बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध क्यों हो रहा है?

कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर अमरनाथ बता रहे हैं कि हिंदी की बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल क्यों नहीं किया जाना चाहिए.

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कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर और हिंदी बचाओ मंच के संयोजक डॉक्टर अमरनाथ बता रहे हैं कि भोजपुरी और राजस्थानी जैसी हिंदी की बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल क्यों नहीं किया जाना चाहिए.

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विगत 14 जुलाई 2017 को ‘हिंदी बचाओ मंच’ की ओर से एक प्रतिनिधि मंडल माननीय गृह मंत्री, भारत सरकार राजनाथ सिंह से उनके आवास पर मिला.

प्रतिनिधि मंडल में मेरे अलावा, प्रख्यात पत्रकार राहुल देव, पद्मश्री डॉ. श्याम सिंह शशि, प्रख्यात साहित्यकार चित्रा मुद्गल, मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय, ‘प्रवासी संसार’ के संपादक राकेश पाण्डेय और दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ. दर्शन पाण्डेय मौजूद थे.

हमने गृह मंत्री जी से कहा कि हमारी हिंदी आज टूटने के कगार पर है. भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग तेज हो गई है.

कुछ सांसदों ने संसद में बार-बार यह मांग की दुहराई है. भोजपुरी के कलाकार और दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष सांसद मनोज तिवारी ने पिछले महीने दिल्ली में एनबीटी से एक खास बातचीत में बताया कि हिंदी की दो बोलियों- भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का फैसला ले लिया गया है.

ऐसी दशा में हमारी चिंता है कि यदि समय रहते हमने इस बिल के पीछे छिपी साम्राज्यवाद की साजिश और चंद स्वार्थी लोगों के कुचक्र का पर्दाफाश नहीं किया तो हमें डर है कि निकट भविष्य में यह बिल संसद में आ सकता है और यदि पास हो गया तो हमारी हिंदी टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाएगी और तब अंग्रेज़ी का एकछत्र वर्चस्व कायम हो जाएगा.

यह इस देश की अखंडता के खिलाफ तो होगा ही, व्यापक आम जनता के हित के भी प्रतिकूल होगा.

हमने इसी संदर्भ में माननीय गृह मंत्री जी से भेंट की, उन्हें वस्तुस्थिति बताने की कोशिश की और एक ज्ञापन भी दिया. मैं उस ज्ञापन को यहां यथावत प्रस्तुत कर रहा हूं-

सेवा में,

श्री राजनाथ सिंह जी

माननीय गृह मंत्री, भारत सरकार.

विषय : भोजपुरी, राजस्थानी अथवा हिंदी की किसी भी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल न किया जाए.

महोदय,

हमारी हिंदी टूटने के कगार पर है. निजी स्वार्थ के लिए कुछ लोग भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. भोजपुरी के कलाकार और सांसद तथा दिल्ली के भाजपा के अध्यक्ष श्री मनोज तिवारी ने भी इस तरह का बयान दिया है कि हिंदी की दो बोलियों (भोजपुरी और राजस्थानी) को शीघ्र ही संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाएगा.

इस मांग के पक्ष में जो तर्क दिए जा रहे हैं वे सभी तर्क तथ्यात्मक दृष्टि से अपुष्ट, मिथ्या और भ्रामक हैं. उदाहरणार्थ भोजपुरी भाषियों की संख्या 20 करोड़ बताई गई है. यह कथन मिथ्या है.

हिंदी समाज की प्रकृति द्विभाषिकता की है. हम लोग एक साथ अपनी जनपदीय भाषा भोजपुरी, अवधी, ब्रजी आदि भी बोलते हैं और हिंदी भी. लिखने-पढ़ने का सारा काम हम लोग हिंदी में करते है?

ऐसी दशा में हमें सिर्फ भोजपुरी भाषी या अवधी भाषी कहना न्यायसंगत नहीं है. इसीलिए राजभाषा नियम 1976 के अनुसार हमें ‘क’ श्रेणी में रखा गया है और दस राज्यों में बंटने के बावजूद हमें ‘हिंदी भाषी’ कहा गया है.

