बात कैसे करें कि सब सुन सकें और वह जो कहा जा रहा है, वही सुनें? सुनने का अर्थ क्या है? बोलने में उम्मीद है कि जो कहा जा रहा है, उसे सुना जाएगा, ऐसा होता नहीं. गले के साथ कानों का पर्याप्त प्रशिक्षण हुआ नहीं. सुनना भी बोलने की तरह ही आपकी नैतिक मान्यताओं से जुड़ा है.
कोई 8 घंटे से कम्प्यूटर की खाली, काली चमकती स्क्रीन के सामने बैठा हूं. कर्सर टिमटिमा रहा है. मैं कुछ लिखता हूं, मिटाता हूं, फिर लिखता और मिटाता हूं. लाचारी, बेबसी, छटपटाहट, सारे भाव घेर लेते हैं. सोचता रहता हूं. केदारनाथ सिंह का ‘बाघ’ याद आ जाता है. बाघ को लिखना सिखलाया जा रहा है:
काठ की एक बहुत बड़ी काली पटिया
उसके सामने रखी थी
जिस पर लोमड़ी ने कहा
लिखो- ‘ईश्वर’
कविता बाघ के ‘ईश्वर’ लिखने की बेतरह कोशिश के और आखिर वह न लिख पाने पर उसकी बेचैनी का ब्योरा देती है. उसकी दाढ़ के नीचे कहीं ईश्वर का ‘श्व’ दबा हुआ है जिसे वह किसी भी तरह पटिया पर नहीं लिख पा रहा. बार-बार लोमड़ी के चिल्लाते रहने पर भी उससे ईश्वर नहीं लिखा जाता:
लिखता रहा
काटता रहा
फिर हारकर बोला-
नहीं, नहीं,मुझसे नहीं लिखा जाएगा
देर तक अख़-अख़ करता रहा बाघ
उसकी आंखों में एक अजब-सी
पीड़ा-भरी चमक थी
जैसे लड़ते-लड़ते
पहली बार
पछाड़ खा गया हो!
कविता की कई व्याख्याएं हो सकती हैं. चाहे तो कोई इस बाघ को नास्तिक वामपंथी कह सकता है जो ईश्वर नहीं लिख पाता. ‘बाघ’ कविता-श्रृंखला की सारी कविताओं में बहुलार्थता की यह संभावना है. क्या वह इस कारण नहीं लिख पा रहा कि ईश्वर उसके लिए एक अपरिचित शब्द ही नहीं, एक बेगानी अवधारणा है जिसकी वह पूरी कल्पना नहीं कर पा रहा या जिससे रिश्ता बिठाना उसके लिए कठिन है?
इस तरह के अर्थ का केदार जी हल्के स्मित से स्वागत करते. जो भी हो, जब भी भरे हुए हृदय के साथ लिखने बैठता हूं और कुछ भी नहीं लिख पाता तो केदार जी की यह कविता मन में बज उठती है. कुछ है जो दाढ़ के नीचे दबा हुआ है लेकिन निकल नहीं पा रहा.
लिखने के प्रयास में असफल रह जाने की यातना की ऐसी अभिव्यक्ति हिंदी कविता में विरल है. रुद्ध कंठ और कारणों से भी हुआ जाता है.
अज्ञेय ने अपनी कविता में लिखा कि मंदिर के द्वार पर खड़ा भीतर घंट घड़ियाल बजते और भक्तों के कंठ से होते कीर्तन के शोर-शराबे के बीच मैं पाता हूं कि मेरा गला रुंधा हुआ है. जितना ही अधिक मैं जानता जाता हूं, उतना ही हकलाता हूं.
जानने और बोलने या लिखने के बीच एक बड़ा फासला है. वह इसलिए कि जो जाना गया है वह कितना कितना कम है जो जाना जा सकता है या जो जानने योग्य है उसकी अपेक्षा, यह ज्ञान ही बोलने से रोक देता है. बोलना अपनी अपर्याप्तता के एहसास के कारण संभव नहीं होता. फिर भी अगर बोलें या लिखें ही तो खुद अपना ही कहा या लिखा ओछा मालूम पड़ने लगता है.
