विशेष रिपोर्ट: देश भर के विभिन्न सरकारी और निजी अस्पतालों में अधिकतर संसाधन कोविड-19 से निपटने में लगे हैं. कई जगहों पर ओपीडी और गंभीर बीमारियों से संबंधित विभाग बंद हैं और इमरजेंसी में पर्याप्त डॉक्टर नहीं हैं. ऐसे में गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे मरीज़ और उनके परिजनों के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं.
‘मेरी मां को कैंसर था, पर उनकी मौत कोरोना के कारण हुई. कोरोना पॉजिटिव नहीं थीं वह.
दस महीने पहले जब मां की बीमारी (मल्टिपल मायलोमा) का पता चला तभी डॉक्टर्स ने कह दिया था कि ये बीमारी लाइलाज है, पर इसका बेहतर मैनेजमेंट कर के इसके साथ जिया जा सकता है.
ये बीमारी शरीर के सभी हिस्सों, विशेषकर किडनी और हड्डियों पर असर करती है इसलिए विशेष मैनेजमेंट की दरकार रखती है. क्रूरता की हद तक मूर्खतापूर्ण इस लॉकडाउन ने पूरे देश को मिसमैनेज किया है. मेरी मां की बीमारी भी मिसमैनेज की गई…
मेरी मां अकेली नहीं है. न जाने कितनी बीमारियों के कितने मरीजों को मौत तक पहुंचाएगा यह लॉकडाउन…‘
बीते चार मई को फेसबुक पर लिखी गई यह पोस्ट सुप्रीम कोर्ट की वकील प्योली स्वातिजा की है. उनकी मां और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की पूर्व प्रोफेसर डॉ. स्वाति का 2 मई की शाम निधन हो गया था. वे कुछ समय से कैंसर से पीड़ित थीं.
प्योली का मानना है कि लॉकडाउन के दौरान अस्पताल की अव्यवस्थाओं के चलते उनकी मां को जान गंवानी पड़ी है और उनके जैसे कई हैं. उनकी यह बात पूरी तरह से गलत नहीं है.
देश भर के विभिन्न सरकारी और निजी अस्पतालों में अधिकतर संसाधन कोविड-19 से निपटने में लगे हैं. कई जगहों पर ओपीडी और गंभीर बीमारियों से संबंधित विभाग बंद हैं और इमरजेंसी में पर्याप्त डॉक्टर नहीं हैं. अधिकतर निजी अस्पताल और क्लिनिक बंद हैं, जिसके चलते इन रोगों से जूझ रहे मरीजों की मुश्किलें और उनके परिजनों की चुनौतियां दोगुनी हो गई हैं.
खासकर कैंसर, दिल के रोग और नियमित डायलिसिस लेने वाले मरीजों की हालत काफी खराब है. कई राज्यों में समय पर इलाज न मिलने के चलते नॉन-कोविड मरीजों की मौत भी हो चुकी है.
मुंबई के भिंडी बाजार इलाके की रहने वाली सयेद अर्शी उनमें से एक हैं. 40 वर्षीय अर्शी दिल की मरीज थीं, लेकिन 22 अप्रैल को उनकी मौत ब्रेन हैमरेज से हुई.
उनके छोटे भाई सईद एजाज़ ने द हिंदू को बताया, ‘उस दिन उन्हें बेहद कमजोरी थी, धड़कन बहुत तेज हो रही थी और वो बोल नहीं पा रही थीं. मेरे पास उनके घर से फोन आया तो मैं फ़ौरन उन्हें मेरी गाड़ी में लेकर जेजे अस्पताल पहुंचा, लेकिन वहां गॉर्ड ने बताया कि अस्पताल बंद है. हम नायर अस्पताल गए लेकिन वहां केवल कोविड-19 के मरीजों का इलाज हो रहा है, जब डॉक्टर ने वहां भर्ती करने से मना किया तब हम उन्हें केईएम अस्पताल लेकर पहुंचे.’
उन्होंने बताया कि वे किसी निजी अस्पताल में इसलिए नहीं गए क्योंकि लॉकडाउन और स्टाफ के कोविड-19 संक्रमित होने के कारण उस क्षेत्र के अधिकतर प्राइवेट अस्पताल बंद थे.