वैसे 2001 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार भोजपुरी बोलने वालों की कुल संख्या लगभग 3,30,99497 ही है.

इतना ही नहीं, भोजपुरी हिंदी का अभिन्न अंग है, वैसे ही जैसे राजस्थानी, अवधी, ब्रज आदि और हम सभी विश्वविद्यालयों के हिंदी- पाठ्यक्रमों में इन सबको पढ़ते-पढ़ाते हैं. हिंदी इन सभी के समुच्चय का ही नाम है.

हम कबीर, तुलसी, सूर, चंदबरदाई, मीरा आदि को भोजपुरी, अवधी, ब्रजी, राजस्थानी आदि में ही पढ़ सकते हैं. हिंदी साहित्य के इतिहास में ये सभी शामिल हैं. इनकी समृद्धि और विकास के लिए और भी प्रयास किए जाने चाहिए.

क्या भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करने वाले मेडिकल, इंजीनियरिंग, कानून आदि की पढ़ाई भोजपुरी में करा पाएंगे? तमाम प्रयासों के बावजूद आज तक हम इन विषयों की पढ़ाई हिंदी में करा पाने में सफल नहीं हो सके.

ऐसी मांग करने वाले लोग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं, खुद हिंदी की रोटी खाते हैं और मातृभाषा के नाम पर भोजपुरी को पढ़ाई का माध्यम बनाने की मांग कर रहे हैं, ताकि उनके आसपास की जनता गंवार ही बनी रहे और उनकी पुरोहिती चलती रहे.

इस तरह की मांग करने वालों का कहना है कि भोजपुरी के आठवीं अनुसूची में शामिल होने से हिंदी को कोई क्षति नहीं होगी. हिंदी को होने वाली क्षति का बिन्दुवार विवरण हम यहां दे रहे हैं.

संविधान की आठवीं अनुसूची में भोजपुरी के शामिल होने से हिंदी को होने वाली क्षति –

भोजपुरी के आठवीं अनुसूची में शामिल होने से हिंदी भाषियों की जनसंख्या में से भोजपुरी भाषियों की जनसंख्या घट जाएगी. मैथिली की संख्या हिंदी में से घट चुकी है.

स्मरणीय है कि सिर्फ संख्या-बल के कारण ही हिंदी इस देश की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है. यदि यह संख्या घटी तो राजभाषा का दर्जा हिंदी से छिनते देर नहीं लगेगी.

भोजपुरी के अलग होते ही ब्रजी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, बुंदेली, मगही, अंगिका आदि सब अलग होंगी. उनका दावा भोजपुरी से कम मजबूत नहीं है. ‘रामचरितमानस’, ‘पद्मावत’, या ‘सूरसागर’ जैसे एक भी ग्रंथ भोजपुरी में नहीं हैं.

ज्ञान के सबसे बड़े स्रोत विकीपीडिया ने बोलने वालों की संख्या के आधार पर दुनिया के सौ भाषाओं की जो सूची जारी की है उसमें हिंदी को चौथे स्थान पर रखा है. इसके पहले हिंदी का स्थान दूसरा रहता था.

हिंदी को चौथे स्थान पर रखने का कारण यह है कि सौ भाषाओं की इस सूची में भोजपुरी, अवधी, मारवाड़ी, छत्तीसगढ़ी, ढूंढाढी, हरियाणवी और मगही को शामिल किया गया है.

साम्राज्यवादियों द्वारा हिंदी की एकता को खंडित करने के षड्यंत्र का यह ताजा उदाहरण है और इसमें विदेशियों के साथ कुछ स्वार्थांध देशी जन भी शामिल हैं.

हमारी मुख्य लड़ाई अंग्रेज़ी के वर्चस्व से है. अंग्रेज़ी हमारे देश की सभी भाषाओं को धीरे-धीरे लीलती जा रही है. उससे लड़ने के लिए हमारी एकजुटता बहुत जरूरी है.

