अख़बारों के पन्नों से झांकती ये कहानियां बताती हैं कि हम कितने अकेले हो गए हैं और हमारे भीतर का इंसान टूटता जा रहा है.
श्रीनगर के नूरबाग इलाके में दस साल का एक बच्चा सुहेल (बदला हुआ नाम) सड़क पर खेलते हुए बच्चों को अपने घर के आधे बंद, आधे खुले दरवाज़े से टुकुर-टुकुर ताकता है लेकिन अपने हमउम्रों के साथ खेल में शामिल नहीं होता.
खेलते बच्चों की हंसी, उनका शोर-गुल वातावरण में गूंज रहा है मगर सुहेल सब कुछ सुन-देख ही खुश हो रहा है, जबकि पहले वह इनमें से एक होता था. पहले वह खूब हंसने- खिलखिलाने वाला लड़का होता था. अब वह हर समय चुप रहता है.
इस लड़के को 28 अप्रैल पुलिस ने थाने में बुलवाया. उसे दिन में एक थाने में रखा गया और रात को दूसरे थाने ले जाया गया. उसे राइफल के हत्थे से मारा गया, जिससे उसकी बांयीं टांग में चोट लगी.
एक से दूसरे थाने ले जाते वक़्त वह रास्ते में गिर पड़ा तो उसे घसीटकर बुलेटप्रूफ जीप में धकेल दिया गया. वहां उसे हथकड़ियाँ पहनाई गई. उस पर आरोप है कि उसने पत्थर फेंके थे, जबकि उसका कहना है और तस्वीर भी बताती है कि वह इस तमाशे को बस देख रहा था.
उसके इस कथित अपराध के कारण उस पर औपचारिक रूप से कई संगीन आरोप जड़ दिए गए हैं. उसे पांच दिन तक बाल सुधार गृह में रखा गया. इस हादसे को झेलने के बाद उस बच्चे के अंदर न जाने कितना कुछ-कुछ टूट-बिखर चुका है, जो शायद ही दोबारा आसानी से जुड़ सके.
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किसी जमाने में ‘पाकीज़ा’ समेत कई फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं अभिनीत करने वाली अभिनेत्री गीता कपूर 41 दिन तक मुंबई के एक सरकारी अस्पताल में भर्ती रहीं जहां उन्हें उनके कोरियोग्राफर बेटे ने दाखिल किया था.
इसके बाद बेटे ने एक बार भी पलटकर अपनी मां की ख़बर नहीं ली. उनकी बेटी पुणे में रहती है, पता नहीं उन्हें अपनी मां की इस हालत की खबर थी या नहीं. जब गीताजी को लेने कोई नहीं आया तो पुलिस से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेकर उन्हें स्वयंसेवी संस्था द्वारा संचालित एक ओल्ड एज होम में भर्ती कर दिया गया.
इसके लिए नियमानुसार किसी को व्यक्तिगत बॉन्ड भरकर उनकी देखभाल की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेनी ज़रूरी थी, जो एक डॉक्टर ने ली. सबसे मुश्किल था उस डॉक्टर के लिए ओल्ड एज होम में छोड़ना.
उन्हें डॉक्टर पर भरोसा था और उन्होंने डॉक्टर का हाथ मजबूती से पकड़ रखा था. उन बुजुर्ग महिला को इस भ्रम में रखा गया कि जल्दी ही उनके घर के लोग उन्हें यहां लेने आएंगे, तब वह किसी तरह राज़ी हुईं.
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छत्तीसगढ़ के गरियाबंद ज़िले के डोहेल गांव में 65 वर्षीय एक वृद्धा की स्वाभाविक रूप से मृत्यु हो गई. करीब 14 घंटे तक उनका शव घर में पड़ा-पड़ा सड़ता रहा लेकिन चार लोग भी उन्हें कंधा देने के लिए नहीं मिले.
किसी तरह उसके शव को श्मशान ले जाया जा सका. इस स्थिति की वजह यह थी कि उन्होंने अपने दामाद और उनकी नाबालिग बेटी को अपने घर में संरक्षण दे रखा था. इस नातिन के साथ त्रासदी यह थी कि करीब दो साल पहले किसी ने उसके साथ बलात्कार किया था, इस कारण वह बिन ब्याही मां बन चुकी थी.
बलात्कारी तो गिरफ्तार हो गया मगर गांव के समाज को यह पसंद नहीं थी कि उस लड़की और उसके पिता को उसकी नानी अपने यहां पनाह दे. बुजुर्ग औरत ने जीते-जी इस समाज के इस अमानवीय बंधन की परवाह नहीं की.
