क्या सरकार मान चुकी है कि उसका काम सिर्फ़ घोषणा करना है, तर्क ढूंढना जनता की ज़िम्मेदारी है?

आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या किसी चीज़ का कोई तर्क बचा है? क्या यह इसलिए है कि सरकार निश्चिंत है कि उसके फैसलों की तर्कहीनता की हिमाकत पर उसकी जनता मर मिटने को तैयार बैठी है?

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Patna: Homeless people take shelter inside pipes kept along the national highway during the nationwide COVID-19 lockdown, in Patna, Tuesday, May 19, 2020. (PTI Photo)(PTI19-05-2020_000290B)

आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या किसी चीज़ का कोई तर्क बचा है? क्या यह इसलिए है कि सरकार निश्चिंत है कि उसके फैसलों की तर्कहीनता की हिमाकत पर उसकी जनता मर मिटने को तैयार बैठी है?

Patna: Homeless people take shelter inside pipes kept along the national highway during the nationwide COVID-19 lockdown, in Patna, Tuesday, May 19, 2020. (PTI Photo)(PTI19-05-2020_000290B)
(फोटो: पीटीआई)

बिल्ली रास्ता काट जाया करती है
प्यारी प्यारी औरतें हरदम बकबक करती रहती हैं
चांदनी रात को मैदान में खुले मवेशी
आ कर चरते रहते हैं
और प्रभु यह तुम्हारी दया नहीं तो और क्या है
कि इनमें आपस में कोई संबंध नहीं.

रघुवीर सहाय की ‘प्रभु की दया’ शीर्षक इस कविता का सीधा अर्थ करना मुश्किल है. ये जो तीन अलग अलग क्रियाएं हैं, साथ-साथ चलती और बिना एक दूसरे पर टिके, यह जो इनकी संबंधहीनता है, यही जीवन है. इनमें कोई कार्य कारण संबंध नहीं है, यानी एक ही साथ इन सबके होने का कोई तर्क नहीं, उसे प्रभु की दया के अलावा और और क्या कहा जा सकता है.

जो हो, यह कविता एक विशेष मानवीय स्वभाव के बारे में है जो चीजों, घटनाओं के पूर्वापर (आगे-पीछे), कार्य कारण संबंध खोजने का है, यानी हर चीज का तर्क खोजने का. लेकिन जब तर्क न मिले? फिर भी सब कुछ चलता हो? तब तो प्रभु की दया को ही श्रेय देना पड़ता है.

रघुवीर सहाय की इस कविता के प्रकाशन के कोई 68 साल बाद आज का सबसे बड़ा भारतीय प्रश्न यह है कि क्या किसी चीज का कोई तर्क बचा है?

मसलन, कोरोना वायरस के संक्रमण के सबसे अधिक मामलों की रिपोर्ट के बीच उड़ानों की बहाली का ऐलान करते हुए मंत्री महोदय ने कहा कि जहाज में बीच की सीट खाली छोड़ने का कोई औचित्य नहीं है. लेकिन सबको आपस में पर्याप्त दूरी बनाए रखने की सावधानी बरतनी है.

सफर करने वाले जानते हैं कि जहाज में तीन सीटों में दो हत्थे ऐसे होते हैं जो अगल-बगल दोनों के मुसाफिर साथ-साथ इस्तेमाल करते हैं. दूरी तो बहुत दूर की बात है, एक दूसरे से सटे-सटे ही आपकी यात्रा पूरी होती है. तो आप अपने सहयात्री को कैसे बचाएंगे संभावित संक्रमण से? या पूरी यात्रा और यात्रा के बाद के दिन आशंका में ही बीतेंगे?

इसके पहले यह सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर दो रोज में क्या बदल गया कि सरकार ने उड़ानें तत्काल शुरू न करने के अपने निर्णय को संशोधित कर दिया? तर्क क्या था, स्वास्थ्य का तर्क क्या अर्थ के तर्क से हार गया? क्या जन स्वास्थ्य की बलि दे दी गई ताकि हवाई जहाज की कंपनियों का स्वास्थ्य बना रहे?

किस तर्क से मंत्री महोदय तमिलनाडु सरकार के इस प्रस्ताव को बेकार बता रहे हैं कि ठीक है, जो हवाई मार्ग से आएगा उसे भी 14 दिन खुद को क्वारंटीन करना होगा. राज्य सरकार को खारिज करते हुए केंद्र का कहना है कि सब जो उड़कर आएंगे-जाएंगे, बाध्य नहीं हैं कि गंतव्य तक पहुंचने के बाद खुद को क्वारंटीन करें.

जो हवाई मार्ग से चलता है वह तीन दिन में कम से कम तीन राज्यों की यात्रा कर सकता है और इस बीच सैंकड़ों लोगों के संपर्क में भी आ सकता है? उस पर कोई नियंत्रण है? नहीं है तो उसका क्या तर्क है?

क्या हवाई यात्रियों में कोई विशेष प्रतिरोधक क्षमता है जो रेलमार्ग से चलने वालों में नहीं है, खासकर उनमें जिनके लिए कृपापूर्वक श्रमिक ट्रेनें चलाई जा रही हैं? उन्हें तो 14 दिन तक खुद को सबसे अलग रखना है.

उसके बाद हानिरहित होने की राजकीय मुहर के साथ ही वे सबसे मिल सकेंगे! क्या यह अंतर इसलिए है कि अपनी आर्थिक अक्षमता के कारण ये श्रमिकजन शारीरिक तौर पर भी व्याधियों के लिए अधिक कमजोर हैं?