एक तो है अपनी इस हमेशा बनी रहने वाली कमी का एहसास. दूसरा है अनिश्चितता अपने जाने हुए को लेकर. क्या किसी विचार को मैं ठीक-ठीक पकड़ पा रहा हूं?
वैज्ञानिक फेयनमन ने इसे दिलचस्प तरीके से यूं कहा, ‘जब आप किसी चीज के बारे में सोच रहे हो, जिसे आप नहीं समझते तो आपको भयंकर परेशानी का एहसास होता है, जिसे ‘कंफ्यूजन’ कहते हैं. इस एहसास से ज्यादातर वक्त आप नाखुश रहते हैं. आप इसे भेद नहीं पाते। क्या यह कंफ्यूजन इस कारण है कि हम शायद एक तरह के बंदर ही हैं जो दो लकड़ियों को जोड़कर केले तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं और उसे यानी उस विचार को हासिल नहीं कर पाते? ज्यादातर वक्त मुझे उस बंदर जैसा एहसास बना रहता है, जो दो लकड़ियों को जोड़ने को कोशिश कर रहा हो और मैं खुद को मूर्ख नजर आता हूं. कभी कभी लेकिन लकड़ियां इस तरह जुड़ जाती हैं और मैं केले तक पहुंच जाता हूं.’
इतनी कठिनाई से हासिल किए गए विचार को व्यक्त करने में अहंकार भी हो सकता है और आप चाहेंगे कि हर कोई उससे सहमत हो. उसी के आधार पर फैसले हों, लेकिन आप जैसे और भी तो हैं! विचारों की प्रतियोगिता है.
फेयनमन प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के अपने अनुभव के बारे में लिखते हैं कि वहां आने के पहले वे इतने महान लोगों से एक साथ कभी नहीं मिले थे. वे एक मूल्यांकन समिति की बैठक का वर्णन करते हैं. इस समिति को यूरेनियम को अलग करने के तरीके का फैसला करना था. इस समिति में कॉम्पटन, टॉलमान, स्मिथ, उरे, रबी और ओपनहाइमर जैसे दिग्गज थे.
इस समिति में एक व्यक्ति एक बिंदु रखता था, फिर मसलन, कॉम्पटन एक दूसरे नुक्ते से उस पर राय देते. फिर कोई और कहता कि शायद यह भी एक संभावित तरीका है और हम इस पर इस तरह विचार करें. सो, मेज के गिर्द बैठा हर कोई एक दूसरे से असहमति व्यक्त कर रहा है.
मैं जरा चकित और हैरान हूं. आखिरकार, समिति के अध्यक्ष टॉलमान ने कहा, ‘सारे तर्कों को सुनने के बाद मुझे लगता है कि कॉम्पटन का तर्क सबसे ठीक है और हमें उसी के मुताबिक आगे बढ़ना चाहिए.’
फेयनमन ने लिखा कि उनके लिए यह बड़ा भारी अचरज था कि एक बैठक में इतने सारे विचार पेश किए गए. हर इसी ने एक नए पहलू पर विचार किया, याद रखते हुए कि दूसरे ने क्या कहा था और तब सबको समेटते हुए इस आधार पर निर्णय किया गया है कि इनमें सर्वश्रेष्ठ कौन-सा विचार है, बिना उसे तीन बार कहे. ‘वे सचमुच बड़े लोग थे,’ फेयनमन इस तजुर्बे को याद करते हुए कहते हैं.
बड़ा व्यक्ति अपने सोचने के कर्तव्य और अधिकार से परिचित है लेकिन उसे मालूम है कि विचार करना एक सहकारी व्यापार है.यह वह सिर्फ अपने वक्त में ही नहीं कर रहा होता है, अपने पहले गुजरे हुओं से भी उसका संवाद चलता रहता है, उनसे उसकी बहस जारी रहती है. इसलिए विचार की दुनिया, जैसे कविता में नया पुराने को अप्रासंगिक नहीं कर देता.