इसकी सज़ा के तौर पर उस परिवार के इन तीन लोगों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. इसी कारण अंतिम संस्कार में उस बुजुर्ग महिला का बड़े बेटा और भतीजा शामिल तो हुए लेकिन उन्होंने भी सामाजिक बहिष्कार के डर से कंधा नहीं दिया.
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पंजाब से ख़बर है कि वहां सिमरन कौर नामक 19 साल की लड़की ने आत्महत्या की. वैसे तो यह इतनी मामूली लगने वाली ख़बर है कि आमतौर पर संवेदनशील लोगों का भी इस पर अक्सर ध्यान नहीं जाता क्योंकि यह रूटीन ख़बर बन चुकी है.
उसकी आत्महत्या की वजह यह थी कि घूमते-घामते कोई बाबा उसके घर के दरवाजे आ टपका. उसने हाथ देखकर या जन्मपत्री देखकर बताया कि यह लड़की मंगली है. इस कारण यह अपने ददिहाल और ननिहाल दोनों के लिए तकलीफदेह साबित रहेगी.
उसकी अपनी ज़िंदगी में भी समस्याएं ही समस्याएं रहेंगी. जल्द ही उपाय करवाना होगा वरना मामला बिगड़ जाएगा. बाबा ने सोचा होगा कि लड़की के परिवारवालों को डराने से ओझागिरी का उसका खेल चल जाएगा मगर हुआ यह कि इसके बाद सिमरन पहले से ज़्यादा परेशान रहने लगी.
इससे पहले हुआ यह था कि एक जगह उसकी शादी तय हुई थी लेकिन वह रिश्ता किसी वजह से टूट गया था. इससे निराशा-हताशा वह थी ही. बाबा की यह भविष्यवाणी सुनकर उसे लगा होगा कि दूसरे पर बोझ बनकर जीने का क्या फायदा. उसने नहर में कूदकर जान दे दी.
इन चारों घटनाओं में मार्मिकता का सूत्र स्पष्ट रूप से दीखता है. संयोग से ये घटनाएं दिल्ली के तीन अख़बारों (दो अंग्रेजी और एक हिंदी) में एक ही दिन प्रकाशित हुईं. ग़ौर करें तो उनकी मार्मिकता के अलावा इनमें एक आपसी संबंध और है और वह है कि ये घटनाएं व्यक्ति के अकेलेपन के बिखरे हुए से कुछ उदाहरण पेश करती हैं.
कभी हिंदी के कई विद्वान मानते थे कि अकेलापन विशुद्ध रूप से पश्चिमी अवधारणा है, जिसका भारतीय सामाजिक यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं है. अगर इसे किसी हद तक भारतीय यथार्थ मानें तो इसका संबंध केवल उच्च वर्ग और उच्च-मध्य वर्ग से है, महानगरों से है. लेकिन इन चारों ताज़े उदाहरणों से स्पष्ट है कि ऐसा नहीं है.
इनमें से सिर्फ एक उदाहरण महानगर का है, एक मझले शहर का है और एक तो विशुद्ध रूप से गांव का हैं. महानगर के उदाहरण पर भी गौर करें तो यह कथित महानगरीय अकेलेपन से उपजा नहीं है.
यह एक सामान्य सा उदाहरण है, जिसके प्रमाण गैरमहानगरीय जीवन में भी मिलते हैं. इनमें से शायद एक भी उदाहरण उच्च वर्ग का नहीं है. इन उदाहरणों में दस साल का बच्चा भी शामिल है तो एक उम्रदराज़ औरत भी और शादी की उम्र की हो चुकी लड़की भी और एक बूढ़ी ग्रामीण औरत का परिवार भी.
सबके अकेलेपन के प्रत्यक्ष रूप से कारण अलग-अलग हैं, जो होंगे ही. ये घटनाएं अलग-अलग इलाकों से भी हैं. अकेलापन कितना व्यापक है, बहुस्तरीय है, यह एक ही दिन के कुछ अख़बार ही हमें बता देते हैं, जबकि उनका इरादा यह नहीं है.
वे तो बताने लायक कुछ घटनाओं से हमें सूचित कर रहे हैं. अगर उसी दिन के अधिक अख़बारों की पड़ताल की जाती तो संभव है इस तरह की दर्जनों घटनाएं यहां-वहां मिल जातीं. इसमें इस अकेलेपन के बढ़ते घेरे की शायद कई और पर्तें भी खुलतीं- इस तरह के छोटे-छोटे उदाहरणों के ज़रिये.
