बाबरी मस्जिद विध्वंस फ़ैसला और हिंदी अख़बारों के संपादकीय

बाबरी विध्वंस मामले को लेकर सीबीआई कोर्ट के फ़ैसले की आलोचना पर जहां अंग्रेज़ी अख़बारों के संपादकीय मुखर रहे, वहीं हिंदी अख़बारों के संपादकीय ‘बीती ताहि बिसार दे’ वाला रवैया अपनाते दिखे.

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(साभार: संबंधित ई-पेपर)

बाबरी विध्वंस मामले को लेकर सीबीआई कोर्ट के फ़ैसले की आलोचना पर जहां अंग्रेज़ी अख़बारों के संपादकीय मुखर रहे, वहीं हिंदी अख़बारों के संपादकीय ‘बीती ताहि बिसार दे’ वाला रवैया अपनाते दिखे.

(साभार: संबंधित ई-पेपर)
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नई दिल्ली: 30 सितंबर 2020 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के करीब 28 साल बाद सीबीआई की विशेष अदालत ने भाजपा और आरएसएस के नेताओं समेत 32 आरोपियों को बरी कर दिया.

अदालत का कहना था कि यह आकस्मिक घटना थी और अभियुक्त कारसेवकों को विवादित स्थल तोड़ने से रोक रहे थे.

दो दशकों से भी अधिक तक देश की राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे इस मुद्दे को लेकर जहां 1 अक्टूबर 2020 को अंग्रेजी के अख़बारों ने अपने संपादकीय में इस निर्णय की मुखर होकर आलोचना की है, वहीं हिंदी के अख़बारों ने या तो इस विषय को संपादकीय में जगह नहीं दी या ‘जो हुआ, सो हुआ’ वाला रवैया अपनाते हुए दिखे.

नवभारत टाइम्स, जनसत्ता और पत्रिका उन अख़बारों में रहे, जिन्होंने फैसला आने के बाद बीते एक अक्टूबर को इस विषय पर संपादकीय नहीं लिखा. इनके अलावा हिंदी के कुछ मुख्य अख़बारों के संपादकीयों पर एक नज़र.

दैनिक जागरण: जैसी जांच वैसा नतीजा

दैनिक जागरण अख़बार का मानना है कि बाबरी विध्वंस मामले में सभी बड़े नेताओं का बरी होना सीबीआई की विफलता है और यह दिखाता है कि

28 साल पुरानी इस घटना के लिए भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को जिम्मेदार ठहराने का काम संकीर्ण राजनीतिक कारणों से किया गया.

बहुत संभव है कि इसी कारण सीबीआई अपनी लंबी जांच-पड़ताल के बाद भी उन लोगों तक न पहुंच सकी हो, जिनकी ढांचे के ध्वंस में कोई भूमिका रही हो. सच जो भी हो, आम धारणा यही है कि विवादित ढांचे का ध्वंस कारसेवकों के आवेश का परिणाम था.

कई सदियों पुरानी बाबरी मस्जिद को ‘ढांचा’ बताते हुए अख़बार ने उसे ‘व्यापक हिंदू समाज के लिए उसकी आस्था के साथ हुए खिलवाड़ और अन्याय का प्रतीक’ बताया है.

हिंदी पट्टी के बहुसंख्यकों के लिए देश का बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा से हर समस्या की जड़ रहा है और उनके विचार आलोचना का केंद्र. जागरण के संपादकीय में भी ठीक यही भावना दिखाई देती है. उसके अनुसार,

यह एक विडंबना ही थी कि तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व और साथ ही सेक्युलरिज्म की दुहाई देने वाला बौद्धिक वर्ग अयोध्या के विवादित ढांचे को राम के जन्म स्थान के रूप में मान्यता देने के लिए तैयार नहीं था.

यह वर्ग राम के वहां पैदा होने के प्रमाण ही नहीं मांग रहा था, बल्कि ऐसे सवालों से मुंह भी मोड़ रहा था कि आखिर आक्रमणकारी बाबर या फिर उसके सेनापति मीर बकी का अयोध्या से क्या लेना-देना था?