एजाज़ ने बताया कि केईएम अस्पताल पहुंचने के कुछ घंटों के भीतर ही अर्शी ने दम तोड़ दिया. उनके अनुसार इस अस्पताल में बेहद ख़राब व्यवस्थाएं थीं.
वे कहते हैं, ‘जब हम यहां पहुंचे तो केवल एक ही डॉक्टर थे. हम खुद अर्शी को स्ट्रेचर पर डालकर कैजुअलिटी वॉर्ड में लेकर गए. आधे घंटे तक यहां उन्हें किसी ने नहीं देखा, फिर बहुत मिन्नतों के बाद एक ट्रेनी डॉक्टर ने उन्हें एक इंजेक्शन दिया.’
एजाज़ ने बताया कि फिर वे लोग अर्शी को लेकर इमरजेंसी वॉर्ड में गए, लेकिन यहां भी कोई देखने वाला नहीं था. कुछ देर बाद आए डॉक्टर ने सीटी स्कैन करवाने को कहा, लेकिन दोपहर डेढ़ बजे के करीब अर्शी की सांसें थम गईं.
अर्शी के परिजनों का मानना है कि अस्पताल दर अस्पताल भटकने में ख़राब हुआ समय और केईएम में उन्हें सही समय पर इलाज न मिलने के कारण उन्हें बचाया नहीं जा सका.
एजाज़ ने बताया, ‘इमरजेंसी वॉर्ड में कई मरीज इलाज के इंतजार में पड़े थे. नर्सें लोगों पर चिल्ला रही थीं, पूरी तरह हाल ख़राब था. जिन तीन-चार घंटे हम वहां थे, उस दौरान उस वॉर्ड में करीब 15 मौतें हुई थीं.’
इसके दो दिन बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने राज्य सरकारों को गैर कोविड-19 मरीजों का उचित इलाज सुनिश्चित करने को कहा था. हाईकोर्ट की यह टिप्पणी उन याचिकाओं के जवाब में आई थी, जिनमें इससे पहले हुई दो गैर-कोविड मौतों के बारे में बताया गया था.
हालांकि यह हाल सिर्फ पुराने रोगों से ग्रसित मरीजों का नहीं है, बल्कि कई ऐसे मरीज हैं, जिन्हें इस लॉकडाउन के दौरान किसी गंभीर बीमारी के बारे में पता चला और अब उन्हें उचित इलाज का इंतजार है.
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद की 15 साल की रोशनी (परिवर्तित नाम) के साथ ऐसा ही हुआ. मध्य प्रदेश के इंदौर में पढ़ने वाली रोशनी को जनवरी महीने से बुखार और खांसी की शिकायत थी.
काफी इलाज के बाद जब तबियत नहीं संभली, तब वे मार्च में अपने घर लौटीं. यहां घर के पास के ही एक स्थानीय डॉक्टर को दिखाया गया, जिसकी दवा से फौरी तौर पर आराम तो मिला, लेकिन बुखार-खांसी वापस आ जाते.
इस बीच डॉक्टर ने खून की जांच और एक्सरे के लिए कहा. इस समय तक लॉकडाउन की घोषणा हो चुकी थी. जैसे-तैसे जांच और एक्सरे हुआ तो सामने आया कि उन्हें टीबी का संक्रमण है और जल्द से जल्द ट्रीटमेंट शुरू करवाने की जरूरत है.
शहर के तमाम अस्पतालों में ओपीडी बंद हैं और निजी चिकित्सक अपने क्लिनिक नहीं खोल रहे हैं. ऐसे में स्थानीय डॉक्टर अपने एक परिचित डॉक्टर की सलाह से उन्हें टीबी की दवाइयां दे रहे हैं.
यह केवल एक उदाहरण है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि लॉकडाउन की अवधि के दौरान टीबी के मामले सामने आने की संख्या में बड़ी गिरावट देखी गई है.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती हैं कि 14 से 29 फरवरी के बीच देशभर में टीबी के 1,14,460 मामले सामने आए थे, लेकिन 1 से 14 अप्रैल के बीच यह संख्या घटकर 19,145 हो गई. पहले चरण के लॉकडाउन के 21 दिनों में टीबी के कुल 34,566 मामले सामने आए.
आंकड़े बताते हैं कि भारत में टीबी से हर दिन हजार से अधिक मौतें होती हैं. दुनिया भर में सर्वाधिक टीबी पीड़ितों वाले आठ देशों में भारत शामिल है और विश्व के टीबी रोगियों की कुल संख्या के 27 फीसदी मरीज भारत में ही हैं.