इस विनम्रता का अर्थ यह नहीं है कि कोई विचार है ही नहीं या सब कुछ ठीक है या हर किसी के मत का एक ही मोल है. एक दूसरे व्याख्यान में फेयनमन एक दूसरी बात कहते हैं. वे ऐसे श्रोता या पाठक के रवैये पर टिप्पणी करते हैं, जो कहता है कि वह उनकी बात नहीं मानता क्योंकि यह उसे बहुत अटपटी लगती है या जमती नहीं.
वे उसे कहते हैं और लगभग डांटते हुए कि ‘आपको यह मानना ही पड़ेगा. कुदरत इसी तरह काम करती है. अगर आपको यह जानने में दिलचस्पी है कि कुदरत का तरीका क्या है तो समझिए कि हमने उसे गौर से देखा है, उसे इस तरह देखते हुए वह ऐसी नजर आती है. आपको यह पसंद नहीं? फिर कहीं और जाइए, किसी और ब्रह्मांड में जहां कायदे कुछ अधिक सरल हो, दार्शनिक तौर पर आपको खुश करने वाले, मनोवैज्ञानिक तौर पर अधिक आसान. मैं आपकी मदद नहीं कर सकता. मैं तो आपको ईमानदारी से बताऊंगा कि दुनिया उन्हें कैसी दिखती है, जिन्होंने उसे समझने की मशक्कत की है, मैं तो सिर्फ आपको यही बता सकता हूं कि वह कैसी दिखती है.’
तो बोला हर किसी की दिलजोई के लिए नहीं जाता. सत्य के संधान के मार्ग में जिस बिंदु पर आप खड़े हैं, वहां आप जो देख पा रहे हैं, उसे बोलना ही फर्ज है. बोलना लोकप्रिय होने के लिए नहीं बल्कि सत्य का साझा समुदाय बनाने के लिए. बेहतर हो कि आप उस प्रक्रिया के बारे में भी बता सकें जिससे आप इस सत्य तक पहुंचे.
इस प्रसंग में गांधी की आत्मकथा का शीर्षक बहुत उपयोगी है… ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग.’
केदारनाथ सिंह या अज्ञेय की कविता से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि गला हमेशा रुंधा ही रहेगा और साफ आवाज कभी न निकलेगी. साफ बोलना, स्पष्ट बोलना गुण है लेकिन अपने आप में काफी नहीं है.
नामवर सिंह ने अपने एक लेख ‘नंगी और बेलौस आवाज’ में लिखा है, ‘आज किसी की तारीफ में इतना ही कह देना काफी समझा जाता है कि वह स्पष्टवादी है, ध्यान इस तरफ नहीं जाता कि वह स्पष्ट कथन सही है या गलत, विवेकपूर्ण है या अविवेकपूर्ण. बहरहाल खरी बात असर कर रही है, तासीर में वह खतरनाक ही क्यों न हो. इसके चलते कुछ कवि लेखकों ने रंग जमाया ही, राजनीति में भी कई महाजन सिर्फ इस एक गुण के कारण लोकप्रिय नेता बने बैठे हैं… ‘
सब कुछ प्रयोगों की एक श्रृंखला है. आप जब दृढ़ता से अपना अब तक उपलब्ध किया सत्य बताते हैं तो आगे की पीढ़ियों का हाथ नहीं बांध देते. आपको यह बताना ही चाहिए कि रास्ते की मुश्किलें, उलझनें क्या थीं और आप उनसे कैसे जूझे. उसके बिना आपकी बात ईमानदार न होगी.
तो शायद आपको विचार के अपने कारखाने में इस्तेमाल किए जाने वाले औजार और आपने जो बनाते हुए छोड़ दिया, उसके बारे में बताने में संकोच नहीं करना चाहिए. विचार तक पहुंचने की प्रक्रिया से परिचय विचार से रिश्ते को बेहतर करता है.
सत्य के कई पहलू हैं और जानना हमेशा अपूर्ण है. तो फिर कुछ भी क्या निर्णयात्मक कहा ही नहीं जा सकता? गांधी के बोलने में अस्पष्टता न थी. वे खुद को बदलते रहे. लेकिन एक नैतिक कसौटी थी जिस पर वे खुद को कसते रहे.