जागरण की मानें तो ‘सदियों पुराने इस विवाद को बातचीत के जरिये सुलझाने के प्रयास इसलिए भी नाकाम हो रहे थे, क्योंकि एक पक्ष को इसके लिए उकसाया जा रहा था कि वह समझौते के लिए तैयार न हो.’

उनके अनुसार, यह ऐसे माहौल का ही नतीजा था जिसने ‘कारसेवकों को क्षोभ से भर दिया और एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी.’

सीबीआई की विशेष अदालत के फैसले की ही तरह अख़बार कहता है कि ‘ऐसा नहीं होना चाहिए था.’

हालांकि यह अख़बार अदालतों और न्याय में विश्वास बनाए रखने की उम्मीद में यह भी कहता है कि इस फैसले का यह अर्थ नहीं है कि ‘भारत में न्याय नहीं होता.’

उसके अनुसार,

ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचने के पहले इस पर गौर करना चाहिए कि उग्र भीड़ की ओर से अंजाम दी जाने वाली घटनाओं में जिम्मेदार लोगों की पहचान कर उन्हें दंडित करना हमेशा कठिन रहा है- तब तो और भी, जब मामले की जांच राजनीति प्रेरित रही हो.

हिंदुस्तान: अदालती निर्णय के बाद

हिंदी दैनिक हिंदुस्तान ने इस फैसले को ‘बहुत महत्वपूर्ण और विचारणीय’ बताते हुए कहा कि ‘हमारी व्यवस्था पर इसका दूरगामी असर पड़ सकता है.

इस फैसले को ‘सीबीआई के खाते में जुड़ी एक और नाकामी’ बताते हुए अख़बार में अदालत द्वारा सबूतों को प्रामाणिक न मानने के लिए एजेंसी की मलामत करते हुए कहा कि ‘साक्ष्यों से छेड़छाड़ किए जाने के आरोप पर अलग से विचार किया जाना चाहिए.’

हालांकि अख़बार का यह मानना है कि अदालत के इस विध्वंस के ज़िम्मेदार लोगों को ‘महज भीड़ या अराजक तत्व बताकर आगे बढ़ जाने के अपने नफा-नुकसान हैं’, जिसका प्रभाव आने वाले समय में देखने को मिल सकता है.

देश के राजनीतिक परिदृश्य पर पड़े इस पूरे मामले के प्रभावों के मद्देनजर अख़बार इसे भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए बड़ा फैसला बताते हुए कहता है कि फैसले को आगे चुनौती मिल सकती है लेकिन समय है कि

भारतीय समाज को अपनी संपूर्णता में आस्था और अपराध की लक्ष्मण रेखाओं को सुनिश्चित कर लेना चाहिए. हमें एक सजग लोकतांत्रिक समाज के रूप में सावधानी बरतनी चाहिए, ताकि भविष्य में व्यवस्थाओं का संचालन कोई अराजक भीड़ न कर सके.

सीबीआई अदालत के इस फैसले के बाद आम लोगों की चर्चाओं में इसे लेकर बहुत उत्साह देखने को नहीं मिला, इस पूरे घटनाक्रम के गवाह रहे आम लोगों ने भी ‘बीती ताहि बिसार दे’ वाले भाव में ही प्रतिक्रिया दी.

हिंदुस्तान का संपादकीय भी बीती बातों को भुला देने के दबाव में है और इस पूरे मामले को लेकर अपनी बात खत्म करते हुए कहता है,

इतिहास में हुईं गलतियों के बोझ को ज्यादा समय तक नहीं ढोया जा सकता. इस ऐतिहासिक फैसले से सकारात्मक सबक लेकर आगे बढ़ने में ही भारतीय समाज की बेहतरी है.

अमर उजाला: आखिरकार बरी

अमर उजाला के अनुसार, सीबीआई अदालत का यह फैसला ‘व्यापक अर्थ में भारतीय राजनीति का चेहरा बदलने वाले राम मंदिर आंदोलन की राजनीति का पटाक्षेप है.’

