सुदर्शन टीवी के विवादित कार्यक्रम को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई में अदालत के मीडिया नियमन के प्रस्ताव पर केंद्र ने एक हलफनामे में कहा है कि अगर वे इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के लिए दिशानिर्देश देना ज़रूरी समझते हैं, तो समय की दरकार है कि ऐसा पहले डिजिटल मीडिया के लिए किया जाना चाहिए.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि जहां वह सुदर्शन टीवी मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अपने आदेश के संभावित प्रभावों को लेकर चिंतित है, वहीं अभिव्यक्तिच की स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा को संतुलित करने के बारे में भी “समान रूप से चिंतित” है.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, ऑप इंडिया, इंडिक कलेक्टिव ट्रस्ट और अपवर्ड फाउंडेशन की ओर से मामले में हस्तक्षेप की मांग लेकर पहुंचे वकील जे. साइ दीपक ने अदालत द्वारा पास किए जाने वाले किसी आदेश से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पड़ने वाले प्रभाव की ओर ध्यान दिलाया.
इस पर तीन जजों की पीठ की अध्यक्षता करने वाले जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, ‘आप बिल्कुल सही कह रहे हैं. इसी तरह, हम भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा को लेकर चिंतित हैं.’
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘यदि आप एक पहचान योग्य समूह को लक्षित कर रहे हैं, तो उनके पास नागरिक कानून उपाय हैं. लेकिन जब लोगों के एक विस्तृत समूह को निशाना बनाया जाएगा तो वह कहां जाएगा? …हेट स्पीच रूढ़िवादी धारणा है और आसानी से पहचाने जाने योग्य आबादी को लक्षित करता है.’
इस पीठ ने बीते 15 सितंबर को सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम ‘बिंदास बोल’ के विवादित ‘यूपीएससी जिहाद’ वाले एपिसोड के प्रसारण पर रोक लगा दी थी. न्यायालय ने कहा कि पहली नजर में ही ये मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने वाले प्रतीत होते हैं.
चैनल के संपादक सुरेश चव्हाणके ने अदालत ने रोक को हटाने की अपील की है. अदालत ने कहा था कि शो में कुछ छवियां नुकसान पहुंचाने वाली और अपमानजनक थीं और यह जानने की कोशिश की थी कि चिंताओं को हल करने के लिए वह क्या बदलाव लाएगा.
इसका जवाब देते हुए चव्हाणके ने एक अतिरिक्त हलफनामा दायर करते हुए कहा कि वह शेष कड़ियों को प्रसारित करते समय सभी कानूनों का सख्ती से पालन करेंगे और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रोग्रामिंग कोड और निर्देशों का पालन और पालन करेंगे.
उन्होंने कहा कि एनडीटीवी ने भी हिंदू आतंक पर कार्यक्रम प्रसारित किए थे और पवित्र हिंदू प्रतीकों को दिखाया था.
इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘2008 में जो कुछ हुआ उसके बारे में शिकायत करने का कोई मतलब नहीं है.’
उन्होंने चव्हाणके के लिए पेश होने वाले वकील विष्णु शंकर जैन से पूछा, ‘क्या उनका विचार था कि चैनल ने पहले चार एपिसोड के टेलीकास्ट में कानून और कार्यक्रम कोड का अनुपालन किया था और क्या वह शेष एपिसोड को “उसी शैली में प्रसारित करना चाहते हैं.’
जैन ने जवाब दिया, ‘जी हां, हमने कार्यक्रम संहिता का पालन किया है और कार्यक्रम की शेष कड़ियां भी इसी तरह की होंगे. कृपया चार कड़ियों को मेरे मुवक्किल की नजरों से देखिए.’
दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले जामिया के तीन छात्रों की ओर से पेश होते हुए वकील शादान फरासत ने कहा कि केंद्र द्वारा जिम्मेदारी का संकेत था.
उन्होंने कहा कि मौलिक प्रश्न यह है कि शो की प्रकृति, विषय और दिशा यह है कि सिविल सेवाओं में मुसलमानों की भागीदारी देश पर कब्जे का एक प्रयास है, वे एक खतरा हैं और देश के बाकी लोगों द्वारा उन्हें रोका जाना चाहिए.
फरासत ने सिविल सेवा प्रतियोगियों को प्रशिक्षित करने वाले जकात फाउंडेशन के ऊपर लगे आरोपों का भी उल्लेख किया.
लेकिन जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने इसलिए दखल दिया क्योंकि यह एक समुदाय के खिलाफ है. न कि यह मानते हुए कि यह जकात फाउंडेशन के खिलाफ है.’
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘हम कार्यक्रमों के उन हिस्सों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जहां यह समुदाय के खिलाफ घृणास्पद भाषण दिया गया है.’
