सीजेआई एसए बोबडे को लिखे पत्र में इतिहासकार रोमिला थापर और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि हमें इस बात की पीड़ा है कि हमारी अदालतों ने उन लोगों को निरंतर कारावास की सज़ा दी है, जिन्होंने बे-आवाज़ और हाशिये के लोगों के अधिकारों की रक्षा करने की हिम्मत की है.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरेंडर करने के लिए दी गई एक हफ्ते की समयसीमा 14 अप्रैल को समाप्त हो जाएगी. इसका मतलब है कि अब सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी आनंद तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा की एल्गार परिषद मामले में गिरफ्तारी लगभग निश्चित हो गई है.
अगर इन दोनों को गिरफ्तार किया जाता है तो ये उन नौ अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों की श्रेणी में शामिल हो जाएंगे जो कि पिछले करीब दो सालों से महाराष्ट्र की जेलों में बंद हैं.
तेलतुम्बड़े और नवलखा दोनों पर बेहद कठोर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) एक्ट, यानी कि यूएपीए कानून के तहत केस दर्ज किया गया है. इन पर आरोप है कि पूणे से करीब 30 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थिति भीमा कोरेगांव में हुई एक जनसभा में एक जनवरी 2018 को इन्होंने ने हिंसा भड़काई थी.
पहले इस मामले को पूणे पुलिस देख रही थी. बाद में पिछले साल दिसंबर में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने इसकी जांच अपने हाथ में ले लिया.
तेलतुम्बड़े और नवलखा की गिरफ्तारी आदेश को लेकर प्रख्यात इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और देवकी जैन, समाजशास्त्री सतीश देशपांडे और कानूनी जानकार माजा दारूवाला ने भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे को पत्र लिखकर मामले में तुरंत हस्तक्षेप करने की मांग की है.
इससे पहले सितंबर 2018 में थापर एवं अन्य ने एल्गार परिषद मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और उन्हें प्रताड़ित करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर किया था.
इस पत्र में थापर एवं उनके सहयोगियों ने सीजेआई से अपील किया है कि वे देश के संविधान में लोगों के विश्वास और सभी नागरिकों को नागरिक स्वतंत्रा को सुनिश्चित करने की पुनर्स्थापना करें.
पत्र में कहा गया, ‘इस भूमि की सर्वोच्च न्यायालय प्रक्रिया को सजा बनने की इजाजत नहीं दे सकता है. आपके नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट को इस तरह से काम करना चाहिए कि ऐसा लगे कि ये लोगों के अधिकारों और संविधान को बनाए रखने की पक्षधर है.’
कोरोना संकट के समय इस तरह की कार्रवाई को अमानवीय बताते हुए कार्यकर्ताओं ने आगे कहा, ‘निष्पक्ष सोच वाले नागरिकों की तरह, हम हैरान हैं कि अभियोजन को कानून की भावना के प्रति जवाबदेह नहीं ठहराया गया है. हमें इस बात की पीड़ा है कि हमारी अदालतों ने उन लोगों को निरंतर कारावास की सज़ा दी है, जिन्होंने बे-आवाज और हाशिए के लोगों के अधिकारों की रक्षा करने की हिम्मत की है. यह विशेष रूप से अमानवीय और समझ से बाहर है कि जब कोविड-19 महामारी में भीड़भाड़ वाली जेलों में खतरा मंडरा रहा है तब ऐसी कार्रवाई की जा रही.’
जाने-माने समाजिक कार्यकर्ताओं ने जस्टिस बोबेड का ध्यान वरवरा राव, अरुन फरेरा, वर्नोन गोन्साल्विस, सुधा भारद्वारा और गौतम नवलखा की ओर भी खींचा जिन्हें 28 अगस्त 2018 को गिरफ्तार किया गया था. ये लोग चर्चित बुद्धिजीवी, लेखक, वकील, मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार हैं.
रोमिला थापर एवं अन्य ने अपने पत्र में कहा कि इस मामले को लेकर 18 महीने से ज्यादा का समय बीत गया है लेकिन अभियोज पक्ष अभी तक एक भी साक्ष्य नहीं प्रस्तुत कर पाया है. बावजूद इसके इन कार्यकर्ताओं की जमानत याचिका बार-बार खारिज की जा रही है.
(सीजेआई बोबडे को लिखे पूरा पत्र पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)