श्रीनगर के 10 साल के उस बच्चे का क़सूर एक बार यह मान भी लें कि पुलिस सही कह रही है कि वह पत्थर फेंकने वालों में से ही एक था तो भी क्या उसकी सज़ा यह हो सकती थी? सवाल यह भी है कि क्या उसे इसकी कोई सज़ा मिलना ज़रूरी था?
क्या उसके पिता-पालक को थाने में बुलाकर हद से हद उन्हें चेतावनी देना पर्याप्त नहीं होता? क्या 10 साल के किसी बच्चे की राजनीतिक चेतना इतनी प्रखर होती है कि वह जो कुछ उसके सामने घट रहा है, उसके आशयों और परिणामों को समझ सके, विरोध जता सके?
और क्या यह कश्मीर की विशिष्ट परिस्थितियों के कारण ही हुआ? क्या देश में अन्यत्र ऐसे उदाहरणों की कमी है?
वैसे भी अगर देश के किसी हिस्से की हताश-निराश और उग्र हो चुकी जनता का सबसे साधारण हिस्सा ख़ुद को उपलब्ध अंतिम हथियार के तौर पर गोली नहीं बल्कि पत्थर का इस्तेमाल करता है तो इस स्थिति को समझने की ज़रूरत ज्यादा है या दस साल के बच्चे समेत सभी लोगों को इसके लिए लगातार दंडित करते रहने की और इसके नाम पर उग्र राष्ट्रवाद की विकृत धारणा को मजबूत करने की?
उस बच्चे के साथ हुए इस व्यवहार ने किस तरह एक ही झटके में उससे उसका बचपन छीन लिया है और शायद उसका भविष्य भी, जो कुछ कश्मीरी युवाओं के आईएएस-आईपीएस की परीक्षा में पास हो जाने के कारण धूमिल नहीं हो सकता.
उस बच्चे को अपना बचपन जीवित रखने का पूरा अधिकार था और अगर दूसरों को देखकर बिना सोचे-समझे उसने पत्थर मारा भी हो और यह उसकी गलती हो तो इसका अधिकार भी उसे था.
पुलिस बल की इस कार्रवाई ने उस बच्चे के अंदर जो अकेलापन भर दिया है, क्या वह इससे कभी निकल पाएगा? क्या उसे निकालने के प्रयास होंगे? क्या उसे ऐसी मानसिक चिकित्सा और सलाह मिल सकेगी जिससे कि वह इस हादसे से बाहर आ सके? क्या कश्मीर में निकट भविष्य में ऐसा माहौल बनता हुआ लग रहा है, जब वहां बच्चे उग्रवाद के चलते उस तरह के हादसों के शिकार नहीं होंगे?
दूसरी कहानी एक ऐसी औरत की है जिसने अपने बेटे-बेटी को शायद कभी बहुत कठिनाइयों से पाला होगा, छोटी-मोटी फिल्मी भूमिकाएं करके. ऐसी भूमिकाएं करने वालों के साथ जुड़े अपमान और शोषण को सहकर.
हो सकता है उस सबके बावजूद उस परिवार का ख़र्च इस आमदनी से न चल पाता हो और साथ ही कुछ और भी बुजुर्ग हो चुकी इस महिला को करते रहना पड़ा हों. चलिये यह मान लेते हैं कि पहले का उसका जीवन इतना मुश्किल नहीं रहा था तो क्या अपने बुढ़ापे में अपने बेटे द्वारा इस तरह घर से धकेल दिए जाने की कल्पना उन्होंने की होगी?
41 दिन तक उनके बेटे ने उनकी तरफ मुड़कर भी नहीं देखा, फिर भी उन्होंने आशा नहीं छोड़ी कि वह अपनी मां को अब घर लेने आने वाला है. दूसरे पक्ष की मजबूरी या उसकी स्वार्थपरता या जो कुछ भी रहा हो, उस बारे में नहीं जानते लेकिन कोई मां शायद अपने बेटे-बेटी से यह अपेक्षा नहीं करती कि उसे इस तरह मझधार में छोड़ दिया जाएगा.
हालांकि यह इस तरह का पहला और अंतिम उदाहरण नहीं है, लाखों–करोड़ों ऐसे उदाहरण हैं, जो रोज हर जगह देखने को मिलते हैं. वृंदावन और बनारस जैसे धार्मिक स्थल ऐसी तमाम बुजुर्ग-विपन्न, परिवार द्वारा तिरस्कृत औरतों से भरे पड़े हैं.
मंदिरों-मस्जिदों के आसपास ऐसी महिलाएं अक्सर बड़ी तादाद में नज़र आती हैं, जिनमें हर वर्ग की होती हैं.