साल 2018 में दुनिया भर में टीबी से लगभग डेढ़ करोड़ लोगों ने जान गंवाई थी, जिसमें 29 फीसदी (करीब 4.4 लाख) मरीज भारत के थे. यह संख्याएं भारत में इस रोग की भयावहता बताती है.
मार्च 2018 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2025 तक देश से टीबी को खत्म करने की बात कही थी, जिसके लिए राज्य सरकारों के साथ मिलकर जमीनी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को इस बारे में जागरूकता फैलाने का लक्ष्य दिया गया था.
लेकिन कोविड संकट के दौरान इस तरह के अभियान भी ठप पड़े हैं. देश में टीबी के सर्वाधिक मरीज उत्तर प्रदेश में हैं. यहां के 33 जिलों में टीबी के सक्रिय मामलों की पहचान के लिए अप्रैल में अभियान शुरू किया जाना था, लेकिन कर्मचारी ही नहीं हैं.
राज्य के टीबी अधिकारी ने बताया कि उनके सभी फील्ड कर्मचारी कोविड-19 संबंधी ड्यूटी पर हैं. सरकारी और निजी अस्पताल बंद है, ऐसे में जिन मरीजों में टीबी की पहचान हो चुकी है, उन्हें भी सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं.
एम्स दिल्ली के रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. हरजीत सिंह भट्टी कहते हैं, ‘इस समय अगर देश में सबसे ज्यादा कष्ट में कोई है तो वे नॉन कोविड मरीज हैं, जो पुरानी और गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं. भारत में टीबी एक आम बीमारी हो चुकी है पर इसका ट्रीटमेंट मौजूद है. अगर आप दवाइयां लेते हैं, तब तक यह ठीक रहता है, नहीं लेंगे तो हालत ही खराब होगी.’
उनका कहना है कि कोविड महामारी के लिए संसाधनों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है, वहीं जो पुरानी और गंभीर बीमारी से जूझ रहे रोगी हैं, उनकी पूरी तरह अनदेखी की जा रही है.
लॉकडाउन के कारण कई अस्पताल और निजी क्लिनिक बंद होने के बीच कुछ डॉक्टर वीडियो कॉल और फोन की मदद से अपने मरीजों तक पहुंच रहे हैं.
साल 2005 में जयपुर के एसएफएस इलाके में रहने वाली 50 वर्षीय सुनीता (परिवर्तित नाम) का गले के कैंसर का ऑपरेशन हुआ था, बीते नवंबर में अचानक गले में हुई तकलीफ के बाद पता चला कि यह वापस लौट आया है.
दिसंबर में दिल्ली के शालीमार बाग के एक निजी अस्पताल में उनका दोबारा ऑपरेशन किया गया और वह ट्रीटमेंट अब तक जारी है. उनके गले में नली लगी हुई है और नियमित चेकअप करवाना होता है.
लॉकडाउन की स्थिति में उनके डॉक्टर वीडियो कॉल के जरिये उन्हें दवाइयां बता रहे हैं और परामर्श दे रहे हैं. हालांकि निम्न आर्थिक वर्ग से आने वाले मरीजों के लिए इस तरह की कोई सुविधा दूर की कौड़ी ही है.
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के चंदौसी के रहने वाले तस्लीम कई सालों से पश्चिमी दिल्ली के विकास नगर में रहते हैं और एक ठेकेदार के यहां दिहाड़ी पर बढ़ई का काम करते हैं.
उनकी पत्नी शाहीन (45) को दो साल पहले स्तन कैंसर का पता चला था और बीते दिसंबर में उनका दिल्ली के एम्स में ऑपरेशन हुआ है. इलाज के दौरान ही डॉक्टरों ने बताया कि इसका संबंध शाहीन के दिमाग से है, जिसके लिए कुछ दवाएं नियमित रूप से खानी होंगी.
तस्लीम की कमजोर आर्थिक स्थिति देखते हुए डॉक्टर ने पटपड़गंज के एक एनजीओ के बारे में बताया, जो मुफ्त में यह दवाई मुहैया करवाते हैं, लेकिन कुछ महीनों से वहां यह दवाई मिलनी बंद हो गई.