एक है सूचना, दूसरी चीज है धारणा. कई बार दोनों में फर्क मिट जाता है. सूचना में जो तथ्यता का तत्व है, वह गायब कर दिया जाता है. जब वही सूचना स्वीकार की जाए, जो मेरी धारणा को पुष्ट करती हो तो फिर किसी भी परिघटना को समझना कठिन हो जाता है.
इस प्रसंग में एक संवाददाता मित्र की उनके अपने संपादक से एक रिपोर्ट के बारे में हुई बातचीत याद आ गई. यह फरवरी 2020 में दिल्ली में हुई हिंसा की एक घटना के इर्द-गिर्द बुनी रिपोर्ट थी. मेरे मित्र की बात एक मुसलमान युवक से हुई.
वह अपने हिंदू मित्रों से मिलकर निकला था कि उसे गोली लग गई. उसने अपने उन्हीं हिंदू मित्रों को फोन किया. वे आए और उसकी मदद की. संपादक को यह रिपोर्ट पसंद न आई क्योंकि उनके मन में इस हिंसा को लेकर जो धारणा थी, यह रिपोर्ट उसे जरा हिला रही थी.
संपादक अपनी धारणा के आगे इस सूचना की बलि देने को तैयार थे. मुझे यह सुनते हुए 2002 का गुजरात का एक वाकया याद आ गया. बड़ोदा में आर्किटेक्ट्स ने एक बैठक बुलाई थी. गुजरात की हिंसा में ऐतिहासिक स्मारकों को जो नुकसान पहुंचाया गया था, यह बैठक उसके बारे में थी.
जब स्मारकों की सूची पढ़ी गई तो एक सदस्य ने ऐतराज किया कि फेहरिस्त में एक भी हिंदू स्मारक का नाम न था. बाकी सदस्यों ने हैरानी जताई क्योंकि किसी ‘हिंदू’ स्मारक को नुकसान की कोई खबर ही नहीं थी. उस सदस्य ने कहा कि वे यह मानने को तैयार नहीं.
इसी तरह की एक घटना राम शिला पूजन अभियान के समय पटना में हुई हिंसा से जुड़ी है. हमने पटना सिटी में हिंसा की रिपोर्ट में मस्जिदों को हुए नुकसान का ब्योरा दिया तो आरोप लगाया गया कि किसी मंदिर का तो जिक्र ही नहीं है और इसलिए यह रिपोर्ट एकतरफा है.
वास्तविकता यही थी कि किसी मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा था, लेकिन यहां एक आग्रह या धारणा तथ्य को गढ़ने या उससे इनकार करने की जिद बांधे थी. यह बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती गई है. हम उस सूचना को मानने से इनकार कर देते हैं जो हमारी धारणा के अनुकूल नहीं है. हम अपनी पसंद की सूचना चाहने लगते हैं और उसके खिलाफ पड़ने वाली सूचना को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं.
प्रायः समझा जाता है कि इस प्रवृत्ति का संबंध दक्षिणपंथ के उभार से है. इसलिए नए, उग्र राष्ट्रवाद के दौर को ‘वैकल्पिक तथ्यों’ का जमाना भी कहा जाता है. लेकिन बात आज की नहीं है और सिर्फ दक्षिणपंथ की नहीं है. इसे कुछ उदाहरणों से समझना आसान होगा.
2006-07 में बंगाल में वामपंथी गठबंधन की सरकार की थी. इस सरकार को सत्ता में तीन दशक हो चुके थे. सिंगूर और नंदीग्राम में आंदोलनकारियों के खिलाफ राज्य और सीपीएम समर्थित हिंसा की खबरें आ रही थीं. हमारे कई मित्र वहीं से सूचना दे रहे थे.
अखबार सूचना के स्रोत हैं, लेकिन उस एक अंग्रेज़ी अखबार को पढ़कर जो उदार और वामपंथी झुकाव वालों का प्रिय है, आप मालूम ही नहीं कर सकते थे कि बंगाल में ऐसी कोई भीषण हिंसा चल रही है. वहीं दूसरे अखबार इस हिंसा के ब्योरे छाप रहे थे.