शायद गीता कपूर का अपना छोटा-मोटा फिल्मी करिअर न होता तो अख़बार का ध्यान इस घटना पर भी न जाता और इसी बहाने इसी तरह की हालत में जी रही कुछ और औरतों पर भी.
एक बड़े अंग्रेज़ी अख़बार में छपने के बाद हो सकता है कि गीता कपूर के हालत कम से कम दुनिया की नज़र में बदल गए हों या क्या पता इसके बावजूद न बदले हों. अस्पताल के कर्मचारी कितना ही अच्छा व्यवहार उनसे करते रहे हों मगर अपनों और अपनत्व से बिछड़े, भुला दिए गए आदमी-औरत का यह एकाकीपन एक निर्मम सत्य है और विशुद्ध भारतीय.
अक्सर मानकर चला जाता है कि संबंधों की गरिमा अभी भी गांवों में बची है. हो सकता है यह बात पूरी तरह गलत भी न हो लेकिन छत्तीसगढ़ के डोहेल गांव की घटना क्या यह बताती है?
क्या उस गांव में एक भी ऐसा आदमी नहीं रहा होगा, जो उस मां बन चुकी उस नाबालिग लड़की की नानी जितना ही साहसी और उदार हो? उस परिवार की स्थिति को संवेदनशीलता से समझने की क्षमता रखता हो?
क्या सचमुच संवेदनशीलता तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों की ही बपौती है? तो क्या यह कहना ठीक होगा कि किसी सामंती समाज के शिखर पर सामान्यतया सिर्फ वही लोग ऊपर पहुंच पाते हैं, जो अनिवार्य रूप से अनुदार और अमानवीय हों?
क्या सामान्य मानवीयता को बिसराकर ही समाज की तथाकथित मर्यादा रखी जाती रही है? क्या उस दिवंगत बुजुर्ग औरत को अपनी नाबालिग नातिन, उसकी नवजात संतान और अपने दामाद को सड़क पर फेंक देना चाहिए था?
क्या ‘न्याय के देवता’ को खुश करने के लिए उसे इतना अमानवीय होना चाहिए था? क्या ‘न्याय के इन देवताओं’ के यहां ऐसा ही होता तो भी ये इतने ही कठोर बन पाते? क्या गांव के किसी ताक़तवर को भी यही ‘न्याय’ मिलता?
और न्याय किसे चाहिए था, तथाकथित समाज को या उस नाबालिग लड़की को? पता नहीं बाहर के अपने गांव से यहां निकाले गए और यहां शरण पाए इस दामाद को जो अभी तक अपनी सास के घर में संरक्षण पा रहा था, वहां अब रहने दिया जाएगा या उसे अपनी नाबालिग बेटी और उसके बच्चे के साथ कहीं और सहारा लेना होगा और क्या वह सहारा भी इतना ही सुरक्षित होगा?
एक अपराध जो बलात्कारी ने किया है, उसने कितना अकेलापन इन तीनों प्राणियों पर थोप दिया है, जिसके परिणामों और चिंताओं से फिलहाल वह बच्चा तो पूरी तरह अनभिज्ञ है, उसकी हंसी और रोने में वह दर्द भी कैसे आ सकता है लेकिन बाद में?
हो सकता है सिमरन की आत्महत्या के ज़िम्मेदार उस बाबा को अब तक पकड़ लिया गया हो. हो यह भी सकता है कि आगे-पीछे उसे इसकी कड़ी सज़ा मिल जाए मगर सिमरन की आत्महत्या के बहाने हम समझ सकते हैं कि और तमाम कारणों के अलावा किसी बाबा-साधु काला जादू करने वाले की कथित भविष्यवाणियां भी कितना घातक और निर्मम अकेलापन तथा हताशा एक युवा मन में भर सकती हैं कि वह आत्महत्या की हद तक पहुंच सकता है.
बाबा तो शायद अपना सिर्फ धंधा चलाना चाहता था, जो अब तक डर दिखाने के पुराने आजमाए हुए नुस्खे से लगभग सफलतापूर्वक चलता रहा हो लेकिन एक संवेदनशील मन पर उसकी यह धंधई कितनी भारी पड़ सकती है?
लेकिन ऐसे उदाहरणों से कौन सीखता-समझता है? 19 साल की सिमरन जैसी कितनी ही लड़कियां यह अकेलापन भोगती हैं. कभी मर जाती हैं, कभी घुट-घुटकर जीती हैं, कभी सबको ठेंगा बताकर जीवन को बेहतर ढंग से जी पाती हैं, कभी ज़्यादा बड़े जाल में फंसकर तड़पती रह जाती हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)