उन्होंने कहा कि मुसलमानों को ओबीसी आरक्षण दिए जाने और साथ ही ज़कात फाउंडेशन की फंडिंग के मामले में चैनल सवाल उठाने का हकदार है.
गौरतलब है कि ‘बिंदास बोल’ सुदर्शन न्यूज चैनल के प्रधान संपादक सुरेश चव्हाणके का शो है. अगस्त के आखिरी सप्ताह में जारी हुए इसके एक एपिसोड के ट्रेलर में चव्हाणके ने हैशटैग यूपीएससी जिहाद लिखकर नौकरशाही में मुसलमानों की घुसपैठ के षडयंत्र का बड़ा खुलासा करने का दावा किया था.
इस शो का प्रसारण 28 अगस्त को रात आठ बजे होना था, लेकिन जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट ने उसी दिन इस पर रोक लगा दी थी.
इसके बाद 9 सितंबर को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चैनल को कार्यक्रम के प्रसारण की अनुमति दे दी थी, जिसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने उसे नोटिस भेजा था, लेकिन प्रसारण रोकने से इनकार कर दिया था.
इसके बाद इस कार्यक्रम के प्रसारण के बारे में शीर्ष अदालत में याचिका दायर की गई थी.
डिजिटल मीडिया पूरी तरह अनियंत्रित: सरकार
इस मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र ने कोर्ट से कहा है कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने काम के तरीके की वजह से ‘बहुत ही कम सीमा लांघते’ हैं लेकिन डिजिटल मीडिया ‘पूरी तरह अनियंत्रित’ है.
सरकार ने कहा कि अगर शीर्ष अदालत मुख्यधारा के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के लिए दिशानिर्देश देना जरूरी समझती है तो ‘समय की दरकार है’ कि यह कवायद पहले वेब आधारित डिजिटल मीडिया से शुरू की जानी चाहिए.
सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अपने नये हलफनामे में कहा है कि शीर्ष अदालत को व्यापक मुद्दे केंद्र सरकार और सक्षम विधायिका के निर्णय के लिए छोड़ देने चाहिए या फिर डिजिटल मीडिया से यह कवायद शुरू करनी चाहिए.
मंत्रालय ने यह हलफनामा सुदर्शन टीवी के कार्यकम के खिलाफ दायर याचिका में दाखिल किया गया है. केंद्र ने पिछले सप्ताह इस मामले में एक संक्षिप्त हलफनामा दाखिल किया था.
इसमें कहा गया था कि अगर शीर्ष अदालत मीडिया को नियंत्रित करने के लिए निर्देश जारी करने का फैसला करता है तो पहले यह कवायद डिजिटल मीडिया के साथ करनी चाहिए क्योंकि इसकी पहुंच ज्यादा तेज है और वॉट्सऐप, ट्विटर और फेसबुक की वजह से इससे खबरों तेजी से वायरल होती हैं.
नये हलफनामे में कहा गया है कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की संरचना को देखते हुए इनके द्वारा अपनी सीमा लांघने की घटनाएं बहुत ही कम होती हैं जिसमें इस न्यायालय के हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती हो. इसकी तुलना में वेब आधारित डिजिटल मीडिया मोटे तौर पर अनियंत्रित है.
हलफनामे में कहा गया है कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सीमा की तुलना में एक छोटे फोन के अलावा डिजिटल मीडिया के लिए और किसी चीज की जरूरत नहीं होती है.
हलफनामे के अनुसार वेब आधारित डिजिटल मीडिया पर किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है. डिजिटल मीडिया नफरत फैलाने के साथ ही जानबूझकर हिंसा ही नहीं बल्कि आतंकवाद के लिए उकसाकर किसी व्यक्ति या संस्थान की छवि खराब करने में सक्षम है. वास्तव में यह सिलसिला बहुत ज्यादा है.
हलफनामे में कहा गया है कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया पर अदालत द्वारा दिशानिर्देशों के माध्यम से या शिकायत समाधान व्यवस्था के माध्यम से कोई भी नया नियंत्रण इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को प्रसारण की बजाये उसी जानकारी को डिजिटल मीडिया के माध्यम से प्रसारित या प्रकाशित करने के लिए प्रेरित करेगा.
हलफनामे में इस बात को दोहराया गया कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के लिए पहले से ही कानून और न्यायिक व्यवस्थाएं हैं.
हलफनामे में कहा गया है कि न्यायालय इस मामले में दिशानिर्देशों के दायरे को अधिक व्यापक नहीं करना चाहिए और इसे सक्षम विधायिका के विवेक पर छोड़ देना चाहिए.
हलफनामे के अनुसार, भारत में करीब 385 नियमित समाचार चैनल हैं जिनके पास केंद्र सरकार की अपलिंकिंग डाउनलिंकिंग नीति दिशा निर्देशों के तहत लाइसेंस हैं या पंजीकृत हैं.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)