उसके सामने हिंदी ही तनकर खड़ी हो सकती है क्योंकि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से वह आज भी देश की सबसे बड़ी भाषा है और यह संख्या-बल बोलियों के जुड़े रहने के नाते है. ऐसी दशा में यदि हम बिखर गए और आपस में ही लड़ने लगे तो अंग्रेज़ी की गुलामी से हम कैसे लड़ सकेंगे?

भोजपुरी की समृद्धि से हिंदी को और हिंदी की समृद्धि से भोजपुरी को तभी फायदा होगा जब दोनो साथ रहेंगी. आठवीं अनुसूची में शामिल होना अपना अलग घर बांट लेना है. भोजपुरी तब हिंदी से स्वतंत्र वैसी ही भाषा बन जाएगी जैसी बांग्ला, ओड़िया, तमिल, तेलुगू आदि.

आठवीं अनुसूची में शामिल होने के बाद भोजपुरी के कबीर को हिंदी के कोर्स में हम कैसे शामिल कर पाएंगे? क्योंकि तब कबीर हिंदी के नहीं, सिर्फ भोजपुरी के कवि होंगे. क्या कोई कवि चाहेगा कि उसके पाठकों की दुनिया सिमटती जाए?

भोजपुरी घर में बोली जाने वाली एक बोली है. उसके पास न तो अपनी कोई लिपि है और न मानक व्याकरण. उसके पास मानक गद्य तक नहीं है. किस भोजपुरी के लिए मांग हो रही है? गोरखपुर की, बनारस की या छपरा की ?

कमज़ोर की सर्वत्र उपेक्षा होती है. घर बंटने से लोग कमज़ोर होते हैं, दुश्मन भी बन जाते हैं. भोजपुरी के अलग होने से भोजपुरी भी कमज़ोर होगी और हिंदी भी.

इतना ही नहीं, पड़ोसी बोलियों से भी रिश्तों में कटुता आएगी और हिंदी का इससे बहुत अहित होगा. मैथिली का अपने पड़ोसी अंगिका से विरोध सर्वविदित है.

संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को स्थान दिलाने की मांग आज भी लंबित है. यदि हिंदी की संख्या ही नहीं रहेगी तो उस मांग का क्या होगा?

स्वतंत्रता के बाद हिंदी की व्याप्ति हिंदीतर भाषी प्रदेशों में भी हुई है. हिंदी की संख्या और गुणवत्ता का आधार केवल हिंदी भाषी राज्य ही नहीं, अपितु हिंदीतर भाषी राज्य भी हैं.

अगर इन बोलियों को अलग कर दिया गया और हिंदी का संख्या-बल घटा तो वहां की राज्य सरकारों को इस विषय पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है कि वहां हिंदी के पाठ्यक्रम जारी रखे जाएं या नहीं.

इतना ही नहीं, राजभाषा विभाग सहित केंद्रीय हिंदी संस्थान, केंद्रीय हिंदी निदेशालय अथवा विश्व हिंदी सम्मेलन जैसी संस्थाओं के औचित्य पर भी सवाल उठ सकता है.

भोजपुरी और राजस्थानी के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होते ही इन्हें स्वतंत्र विषय के रूप में यूपीएससी के पाठ्यक्रम में शामिल करना पड़ेगा. इससे यूपीएससी पर अतिरिक्त बोझ तो पड़ेगा ही, देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित इस सेवा का स्तर भी गिरेगा.

परीक्षा के लिए भोजपुरी, राजस्थानी आदि को विषय के रूप में चुनने वालों के पास सीमित पाठ्यक्रम होगा और उनकी उत्तर पुस्तिकाएं जांचने वाले भी गिने चुने स्थानीय परीक्षक होंगे.

अनुभव यही बताता है कि भाषा को मान्यता मिलने के बाद ही अलग राज्य की मांग होने लगती है. मैथिली को सन् 2003 में आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया और उसके बाद से ही मिथिलांचल की मांग की जा रही है.

महोदय, भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग भयंकर आत्मघाती है. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और स्व. चंद्रशेखर जैसे महान राजनेता तथा महापंडित राहुल सांकृत्यायन और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे महान साहित्यकार ठेठ भोजपुरी क्षेत्र के ही थे किन्तु उन्होंने भोजपुरी को मान्यता देने की मांग का कभी समर्थन नहीं किया. आज थोड़े से लोग, अपने निहित स्वार्थ के लिए बीस करोड़ के प्रतिनिधित्व का दावा करके देश को धोखा दे रहे है.