जब मैंने इस हिंसा के बारे में और उसके खिलाफ लिखा तो मेरे एक मित्र, जो पार्टी से जुड़े थे, का नाराजगी भरा फोन आया. वे मुझ पर मिथ्या प्रचार का आरोप लगा रहे थे. मैंने उनसे पार्टी मुखपत्र और उस प्रिय समाचार पत्र के अलावा और स्रोतों को देखने का आग्रह किया. बाद में कभी उन्होंने मुझसे बात नहीं की.
संभवतः वे सही सूचना हासिल कर पाए थे लेकिन साफ था कि वे उस सूचना का प्रसारण नहीं चाहते थे. यह मैं इसीलिए कह पा रहा हूं कि उसके बाद न तो उन्होंने यह कहना जरूरी समझा कि मेरी सूचना गलत थी, न यह कि उनकी गलत थी.
इस समय बंगाल में सरकार और पार्टी उन नाट्य दलों को प्रदर्शन नहीं करने दे रही थी, जो इस हिंसा के विरुद्ध थे. यह साफ-साफ सेंसरशिप थी.
दिल्ली में अभिव्यक्ति की आजादी पर एक सेमिनार में एक वामपंथी नाट्यकर्मी जब सेंसरशिप के खिलाफ बोल चुके, तो मैंने उनसे उनकी सरकार और पार्टी की इस कार्रवाई के बारे में पूछा. उन्होंने कहा कि ऐसी कोई सूचना उन्हें नहीं है. जाहिर है वे जानते थे कि क्या हो रहा है लेकिन इस सूचना से उनकी छवि खंडित होती.
उस वक्त वाम मोर्चे के खिलाफ बड़ा आंदोलन हुआ जिसमें बंगाल के कई बुद्धिजीवियों ने भी हिस्सा लिया. उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के लिए प्रचार भी किया. तृणमूल के शासन में आते ही सीपीएम के दफ्तरों और सदस्यों पर हमले तेज हो गए.
हमने इस राजनीतिक हिंसा के खिलाफ एक बयान तैयार किया. नंदीग्राम हिंसा के खिलाफ सक्रिय, कलकत्ता निवासी भारत की एक सम्मानित कथाकार को फोन किया कि वे इस हिंसा के विरुद्ध बयान का समर्थन करें. वे नाराज हो गईं और उन्होंने कुछ भी सुनने से इनकार कर दिया.
जिस पार्टी को सरकार में लाने के लिए उन्होंने मेहनत की थी, उसके खिलाफ वे किसी सूचना या तथ्य को स्वीकार करने को तैयार न थीं. ऐसे उदाहरण अनेक हैं. इनसे साबित यही होता है कि सूचना का चयन आपकी नैतिक प्राथमिकता से जुड़ा हुआ है.
एक प्रलोभन संतुलन करने का होता है. इसका कि शायद ऐसा करने से दोनों पक्ष आपको सुनेंगे. लेकिन ऐसा होता नहीं. संतुलन में पक्षों की समतुल्यता स्थापित करने की कोशिश होती है. निष्पक्ष दिखने का प्रलोभन बड़ा है, लेकिन पक्ष तो सिर्फ एक का है. वह है सत्य का पक्ष.
अगर इस बात को लेकर संदेह नहीं कि आप सत्य के मार्ग पर हैं तो समतुल्यता के लोभ से लड़ा जा सकता है. नोआखाली में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा के बीच गांधी ने वहां जाकर हिंसा का मुकाबला करने का निर्णय लिया.
नोआखाली पहुंचने पर मुसलमानों ने उनका विरोध किया. कहा कि हिंसा अन्य जगहों पर मुसलमानों के खिलाफ हो रही है, वे वहां क्यों नहीं जाते! गांधी विचलित नहीं हुए.
नोआखाली की हिंसा को बिहार में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के सहारे जायज नहीं ठहराया जा सकता था. वे हिंसा या सांप्रदायिकता के प्रसंग में तुलना के खिलाफ थे. उनका स्वर स्पष्ट था और वह नोआखाली के मुसलमानों की इस मांग से किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार न थे.