विशेष कोर्ट द्वारा केंद्रीय जांच एजेंसी के काम और साक्ष्यों की प्रमाणिकता पर उठाए गए सवालों पर इस अख़बार का कहना है, ‘चूंकि अदालत सबूतों और गवाहों के आधार पर फैसला देती है, लिहाज़ा इस निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए.’

अख़बार यह भी कहता है कि ऐसे महत्वपूर्ण मामले में ‘धीमी गति से चली जांच और राजनीतिक हस्तक्षेप’ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

बीते साल बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद को लेकर दिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए अख़बार में कहा गया है कि उस निर्णय में भी ‘बाबरी विध्वंस को गैर-क़ानूनी और कानून के राज का घोर उल्लंघन’ बताया था, जिसे देखते हुए ‘यह विडंबना है कि सीबीआई दोषियों की शिनाख्त और उनके खिलाफ ठोस सबूत पेश करने में विफल रही.’

अख़बार के मुताबिक, इसके बावजूद यह समय ‘इस फैसले का सम्मान करते हुए विगत को भुलाकर आगे बढ़ने का है.’

दैनिक भास्कर: आडवाणी की दोष मुक्ति और न्याय प्रक्रिया

इस अख़बार के संपादकीय में पहला निशाना विशेष अदालत का सीबीआई द्वारा पेश सबूतों को फर्जी मानना है.

इसके अनुसार, ‘किसी सभ्य प्रजातंत्र में शायद देश की सबसे बड़ी एजेंसी पर कोर्ट की यह टिप्पणी उस संस्था को हमेशा के लिए बंद करने व जांच अधिकारी के खिलाफ कदम उठाने के लिए काफी होती.’

अख़बार के मुताबिक, ‘एक ही जांच एजेंसी तत्कालीन राजनीतिक आकाओं के अनुरूप रवैया बदलती रही.’

इसके आगे अख़बार अपराध शास्त्र के सिद्धांतों की कसौटी पर इस फैसले को कसने की कोशिश करता है. लिखा गया है,

सन 1118 से हेनरी-1 के काल में अपराध राष्ट्र के सबसे प्रमुख सिद्धांत मेंस रिया (अपराधी का मानस) के साथ ही क्वी इंसाइंटर (अनजाने में हुआ अपराध भी सजा का भागी होगा) का अभ्युदय हुआ और फिर वह दार्शनिक काण्ट से होते हुए जेरेमी बेन्थैम के सजा के पीछे उपयोगितावाद के सिद्धांत तक बदलता गया.

लेकिन मेंस रिया के आधार पर आडवाणी की भूमिका देखें या उपयोगितावाद के तहत (जिसमें सजा देने का आधार समाज को बेहतर बनाना होता है) 93 वर्षीय राजनेता पर दोष नहीं बनता.

अदालत द्वारा आडवाणी की बेगुनाही साबित करते हुए कही गईं बातों की ध्वनि अख़बार के संपादकीय में सुनाई देती है. इसके अनुसार आडवाणी यह कल्पना नहीं कर पाए थे कि ‘उनके राम रथ, भाषण और हिंदू समाज को किसी मुद्दे पर उद्वेलित करने का मतलब ढांचा गिराना होगा.’

अख़बार आगे कहता है,

जहां तक हिंदुओं को जगाने का सवाल था, वह शुद्ध रूप से 500 साल पहले से चले आ रहे सामरिक, राजनीतिक शक्ति असंतुलन और तज्जनित ‘अन्याय’ के खिलाफ जनमत तैयार करना था.

इसे कहीं से गलत नहीं कहा जा सकता और चूंकि अगर किसी बड़े सामाजिक उद्देश्य के प्रयास में अनजाने में कोई छोटा अपराध हो जाता है तो अपराध, न्याय शास्त्र के आधुनिक सिद्धांत के तहत, जिसमें अपराध करने की निश्चित मानसिकता से आपराधिक जिम्मेदारी तय होती है, आडवाणी दोषी नहीं थे.

अपनी बात खत्म करते हुए अख़बार ने केंद्रीय जांच एजेंसी की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए उसके द्वारा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के आय से अधिक संपत्ति के मामले में आठ बार ‘स्टैंड बदलने’ की मिसाल दी है.