 महोदय, अधोहस्ताक्षरित हम सभी तथा देश की व्यापक प्रबुद्ध जनता

हिंदी की किसी भी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के विरुद्ध है और इस विषय में वह यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में है.

हम इसके समर्थन में निम्नलिखित सामग्री आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं-

‘हिंदी बचाओ मंच’ से संबंधित तथा समाचार पत्रों में प्रकाशित सामग्री का उपलब्ध अंश (50 पृष्ठ)
2940 (दो हचार नौ सौ चालीस) प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा हस्ताक्षरित प्रपत्र की पहली किस्त.

गृह मंत्री जी से हमारी भेंट की खबर अखबारों में आई और हमने फेसबुक पर भी पोस्ट कर दिया. इसके बाद सिर्फ मेरे फेसबुक एकाउंट पर तीन दिन के भीतर लगभग आठ सौ प्रतिक्रियाएं दर्ज हुईं- कुछ विरोध में और ज्यादातर पक्ष में.

मेरे लिए उन सब प्रतिक्रियाओं का उल्लेख करना संभव नहीं है किन्तु मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि विरोध वे लोग कर रहे हैं जिनका कुछ न कुछ निजी स्वार्थ है, जिन्हें लगता है कि भोजपुरी या राजस्थानी के आठवीं अनुसूची में शामिल होने से उन्हें कोई न कोई पुरस्कार मिलेगा या छोटी-मोटी दूसरी सुविधाएं.

इस बीच राजस्थानी और भोजपुरी से एमए की डिग्री हासिल करने वाले नौजवानों की एक बड़ी संख्या तैयार हो चुकी है जो नौकरियों की आस लगाए बैठी है, भले ही वह मृगमरीचिका ही साबित हो.

असल में जातीय चेतना जहां सजग और मजबूत नहीं होती वहां वह अपने समाज को विपथित भी करती हैं. समय-समय पर उसके भीतर विखंडनवादी शक्तियां सिर उठाती रहती हैं. विखंडन व्यापक साम्राज्यवादी षड्यंत्र का ही एक हिस्सा है. दुर्भाग्य से हिंदी जाति की जातीय चेतना मजबूत नहीं है और इसीलिए वह लगातार टूट रही है.

अस्मिताओं की राजनीति आज के युग का एक प्रमुख साम्राज्यवादी एजेंडा है. साम्राज्यवाद यही सिखाता है कि थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली. जब संविधान बना तो मात्र 13 भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल थीं. फिर 14, 18  और अब 22 हो चुकी हैं.

अकारण नहीं है कि जहां एक ओर दुनिया ग्लोबल हो रही है तो दूसरी ओर हमारी भाषाएं यानी अस्मिताएं टूट रही हैं और इसे अस्मिताओं के उभार के रूप में देखा जा रहा है.

हमारी दृष्टि में ही दोष है. इस दुनिया को कुछ दिन पहले जिस प्रायोजित विचारधारा के लोगों द्वारा गलोबल विलेज कहा गया था उसी विचारधारा के लोगों द्वारा हमारी भाषाओं और जातीयताओं को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट करके कमज़ोर किया जा रहा है.

भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग समय-समय पर संसद में होती रही है. मामला सिर्फ भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने का नहीं है.

मध्य प्रदेश से अलग होने के बाद छत्तीसगढ़ ने 28 नवंबर 2007 को अपने राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी घोषित किया और विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की. यही स्थिति राजस्थानी की भी है.

हकीकत यह है कि जिस राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग जोरों से की जा रही है उस नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं.

राजस्थान की 74 में से सिर्फ 9 ( ब्रजी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी) बोलियों को राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की मांग की जा रही है. बाकी बोलियों पर चुप्पी क्यों?