वैसे ही जब वे कलकत्ता पहुंचे और मुसलमानों पर हिंसा को रोकने का प्रयास किया, तो उनसे पंजाब में हिंदुओं पर हो रही हिंसा पर ध्यान देने को कहा गया. गांधी कलकत्ते से हिलने को राजी न हुए.
आमतौर पर हम समझते हैं कि गांधी इस देश के ऐसे नेता थे जिनकी बात सबसे ज्यादा लोगों ने सुनी और उनसे वे प्रभावित भी हुए. यह सच है लेकिन यह भी सच है कि उनका विरोध भी अत्यंत व्यापक था. अपने सत्य पर टिके रहने की जिद के चलते ही आखिर उनकी हत्या भी हुई.
गांधी की अहिंसा की मांग का उत्तर हिंसा से ही दिया गया. गांधी की हत्या से ही साबित होता है कि उन्हें सुना जा रहा था. जो वे कह रहे थे, उसका असर था इसलिए उसे रोका जाना भी जरूरी था.
तब एक बेबसी का अनुभव होता है. आखिर बात कैसे करें कि सब सुन सकें और वह जो कहा जा रहा है, वही सुनें? सुनने का अर्थ क्या है? बोलने में उम्मीद है कि जो कहा जा रहा है, उसे सुना जाएगा, ऐसा होता नहीं. गले के साथ कानों का पर्याप्त प्रशिक्षण हुआ नहीं. सुनना भी बोलने की तरह ही आपकी नैतिक मान्यताओं से जुड़ा है.
बोलना एक नैतिक निर्णय है. राजनीतिक भी, रणनीतिक भी. सच बोलें और प्रिय बोलें, अप्रिय सत्य न बोलें के साथ यह भी कहा जाता है कि स्थान, काल, पात्र देखकर ही बोलें. बोलने के नतीजे हैं. उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन बोलने में किसी नैतिक अवसरवाद का सहारा भी नहीं लिया जा सकता.
किस वक्त बोलने का क्या असर होगा? क्या आपके बोलने से ताकतवर का पक्ष प्रबल होगा या जो अभी शक्तिहीन है उसे शक्ति मिलेगी या वह और कमजोर कर दिया जाएगा? रघुवीर सहाय की यह कविता नहीं बोलने के निर्णय के बारे में है:
मैं अभी सारा देश घूम कर आया हूं
पर उसका वर्णन दरबार में करूंगा नहीं
राजा ने जनता को बरसों से देखा नहीं
यह राजा जनता की कमजोरियां न जान सके इसलिए मैं
जनता के क्लेश का वर्णन करूंगा नहीं इस दरबार में
न बोलने का यह फैसला गहरे नैतिक दायित्व के कारण है. जनता की कमजोरियों का वर्णन कर राजा को उसके खिलाफ और मजबूत कर देने की गलती नहीं की जा सकती. भाषा मेरे पास तो है लेकिन जो मारा गया उसके पास न थी. फिर मेरी भाषा क्या उसे ठीक-ठीक व्यक्त कर सकती है?
मेरा सब क्रोध सब कारुण्य सब क्रंदन
भाषा में शब्द दे नहीं सकता
क्योंकि जो मनुष्य सचमुच मरा
उसके भाषा न थी
सवाल सिर्फ सटीक अभिव्यक्ति का नहीं बल्कि इस बात का है कि भाषा में साझेदारी नहीं है. मेरे पास भाषा का होना किसी के पास भाषा के न होने के कारण है. भाषा के न होने का मतलब भाषा का प्रयोग करने की शक्ति का न होना है. भाषा बिना साझेदारी के अर्थपूर्ण और नैतिक भाषा नहीं.