तस्लीम बताते हैं, ‘मैं 500 रुपये दिहाड़ी कमाने वाला आदमी हूं, इतनी महंगी दवा कहां से लाऊंगा? 7,300 रुपये हफ्ते की दवा आती है. जब पटपड़गंज में दवा मिलनी बंद हुई तो फिर कुछ रिश्तेदारों से पैसे लेकर दवा ली, लेकिन कुछ दिनों में उन्होंने भी हाथ खींच लिया.’
वे आगे कहते हैं, ‘इसी सब में दो महीने पत्नी को दवा नहीं मिली, तो हालत और खराब होने लगी, इतने में लॉकडाउन हो गया, अब तो न कमाई न दवाई!’
इसके बाद नागरिकों का एक समूह, जो कोरोना संकट के समय कमजोर तबके वाले लोगों को मेडिकल सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए काम कर रहा है, को तस्लीम की परेशानी के बारे में पता चला, जिन्होंने फिलहाल कुछ हफ्तों के लिए शाहीन की दवा का इंतजाम किया है.
लेकिन मसला केवल दवाइयों का ही नहीं है. कैंसर के मरीजों में इस बीमारी की स्टेज बहुत मायने रखती है, जिसके आधार पर ही इसका ट्रीटमेंट निर्धारित किया जाता है. अक्सर देखा गया है कि जब तक रोगी में इसकी स्टेज की पहचान हुई, तब तक रोग गंभीर स्थिति में पहुंच गया.
दिल्ली के शास्त्री पार्क के रहने वाले मोहम्मद यूनुस (परिवर्तित नाम) की कहानी ऐसी ही है. नवंबर 2019 में दांत के दर्द की दवा लेने पहुंचे 40 वर्षीय यूनुस को कुछ जांचों के बाद उन्हें ओरल कैंसर होने की बात पता चली, यह दूसरी स्टेज पर था.
बायोप्सी के बाद उनकी बिगड़ती स्थिति को देखते हुए जल्द से जल्द ऑपरेशन की सलाह दी गई. परिवार ने जैसे-तैसे रुपयों का इंतजाम किया और शालीमार बाग के एक निजी अस्पताल में दिसंबर में उनका ऑपरेशन किया गया.
इसके बाद 40 दिनों के अंदर उन्हें कीमोथेरेपी और रेडिएशन थेरेपी शुरू करवाने को कहा गया लेकिन निजी अस्पताल का खर्च वहन न कर पाने के चलते परिजन उन्हें लेकर जीटीबी अस्पताल गए, जहां से उन्हें दिल्ली स्टेट कैंसर इंस्टिट्यूट, दिलशाद गार्डन भेजा गया.
कई तरह के टेस्ट आदि के बाद फरवरी के बीच में उनका पहला रेडिएशन शुरू हुआ, जो बिना किसी रुकावट के 31 मार्च तक चला. इस बीच एक कीमो भी हुई.
लेकिन 31 मार्च को ही यहां के एक डॉक्टर को कोविड पॉजिटिव पाया गया, जिसके बाद अप्रैल के पहले हफ्ते तक इंस्टिट्यूट के 26 स्टाफ कर्मी, 4 मरीज और एक मरीज के परिजन के कोरोना पॉजिटिव मिलने के बाद इसे बंद कर दिया गया.
उनकी पत्नी गुलशन (परिवर्तित नाम) बताती हैं, ‘2 मई को एक महीने बाद दोबारा रेडिएशन थेरेपी शुरू हुई है. कीमो कब होगी अभी नहीं पता. इस बीमारी के साथ सबसे बड़ा डर है कि ये वापस न लौट आए. ऐसे समय में जो थेरेपी अब तक पूरी हो जानी चाहिए थी, वो हो नहीं सकीं.’
गुलशन बताती हैं कि निजी अस्पताल की तरफ से एक दवाई उम्र भर खाने को कहा गया था, जिससे हालत और न बिगड़े, लेकिन लॉकडाउन के बीच ये दवाई मिल ही नहीं रही है.
घर की बिगड़ती आर्थिक स्थिति, तीन बेटियों की जिम्मेदारी के बीच फंसी गुलशन का डर है कि कहीं थेरेपी में हुई देरी और सही समय पर दवाइयों का न मिलना यूनुस को ऐसे हाल में न पहुंचा दे, जहां से उन्हें वापस लाना मुमकिन न हो सके.