इसी तरह छत्तीसगढ़ में 94  बोलियां हैं जिनमें सरगुजिया और हालवी जैसी समृद्ध बोलियां भी हैं. छत्तीसगढ़ी को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ने वालों को इन छोटी-छोटी उप-बोलियां बोलने वालों के अधिकारों की चिंता क्यों नहीं है?

पिछली सरकार के केंद्रीय गृहराज्य मंत्री नवीन जिंदल ने लोकसभा में एक चर्चा को दौरान कुमांयूनी-गढ़वाली को संवैधानिक दर्जा देने का आश्वासन दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि यदि हरियाणा सरकार हरियाणवी के लिए कोई संस्तुति भेजती है तो उस पर भी विचार किया जाएगा.

मैथिली तो पहले ही शामिल हो चुकी है. फिर अवधी और ब्रजी ने कौन सा अपराध किया है कि उन्हें आठवीं अनुसूची में जगह न दी जाए जबकि उनके पास ‘रामचरितमानस’ और ‘पद्मावत’ जैसे ग्रंथ है?

हिंदी साहित्य के इतिहास का पूरा मध्य काल तो ब्रज भाषा में ही लिखा गया. इसी के भीतर वह कालखंड भी है जिसे हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग (भक्ति काल) कहते हैं.

भागलपुर विश्वविद्यालय में अंगिका में भी एमए की पढ़ाई होती है. मैने वहां के एक शिक्षक से पूछा कि अंगिका में एमए की पढ़ाई करने वालों का भविष्य क्या है? उन्होंने बताया कि उन्हें सिर्फ डिग्री से मतलब होता है विषय से नहीं.

एमए की डिग्री मिल जाने से एलटी ग्रेड के शिक्षक को पीजी (प्रवक्ता) का वेतनमान मिलने लगता है. वैसे नियमित कक्षाएं कम ही चलती हैं. जिन्हें डिग्री की लालसा होती है वे ही प्रवेश लेते हैं और अमूमन सिर्फ परीक्षा देने आते हैं.

जिस शिक्षक से मैंने प्रश्न किया उनका भी एक उपन्यास कोर्स में लगा है जिसे इसी उद्देश्य से उन्होंने अंगिका में लिखा है मगर हैं वे हिंदी के प्रोफेसर. वे रोटी तो हिंदी की खाते हैं किन्तु अंगिका को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसके पीछे उनका यही स्वार्थ है.

अंगिका के लोग अपने पड़ोसी मैथिली वालों पर आरोप लगाते हैं कि उन लोगों ने जिस साहित्य को अपना बताकर पेश किया है और संवैधानिक दर्जा हासिल किया है उसका बहुत सा हिस्सा वस्तुत: अंगिका का है.

इस तरह पड़ोस की मैथिली ने उनके साथ धोखा किया है. यानी, बोलियों के आपसी अंतर्विरोध. अस्मिताओं की वकालत करने वालों के पास इसका क्या जवाब है?

संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हिंदुस्तान की कौन सी भाषा है जिसमें बोलियां नहीं हैं? गुजराती में सौराष्ट्री, गामड़िया, खाकी, आदि, असमिया में क्षखा, मयांग आदि, ओड़िया में संभलपुरी, मुघलबंक्षी आदि, बंगला में बारिक, भटियारी, चिरमार, मलपहाड़िया, सामरिया, सराकी, सिरिपुरिया आदि, मराठी में गवड़ी, कसारगोड़, कोस्ती, नागपुरी, कुड़ाली आदि.

इनमें तो कहीं भी अलग होने का आंदोलन सुनाई नहीं दे रहा है. बांग्ला तक में नहीं, जहां अलग देश है. मैं बांग्ला में लिखना-पढ़ना जानता हूं किन्तु ढाका की बंगला समझने में बड़ी असुविधा होती है.

फिर भी बंगलादेश और पश्चिम बंगाल दोनों की बांग्ला एक ही है. रवीन्द्रनाथ और नजरुल इस्लाम जैसे वहां पढ़े-पढ़ाए जाते हैं वैसे ही हमारे देश में भी.

