़ा लिया गया. अभी ये लोग नई दिल्ली के प्रभातारा हॉस्टल में रखा गया हैं. कुछ ग़ैर-सरकारी संगठनों की मदद से उन्हें रहने और खाने-पीने का इंतज़ाम हो रहा है. एक अन्य संगठन इन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करा रहा है.