गोरखपुर में इंसेफलाइटिस मरीज़ों के पुनर्वास के लिए बना विभाग बंद होने के कगार पर

इंसेफलाइटिस से विकलांग मरीजों के इलाज व पुनर्वास लिए बने विभाग के 11 कर्मियों को 27 महीने से ​नहीं मिला वेतन, तीन चिकित्सकों और स्टेनोग्राफर ने नौकरी छोड़ी.

इंसेफलाइटिस से विकलांग मरीज़ों के इलाज व पुनर्वास लिए बने विभाग के 11 कर्मियों को 27 महीने से नहीं मिला वेतन, तीन चिकित्सकों और स्टेनोग्राफर ने नौकरी छोड़ी.

gorakh pur brd
फोटो: मनोज सिंह

इंसेफलाइटिस से शारीरिक व मानसिक रूप से विकलांग हुए मरीजों के इलाज व पुनर्वास के लिए बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में बना प्रिवेंटिव मेडिसिन एवं रिहैब्लिटेशन (पीएमआर) विभाग कभी भी बंद हो सकता है क्योंकि यहां पर कार्यरत 11 चिकित्सा कर्मियों को 27 महीने से वेतन नहीं मिला है. वेतन न मिलने के कारण तीन चिकित्सक और स्टेनोग्राफार नौकरी छोड़कर जा चुके हैं.

बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इंसेफलाइटिस से जुड़े 378 चिकित्साकर्मियों को चार महीने से वेतन व एक वर्ष की वेतन वृद्धि न मिलने की खबर ‘द वायर’ ने 20 जुलाई को प्रकाशित की थी.

इसके बाद पीएमआर विभाग के चिकित्सा कर्मियों को 27 माह से वेतन न मिलने की खबर हैरान करने वाली है. यह हालत तब है जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद नौ जुलाई को मेडिकल कॉलेज का दौरा किया था और इंसेफलाइटिस से बचाव व इलाज के सम्बन्ध में तैयारियों व कमियों का खुद ब्योरा लिया था.

केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने बीआरडी मेडिकल कॉलेज में पीएमआर विभाग की स्थापना के लिए फरवरी, 2010 में फंड दिया था. वर्ष 2011 में यह विभाग शुरू कर दिया गया. इंसेफलाइटिस से बड़ी संख्या में विकलांगता को देखते हुए इस विभाग को स्थापित करने का निर्णय लिया गया था.

जापानी इंसेफलाइटिस व एक्यूट इंसेफलाइटिस सिन्ड्रोम (जेई/एईएस) में 30 फीसदी से अधिक विकलांगता पाई जाती है. यानी इस बीमारी से जिनकी जान बच जाती है, उसमें से 30 फीसदी से अधिक शारीरिक व मानसिक रूप से विकलांग हो जाते हैं. कई बच्चों में बहुविकलांगता पाई जाती है. इंसेफलाइटिस के अलावा अन्य बीमारियों से भी इस इलाके में बड़ी संख्या में विकलांगता होती है.

इस विभाग की स्थापना से इंसेफलाइटिस से विकलांग हुए मरीजों के इलाज व पुनर्वास में बड़ी मदद मिलनी थी लेकिन जल्द ही केन्द्र और प्रदेश सरकार ने इस विभाग से अपना पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया.

gorakhpur
फोटो: मनोज सिंह

विभाग के लिए चार चिकित्सकों सहित 37 पद सृजित किए गए, लेकिन यहां पर सिर्फ 17 पदों पर ही नियुक्ति हुई. इसमें एक प्रोफेसर, एक एसोसिएट प्रोफेसर, एक हाउस सर्जन, चार थेरेपिस्ट (फिजियो थेरेपिस्ट, आक्यूपेशनल थेरेपिस्ट, क्लीनिक साइकोलाजिस्ट व स्पीच थेरेपिस्ट), एक स्टेनोग्राफर, चार आर्थोरिस्ट एंड प्रोथेसिस्ट व पांच चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की नियुक्ति हुई.

यह नियुक्ति भी संविदा पर की गईं. स्टाफ नर्स, टेक्नीशियन, मेडिकल सोशल वर्कर आदि पदों पर नियुक्ति को मंजूरी नहीं दी गई, जबकि पूरे पदों की स्वीकृति मिलती तो एक वर्ष का वेतन का खर्च 1.48 करोड़ ही आता.

पदों पर कटौती के बाद वेतन देने में केन्द्र व प्रदेश सरकार को दिक्कत होने लगी. केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग कहने लगा कि उसका काम केवल विभाग की स्थापना व उपकरण मुहैया कराने का था. अब प्रदेश सरकार विभाग को चलाए और चिकित्सा कर्मियों को वेतन दे. प्रदेश सरकार ने इस विभाग के खर्च को अपने बजट में आज तक शामिल ही नहीं किया.

यही कारण है कि नियुक्ति के बाद करीब दो वर्ष तक चिकित्सा कर्मियों को वेतन ही नहीं मिला. इससे चिकित्सा कर्मियों विशेषकर चिकित्सकों का विभाग से मोहभंग होने लगा और वर्ष 2013 में एक-एक कर तीनों चिकित्सक नौकरी छोड़ चले गए. इसके बाद स्टेनो ग्राफर ने नौकरी छोड़ दी.

किसी तरह दो वर्ष का वेतन मार्च 2013 में एक साथ मिला. फिर दो वर्ष का वेतन मार्च 2015 में मिला. इस वक्त विभाग में 11 चिकित्सा कर्मी (चार थेरेपिस्ट, दो आर्थेरिस्ट एवं प्राथेरिस्ट व पांच चतुर्थ श्रेणी ) कार्य कर रहे हैं. इसके बाद 27 महीने हो गए, इन्हें वेतन नहीं मिला है.

इनके वेतन में वार्षिक वृद्धि भी नहीं की गई है जबकि मेरठ और लखनऊ मेडिकल कॉलेज में कार्य कर रहे पीएमआर विभाग के चिकित्सा कर्मियों को प्रत्येक वर्ष वेतन वृद्धि मिल रही है.

यह विभाग कितना अहम है, यहां इलाज के लिए आने वाले रोगियों की संख्या को देखते हुए लगाया जा सकता है. वर्ष 2012 में 1484, 2013 में 1775, 2014 में 2294 और 2015 में यहां 5750 रोगी इलाज के लिए आए.

इस वर्ष सात महीनों में 3550 मरीज इलाज के लिए आ चुके हैं. यदि विभाग में सभी पद स्वीकृत किए जाते और भरे जाते और चिकित्सा कर्मियों को नियमित वेतन मिलता तो रोगियों को बहुत अधिक फायदा होता और उन्हें इलाज या आॅपरेशन के लिए गोरखपुर के बाहर नहीं जाना पड़ता.