अस्मिताओं की राजनीति करने वाले कौन लोग हैं ? कुछ गिने-चुने नेता, कुछ अभिनेता और कुछ स्वनामधन्य बोलियों के साहित्यकार. नेता जिन्हें स्थानीय जनता से वोट चाहिए.

उन्हें पता होता है कि किस तरह अपनी भाषा और संस्कृति की भावनाओं में बहाकर गांव की सीधी-सादी जनता का मूल्यवान वोट हासिल किया जा सकता है.

इसी तरह भोजपुरी का अभिनेता रवि किशन यदि भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए संसद के सामने धरना देने की धमकी देता है तो उसका निहितार्थ समझ में आता है क्योकि, एक बार मान्यता मिल जाने के बाद उन जैसे कलाकारों और उनकी फिल्मों को सरकारी खजाने से भरपूर धन मिलने लगेगा.

शत्रुघ्न सिन्हा ने लोकसभा में यह मांग उठाते हुए दलील दी थी कि इससे भोजपुरी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता और वैधानिक दर्जा दिलाने में काफी मदद मिलेगी.

विगत 3 मार्च 2017 को बिहार की कैबिनेट ने सर्वसम्मति से इस आशय का प्रस्ताव पारित करके भारत के गृह मंत्री को भेजा है कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए.

उस पत्र में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि इससे राजभाषा हिंदी पर क्या प्रभाव पड़ेगा. आश्चर्य तो यह देखकर हुआ कि बिहार के मुख्य सचिव द्वारा हस्ताक्षरित उस पत्र में आल्हा सहित तुलसी और नागार्जुन जैसे कवियों को भोजपुरी के खाते में डाल दिया गया है.

बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने में वे साहित्यकार सबसे आगे हैं जिन्हें हिंदी जैसी समृद्ध भाषा में पुरस्कृत और सम्मानित होने की उम्मीद टूट चुकी है. हमारे कुछ मित्र तो इन्हीं के बल पर हर साल दुनिया की सैर करते हैं और करोड़ों का वारा-न्यारा करते हैं.

स्मरणीय है कि नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी मैथिली कृति पर मिला था किसी हिंदी कृति पर नहीं. बुनियादी सवाल यह है कि आम जनता को इससे क्या लाभ होगा?

मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हुए 14 साल हो गए. कितनी नौकरियां सृजित हुईं? मैथिली माध्यम वाले कितने प्राथमिक विद्यालय खुले और उनमें कितने बच्चों का पंजीकरण हुआ? हां, कुछ लोग पुरस्कृत जरूर हो गए.

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गृहमंत्री से मुलाकात करने वाले हिंदी के साहित्यकार. (फोटो क्रेडिट: अमरनाथ/फेसबुक)

एक ओर तो उत्तरांचल जैसे हिंदी भाषी राज्यों में सभी सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अंग्रेज़ी माध्यम लागू करना और इस तरह देश के ऊपर के उच्च-मध्य वर्ग को अंग्रेज बनाने की योजना और दूसरी ओर गरीब-गंवार जनता को उसी तरह कूप मंडूक बनाए रखने की साजिश. इस साजिश में कॉरपोरेट दुनिया की क्या और कितनी भूमिका है–यह शोध का विषय है. मुझे उम्मीद है कि निष्कर्ष चौंकाने वाले होंगे.

वस्तुत: साम्राज्यवाद की साजिश हिंदी की शक्ति को खण्ड-खण्ड करने की है क्योंकि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिंदी, दुनिया की सबसे बड़ी दूसरे नंबर की भाषा है. इस देश में अंग्रेज़ी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिंदी ही है.

इसलिए हिंदी को कमज़ोर करके इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता को, इस देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है. अस्मिताओं की राजनीति के पीछे साम्राज्यवाद की यही साजिश है.

जो लोग बोलियों की वकालत करते हुए अस्मिताओं के उभार को जायज ठहरा रहे हैं वे अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, खुद व्यवस्था से सांठ-गांठ करके उसकी मलाई खा रहे हैं और अपने आसपास की जनता को जाहिल और गंवार बनाए रखना चाहते हैं ताकि भविष्य में भी उन पर अपना वर्चस्व कायम रहे.