‘दो अर्थ का भय’ शीर्षक इस कविता का अगला अंश जैसे आज के लिए और लिखा गया है,
मुझे मालूम था मगर इस तरह नहीं कि जो
खतरे मैंने देखे थे वे जब सच होंगे
तो किस तरह उनकी चेतावनी देने की भाषा
बेकार हो चुकी होगी
एक नई भाषा दरकार होगी
क्या हम आज यह आरोप नहीं झेलते कि हमारे पास वह भाषा नहीं जो लोगों को अपील करे? केदारनाथ सिंह ने कहा था कि शब्द साहस की कमी की वजह से मर जाते हैं. रघुवीर सहाय ने इस कविता में आगे लिखा,
जिन्होंने मुझसे ज्यादा झेला है
वे कह सकते हैं कि भाषा की जरूरत नहीं होती
साहस की होती है…
भाषा साहस से ही गूंधी या गढ़ी जाती है. वह साहस क्या है? सच्चाई को पहचानकर उसे उस वक्त बताने का, जब उसे बताया जाना एकदम जरूरी हो. बर्तोल्त ब्रेख्त कहते हैं कि अपने वक्त में जो सबसे ‘सिग्निफ़िकेंट’ है, उसकी पहचान आपके बोले हुए को अर्थपूर्ण बनाती है या महत्व प्रदान करती है.
लेकिन बोलना सिर्फ सूचना देने के लिए नहीं है. वह घोषणा ही नहीं है, अपने विचार की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है. वह सिर्फ नारा भी नहीं है.आपके नारे से दूसरों के लिए सिर्फ शोर भी हो सकते हैं. इच्छा भाषा की रिश्ता बनाने की है. वही संभवतः उसका सबसे पवित्र कर्म है.
रिश्ता बनाने का अर्थ है जोड़ना: भिन्न व्यक्तियों, समुदायों, विचारों के बीच पुल बनाना. ईएम फोर्स्टर के उपन्यास ‘हॉवर्ड्स एंड’ के आरंभ कथन ‘सिर्फ जोड़ो…’ को एक तरह से भाषा का या बोलने का पहला और अंतिम काम माना जा सकता है.
‘सिर्फ’ क्रिया विशेषण के चलते जोर जोड़ने के काम पर है. जोड़ना ही है, जोड़ने के अलावा बाकी काम गौण हैं. लेकिन किसको, किससे? कैसे? मकसद क्या है जोड़ने का? सिर्फ जोड़ो के बाद की खाली जगह को एक जगह उपन्यास में भरा जाता है.
सिर्फ जोड़ो… फोर्स्टर लिखते हैं कि गद्य को आवेग से जोड़ो और देखो कि दोनों ही एक उदात्त स्तर पर पहुंच जाएंगे और तब इंसानी मोहब्बत भी अपनी ऊंचाई हासिल कर सकेगी. बहुत से लोग गद्य को निरावेग रखना चाहते हैं. फोर्स्टर उनसे सहमत नहीं.
उपन्यास की नायिका मार्ग्रेट श्लेगेल को एक व्यक्ति के भीतर के विरोधी भावों को जोड़ने और दो भिन्न लोगों को आपस में जोड़ने में दिलचस्पी है. जोड़ना या बदलना? रिश्ता बनाने में क्या दूसरे से बराबरी की सतह पर भेंटने की इच्छा है या उसे अपने अनुकूल करने की?
उपन्यास की नायिका इंसान तौर पर एक दूसरे से रिश्ता कायम करना चाहती है, वर्ग और अन्य पृष्ठभूमियों से अलग. पूछा जाएगा कि क्या यह संभव है! उन पृष्ठभूमियों को नजरंदाज करने का मतलब उनको मिटा देना तो नहीं है?
एक फिलस्तीनी से एक इसराइली अगर मिले और कहे कि वह उससे मनुष्य की तरह मिलना चाहता है तो क्या वह उसकी फिलस्तीनी पहचान को दरकिनार कर रहा है?
इस मुलाकात में इन पहचानों का भाव शामिल हो, तो उस अन्याय का बोध भी रहेगा जो फिलस्तीनी के साथ होता रहा है और दूसरे पक्ष को इसराइल से जुड़े होने के कारण अपनी जिम्मेदारी का एहसास भी रहेगा.