गुलशन का डर गलत नहीं है. डॉ. भट्टी बताते हैं, ‘अगर किसी का कैंसर कीमो थेरेपी से कंट्रोल हो रहा था और अब उसे वो नहीं मिल पा रही है तो हालत बिगड़ेगी ही, हो सकता है कैंसर वापस लौट आए और ऐसी स्थिति भी आ सकती है, जहां उसे इलाज या दवाइयों से भी काबू न किया जा सके.’
लॉकडाउन और कोविड-19 के संक्रमण के चलते बंद हो रहे अस्पतालों के बीच न केवल कैंसर रोगी बल्कि नियमित रूप से डायलिसिस लेने वाले मरीज भी बेहद चुनौतीपूर्ण स्थिति में हैं, जो उनकी जिंदगी के लिए भी घातक साबित हो सकता है.
आमतौर पर वे मरीज, जिनके गुर्दे सही से काम करना बंद कर चुके होते हैं, उन्हें एक नियमित अंतराल पर शरीर से पानी और विषैले तत्व निकालने के लिए डायलिसिस की जरूरत होती है.
साथ ही ऐसे मरीजों की रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) बेहद कम होती है, जिससे उनमें किसी भी तरह के संक्रमण की आशंका बनी रहती है.
मरीज की हालत देखते हुए उन्हें हफ्ते में दो से तीन बार डायलिसिस करवाना होता है, जिससे उनके सभी अंग सही तरह से काम कर सकें. अगर ऐसे मरीज अधिक समय तक यह प्रक्रिया न करवाएं तो उनकी जान भी जा सकती है.
अप्रैल के दूसरे हफ्ते में दिल्ली की 45 साल की कंचन देवी को समय पर डायलिसिस न मिलने से उनकी जान चली गई . बीते ढाई सालों से वे पूर्वी दिल्ली के एक अस्पताल में नियमित डायलिसिस करवा रही थीं, लेकिन इस बार अस्पताल में कोविड संक्रमण मिलने के बाद इसे बंद कर दिया गया.
उनके बेटे ने एक अख़बार को बताया कि उन्होंने तीन निजी और एक सरकारी अस्पताल में फोन किया लेकिन सभी ने उन्हें भर्ती करने से मना कर दिया. उनकी लगातार बिगड़ती हालत को देखकर परिजन एक निजी अस्पताल के इमरजेंसी विभाग में पहुंचे, जहां जब तक डायलिसिस दिया गया, बहुत देर हो चुकी थी.
डॉ. भट्टी का कहना है कि मरीज को डायलिसिस न मिल पाना उसकी हत्या करने जैसा है क्योंकि उस मरीज की जान बचाने की जो प्रक्रिया है, आपने उसे उससे वंचित कर दिया.
कंचन का इलाज पूर्वी दिल्ली के शांति मुकुंद अस्पताल में चल रहा था, जिसके डायलिसिस सेंटर को अस्पताल में कोरोना संक्रमण मिलने के बाद बंद किया गया.
दक्षिण पूर्वी दिल्ली के मूलचंद अस्पताल का हाल भी ऐसा ही है, जिसका डायलिसिस सेंटर कोरोना संक्रमण के कारण बंद किया गया है. ऐसे में यहां आने वाले मरीज और उनके परिजन लॉकडाउन के बीच आने-जाने के साधनों के अभाव में दर-दर भटकने को मजबूर हैं.
वजीराबाद के सलमान की मां शाहिदा (50) का इलाज भी इसी अस्पताल में चल रहा था. उन्हें शुगर और दिल की बीमारी है और नियमित रूप से डायलिसिस करवाना होता है.
किताबों पर जिल्द चढ़ाने का काम करने वाले सलमान ने ईडब्ल्यूएस कार्ड बनवाया हुआ था, जिसकी मदद से निशुल्क इलाज मिल जाता था.
उन्होंने बताया कि जबसे अस्पताल बंद हुआ, शहर के हर कोने के अस्पतालों में भटकने के बाद शाहीन बाग का एक क्लिनिक में डायलिसिस करने के लिए तैयार हुआ, जहां हर सेशन के लिए करीब ढाई हजार रुपये फीस देनी है.
वे बताते हैं, ‘दो महीने होने को आए, काम बंद है, दोस्तों-रिश्तेदारों से पैसे लेकर जैसे-तैसे मां का इलाज करवा रहा हूं.’