जिस देश में खुद राजभाषा हिंदी अब तक ज्ञान की भाषा न बन सकी हो वहां भोजपुरी, राजस्थानी, और छत्तीसगढ़ी के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देकर वे उन्हें क्या बनाना चाहते हैं?

जिस भोजपुरी, राजस्थानी या छत्तीसगढ़ी का कोई मानक रूप तक तय नहीं है, जिसके पास गद्य तक विकसित नहीं हो सका है उस भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराकर उसमें मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई की उम्मीद करने के पीछे की धूर्त मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है.

अगर बोलियों और उसके साहित्य को बचाने की सचमुच चिन्ता है तो उसके साहित्य को पाठ्यक्रमों में शामिल कीजिए, उनमें फिल्में बनाइए, उनका मानकीकरण कीजिए.

उन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करके हिंदी से अलग कर देना और उसके समानान्तर खड़ा कर देना तो उसे और हिंदी, दोनों को कमज़ोर बनाना है और उन्हें आपस में लड़ाना है.

मैं बंगाल में रहता हूं. बंगाल की दुर्गा पूजा मशहूर है. मैं जब भी हिंदी के बारे में सोचता हूं तो मुझे दुर्गा का मिथक याद आता है. दुर्गा बनी कैसे? महिषासुर से त्रस्त सभी देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए थे.

‘अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्. एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा.’ अर्थात् सभी देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी. एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त हो गया. तब जाकर महिषासुर का वध हो सका.

हिंदी भी ठीक दुर्गा की तरह है. जैसे सारे देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए और दुर्गा बनी वैसे ही सारी बोलियों के समुच्चय का नाम हिंदी है. यदि सभी देवता अपने-अपने तेज वापस ले लें तो दुर्गा खत्म हो जाएगी, वैसे ही यदि सारी बोलियां अलग हो जाएं तो हिंदी के पास बचेगा क्या?

हिंदी का अपना क्षेत्र कितना है? वह दिल्ली और मेरठ के आसपास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है. हम हिंदी साहित्य के इतिहास में चंदबरदायी और मीरा को पढ़ते हैं जो राजस्थानी के हैं, सूर को पढ़ते हैं जो ब्रजी के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और विद्यापति को पढ़ते हैं जो मैथिली के हैं. इन सबको हटा देने पर हिंदी साहित्य में बचेगा क्या?

अपने पड़ोसी नेपाल में सन 2001 में जनगणना हुई थी. उसकी रिपोर्ट के अनुसार वहां अवधी बोलने वाले 2.47 प्रतिशत, थारू बोलने वाले 5.83 प्रतिशत, भोजपुरी बोलने वाले 7.53 प्रतिशत और सबसे अधिक मैथिली बोलने वाले 12.30 प्रतिशत हैं.

वहां हिंदी बोलने वालों की संख्या सिर्फ 1 लाख 5 हजार है. यानी, बाकी लोग हिंदी जानते ही नहीं. मैंने कई बार नेपाल की यात्रा की है. काठमांडू में भी सिर्फ हिंदी जानने से काम चल जाएगा. नेपाल में एक करोड़ से अधिक सिर्फ मधेसी मूल के हैं.

भारत से बाहर दक्षिण एशिया में सबसे अधिक हिंदी फिल्में यदि कहीं देखी जाती हैं तो वह नेपाल है. ऐसी दशा में वहां हिंदी भाषियों की संख्या को एक लाख पांच हजार बताने से बढ़कर बेईमानी और क्या हो सकती है? हिंदी को टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर जनगणना करायी गई और फिर अपने अनुकूल निष्कर्ष निकाल लिया गया.

ठीक यही साजिश भारत में भी चल रही है. हिंदी की सबसे बड़ी ताकत उसकी संख्या है. इस देश की आधी से अधिक आबादी हिंदी बोलती है और यह संख्या बल बोलियों के नाते है. बोलियों की संख्या मिलकर ही हिंदी की संख्या बनती है.