विरोधी भाव होते हैं और सभी दूसरों को अपने जैसा नहीं मानते, लेकिन दूसरों के प्रति रवैया वही ठीक है जो महमूद दरवेश इस कविता में सुझाते हैं,
वह शांत है, और मैं भी
वह नींबू वाली चाय पी रहा है,
और मैं कॉफी पी रहा हूं,
यही फर्क है हम दोनों के बीच.
उसने पहन रखी है, जैसे मैंने, धारीदार बैगी शर्ट
और मैं पढ़ रहा हूं, जैसे कि वह, शाम का अखबार.
वह मुझे नजर चुराकर देखते नहीं देखता
मैं उसे नजर चुराकर देखते नहीं देखता,
वह शांत है, और मैं भी.
वह वेटर से कुछ मांगता है,
मैं वेटर से कुछ मांगता हूं…
एक काली बिल्ली हमारे बीच से गुजरती है,
मैं उसके रोयें सहलाता हूं
और वह उसके रोयें सहलाता है….
मैं उसे नहीं कहता : आज आसमान साफ था
और अधिक नीला
वह मुझसे नहीं कहता : आसमान आज साफ था.
वह दृश्य है और द्रष्टा
मैं दृश्य हूं और द्रष्टा
मैं अपना बायां पैर हिलाता हूं
वह अपना दायां पैर हिलाता है
मैं एक गीत की धुन गुनगुनाता हूं
वह उसी धुन का कोई गीत गुनगुनाता है.
मैं सोचता हूं: क्या वह आईना है जिसमें मैं खुद को देखता हूं?
तब मैं उसकी आंखों की ओर देखता हूं,
लेकिन मैं उसे नहीं देखता…
मैं कैफे से निकल आता हूं तेजी से .
मैं सोचता हूं, हो न हो वह एक हत्यारा है, या शायद
वह एक राहगीर है जो सोचता हो कि मैं हत्यारा हूं
वह डरा हुआ है, और मैं भी!
बोलने के पहले इस साझा डर को पहचानना जरूरी है.अगर वह मुझे हत्यारा दिखता है तो मैं भी तो उसे हत्यारा ही दिखता हूं. वह जो मेरी ही छाया-सा है, उसकी ओर हाथ बढ़ाने के लिए हिम्मत चाहिए और मोहब्बत भी.
भाषा का नारा तब हो सकता है, हिम्मत और मोहब्बत. फासले बल्कि फासलों को कम से कम करना, सरहदों को समझना क्योंकि उनके बिना किसी की शक्ल-सूरत नहीं बनती.
लोग सीमाओं को अप्रासंगिक बना देने का नारा देते हैं लेकिन उससे कहीं मुश्किल है सरहदों की इज्जत करना और यह समझना कि आर-पार आया जाया जा सकता है. सरहद मिटा देने का मतलब शक्ल बिगाड़ देना भी तो हो सकता है.
यह रुख लंबे संघर्ष के बाद ही, जिसमें खुद से लड़ना शामिल है, हासिल किया जा सकता है. जिससे मैं लड़ रहा हूं, उसकी इंसानियत को पुकार भी रहा हूं.अक्सर वह सुनी नहीं जाती.
लेकिन भाषा का उपयोग किसी पर हमला करने, उसकी खिल्ली उड़ाने, व्यंग्य कसने, उसे नीचा दिखलाने, उसका तिरस्कार करने का न हो तो वह फोर्स्टर के उद्देश्य को साध सकती है, वह है इंसानी मोहब्बत को नई ऊंचाई देना. वह आरोप और प्रत्यारोप का अंतहीन सिलसिला नहीं.
गांधी ने इसके बारे में लिखा है कि मैं अपने लिखे पर बहुत मेहनत करता हूं. मैं चुस्त फिकरों को छांट देता हूं, व्यंग्य और आरोप को भी. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे नाइंसाफी को नजरअंदाज करते हैं.
नाइंसाफी की साफ पहचान और उसकी निशानदेही मोहब्बत की दावत के रास्ते में बाधा नहीं है. तो तलाश गांधी की एक अहिंसक भाषा की थी. वह मित्रों के संसार के विस्तार की कामना थी. इसका उत्तर बुलेट से दिया गया. फिर?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)