हालांकि अस्पतालों को केंद्रीय गृह मंत्रालय और दिल्ली सरकार द्वारा बार-बार गंभीर रोगियों को भर्ती करने और समुचित इलाज मुहैया करवाने के निर्देश दिए गए हैं, लेकिन लॉकडाउन के बीच सही समय पर अस्पतालों तक पहुंचना एक बड़ी चुनौती है.
इस बीच अस्पतालों में फैले संक्रमण के चलते कमजोर इम्युनिटी के कारण गंभीर बीमारियों से जूझ रहे मरीजों में किसी भी तरह के इंफेक्शन का खतरा बढ़ जाता है.
ऐसे भी मामले सामने आए हैं, जहां किसी अन्य रोग के इलाज के लिए अस्पताल जा रहे मरीज को कोरोना का संक्रमण हुआ, जो अंत में जानलेवा साबित हुआ.
दिल्ली के जामिया नगर की रिफत (परिवर्तित नाम) की एक महिला रिश्तेदार शुगर और लीवर की बीमारी से जूझ रही थीं, जिसका इलाज एम्स में चल रहा था. डॉक्टर द्वारा एक इंजेक्शन बताया गया था, जिसे नियमित रूप से लेना होता था.
लॉकडाउन हो जाने के बाद वे पास के एक क्लिनिक में हर दूसरे दिन यह इंजेक्शन लगवाने जा रही थीं, जब एक दिन उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी.
उनके परिवार का मानना है कि उन्हें यह संक्रमण उसी क्लिनिक से हुआ हो सकता है, जहां वे इंजेक्शन लगवाने जाती थीं. परिजनों ने कोविड-19 का टेस्ट करवाया जो पॉजिटिव निकला.
रिफत बताती हैं कि मुश्किलें यहीं से शुरू हुईं. अव्यवस्थाओं की स्थिति यह थी कि पॉजिटिव पाए जाने के 24 घंटे बाद एम्बुलेंस रात के डेढ़ बजे लेने आई और एक सरकारी अस्पताल ले गई. यहां कहा गया कि बेड नहीं है और उन्हें अल सुबह वापस घर भेज दिया गया.
इसके बाद कुछ लोगों के कॉल करने पर उन्हें राजीव गांधी अस्पताल ले जाया गया, जहां उन्हें आइसोलेशन वॉर्ड में रखा गया. रिफत के मुताबिक, इस वॉर्ड में बाहर से ताला लगा दिया गया था और अगले तीन दिनों तक कोई डॉक्टर देखने नहीं आया.
इस बीच परिजन निजी अस्पतालों में भी संपर्क कर रहे थे और एक दिन बेड उपलब्ध हो जाने पर उन्हें साकेत के मैक्स अस्पताल में ले जाया गया. यहां आने तक उनकी तबियत काफी बिगड़ चुकी थी, कई अंग प्रभावित थे. उन्हें वेंटिलेटर पर भी रखा गया, लेकिन अंत में उन्हें बचाया नहीं जा सका.
रिफत कहती हैं, ‘प्राइवेट अस्पतालों में दिन की 50 हजार रुपये फीस थी, मिडिल क्लास लोग हैं, कहां से इतना पैसा लाएंगे, यही देखकर सरकारी अस्पताल में जाने का सोचा, लेकिन अगर पहले ही उन्हें प्राइवेट में ले जाते तो शायद जान बच जाती.’
डॉ. भट्टी कहते हैं, ‘ये हेल्थ इमरजेंसी आनी थी सरकार और व्यवस्था के ऊपर, लेकिन ये आ गई है गैर-कोविड मरीजों के ऊपर, जो अब इससे अकेले लड़ रहे हैं.’
वे आगे कहते हैं कि सरकार को अगले तीन या छह महीनों तक निजी अस्पतालों को साथ लेकर एक ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए, जिससे पहले से ही खस्ताहाल चल रही स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारा जा सके.
उनका कहना है, ‘हम देश के मजदूरों की परेशानी देख पाए क्योंकि वे इकट्ठे होकर सामने आए हैं लेकिन नॉन कोविड मरीज कहीं इकट्ठे होकर सामने नहीं आए हैं, इसलिए उनका दर्द हमें पता नहीं चल रहा है.’