यदि बोलियां आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो आने वाली जनगणना में मैथिली की तरह भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि को अपनी मातृभाषा बताने वाले हिंदी भाषी नहीं गिने जाएंगे और तब हिंदी तो मातृ-भाषा बताने वाले गिनती के रह जाएंगे.

हिंदी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी और तब अंग्रेज़ी को भारत की राजभाषा बनाने के पक्षधर उठ खड़े होंगे और उनके पास उसके लिए अकाट्य वस्तुगत तर्क होंगे. ( अब तो हमारे देश के अनेक काले अंग्रेज बेशर्मी के साथ अंग्रेज़ी को भारतीय भाषा कहने भी लगे हैं.)

उल्लेखनीय है कि सिर्फ संख्या-बल की ताकत पर ही हिंदी, भारत की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है.

मित्रो, हिंदी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो वह हिंदी ही है. हिंदी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द का रिश्ता है.

हिंदी इस क्षेत्र की जातीय भाषा है जिसमे हम अपने सारे औपचारिक और शासन संबंधी कामकाज करते हैं. यदि हिंदी की तमाम बोलियां अपने अधिकारों का दावा करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो हिंदी की राष्ट्रीय छवि टूट जाएगी और राष्ट्रभाषा के रूप में उसकी हैसियत भी संदिग्ध हो जाएगी.

इतना ही नहीं, इसका परिणाम यह भी होगा कि मैथिली, ब्रजी, राजस्थानी आदि के साहित्य को विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए हमें विवश होना पड़ेगा.

विद्यापति को अब तक हम हिंदी के पाठ्यक्रम में पढ़ाते आ रहे थे. अब हम उन्हें पाठ्यक्रम से हटाने के लिए बाध्य हैं. अब वे सिर्फ मैथिली के कोर्स में पढ़ाए जाएंगे. क्या कोई साहित्यकार चाहेगा कि उसके पाठकों की दुनिया सिमटती जाए?

हिंदी (हिंदुस्तानी) जाति इस देश की सबसे बड़ी जाति है. वह दस राज्यों में फैली हुई है. इस देश के अधिकांश प्रधानमंत्री हिंदी जाति ने दिए हैं. भारत की राजनीति को हिंदी जाति दिशा देती रही है.

इसकी शक्ति को छिन्न-भिन्न करना है. इनकी बोलियों को संवैधानिक दर्जा दो. इन्हें एक-दूसरे के आमने-सामने करो. इससे एक ही तीर से कई निशाने लगेंगे.

हिंदी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी. हिंदी भाषी आपस में बंटकर लड़ते रहेंगे और ज्ञान की भाषा से दूर रहकर कूपमंडूक बने रहेंगे. बोलियां हिंदी से अलग होकर अलग-थलग पड़ जाएंगी और स्वत: कमज़ोर पड़कर खत्म हो जाएंगी.

मित्रो, चीनी का सबसे छोटा दाना-पानी में सबसे पहले घुलता है. हमारे ही किसी अनुभवी पूर्वज ने कहा है, ‘अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च. अजा पुत्रं बलिं दद्यात दैवो दुर्बल घातक:.’

अर्थात् घोड़े की बलि नहीं दी जाती, हाथी की भी बलि नही दी जाती और बाघ के बलि की तो कल्पना भी नही की जा सकती. बकरे की ही बलि दी जाती है. दैव भी दुर्बल का ही घातक होता है.

अब तय हमें ही करना है कि हम बाघ की तरह बनकर रहना चाहते हैं या बकरे की तरह.

हम सबसे पहले अपने माननीय सांसदों एवं अन्य जनप्रतिनिधियों से प्रार्थना करते हैं कि वे अत्यंत गंभीर और दूरगामी प्रभाव डालने वाली इस आत्मघाती मांग पर पुनर्विचार करें और भावना में न बहकर अपनी राजभाषा हिंदी को टूटने से बचाएं.

हम हिंदी समाज के अपने बुद्धिजीवियों से साम्राज्यवाद और ब्यूरोक्रेसी की मिलीभगत से रची जा रही इस साजिश से सतर्क होने और एकजुट होकर इसका पुरजोर विरोध करने की अपील करते हैं.