सरकार कह सकती है कि यह समाजशास्त्र का प्रसंग है, स्वास्थ्य का नहीं. या यह भी कि यह राजनीतिक प्रश्न है जो इस आपदा की घड़ी में पूछना अशोभनीय है.

यात्रा का जिक्र चल रहा है तो पर्याप्त दूरी के मंत्र का जाप करते हुए ट्रेन में भी तीनों स्लीपर बर्थ के इस्तेमाल का क्या तर्क है? एक तरफ तो यह रियायत, दूसरी तरफ बसों में तकरीबन आधी सीटों के ही भरने का सावधानी! इन दोनों के बीच क्या कोई संगति है?

इसका क्या तर्क था कि ठीक एक दिन पहले तक ट्रेनें चलाने की शर्त यह थी कि गंतव्य राज्य की अनुमति अनिवार्य थी और दूसरे दिन वह खत्म कर दी गई ? ठीक एक दिन में ऐसी क्या तब्दीली आ गई? आप उस यंत्रणा के बारे में सोचें जो साधारण लोगों को रेल यात्रा के पहले दो रोज पहले तक झेलनी पड़ रही थी?

आप कश्मीरी गेट से अक्षरधाम तक जा सकते हैं लेकिन नोएडा नहीं! कोई तर्क- वैज्ञानिक या सामाजिक या राजनीतिक?

राज्यों की सीमाओं पर राज्यों के नियंत्रण का क्या तर्क है? यानी, आप एक गांव से दूसरे गांव , एक शहर से दूसरे शहर, एक जिले से दूसरे जिले में आ-जा सकते हैं लेकिन अगर एक राज्य की सीमा के पार दूसरे राज्य में जा रहे हों तो सरकार की अनुमति की क्यों जरूरत है?

दोनों तरह की आवाजाही में मूलभूत क्या अंतर है? कासरगोड़ और मंगलोर के बीच वह क्या विशेष अंतर है जो मंगलोर और उससे सटे कर्नाटक के जिले या गांव में नहीं है? क्या यह अंतर सिर्फ इसलिए है कि कासरकोड़ केरल में है और मंगलोर कर्नाटक में?

सड़क से चलते हुए तो आपको पता भी नहीं चलता कि कब आप एक से दूसरे राज्य में दाखिल हुए? फिर रोक का क्या तर्क?

तर्क नहीं है. तर्क इसका भी नहीं कि राज्य उधार तो ले सकते हैं लेकिन तभी जब केंद्र सरकार की शर्तें मानें. राज्य की स्वायत्तता के तर्क का क्या हुआ?

तर्क इसका क्या है कि जब संक्रमित लोगों की संख्या 500 से भी कम थी और वे भी कुछ ही इलाकों तक सीमित थे तब तो अचानक दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन करके पूरी आबादी को बंद कर दिया गया और जब संक्रमित लोगों की संख्या लाख पार कर गई तो पूरे देश को खोल दिया गया?

इसका क्या तर्क कि जब संक्रमण नहीं था तब श्रमिकों की आवाजाही रोक दी गई और जब उसकी आशंका सबसे ज्यादा है उनका आवागमन अबाधित है? वह भी तब जब राज्यों की जांच की, इन सारे लोगों क्वारंटीन करने की क्षमता अत्यंत सीमित है?

इसका क्या तर्क है कि 11 मई के बाद से स्वास्थ्य मंत्रालय ने प्रेस से रोजाना मिलना बंद कर दिया है और देश को संक्रमण के बारे नियमित आधिकारिक सूचना देना अब गैर जरूरी मान लिया गया है? इसका क्या तर्क था कि अप्रैल के आखिरा हफ्ते से प्रेस के सामने इंडियन काउंसिस ऑफ मेडिकल रिसर्च के विशेषज्ञों का आना बंद कर दिया गया?

इसका तर्क क्या है कि भारत अपनी तुलना नितांत भिन्न आबोहवा वाले देशों से, यानी इटली, इंग्लैंड और अमेरिका से कर रहा है लेकिन अपने पड़ोसियों जैसे श्रीलंका, बांग्लादेश से नहीं? क्या इसलिए कि ऐसा करते ही मालूम होगा कि भारत इनसे बेहतर नहीं साबित हुआ है और वास्तव में दक्षिण एशिया के हालात यूरोप या अमेरिका से अलग हैं?

और अगर इस पर लोग विचार करने लगेंगे तो शायद पूछ बैठें कि आपने लॉकडाउन के मामले में पश्चिम की नकल क्यों की, अपनी परिस्थिति के मुताबिक अपना खास तरीका क्यों नहीं अपनाया? तर्क नहीं है, दो निर्णयों के बीच कोई तारतम्य नहीं है. है तो सिर्फ फैसला है और ऐलान है.

क्या यह इसलिए है कि सरकार मुतमइन है कि उसकी घोषणाओं के पीछे का तर्क कोई तलब नहीं करेगा? या वह यह जानती है कि उसका काम घोषणा का है, तर्क खोजने का काम उसकी जनता का है? या वह इससे निश्चिंत है कि उसके फैसलों की तर्कहीनता की हिमाकत पर उसकी जनता मर मिटने को तैयार बैठी है?

तर्क नहीं है, तर्क की खोज नहीं है. तर्कहीनता के शीतयुग का आरंभ क्या जनता की मृत्यु ही नहीं है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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