प्रेमचंद लिखते हैं, ‘राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी.’
‘जर्मनी में नाज़ी दल की अद्भुत विजय के बाद यह प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में जर्मनी फ़ासिस्ट हो जाएगा और वहां नाजी-शासन कम से कम पांच वर्ष तक सुदृढ़ रहेगा? यदि एक बार नाज़ी शासन को जमकर काम करने का मौका मिला तो वह जर्मनी के प्रजातंत्रीय जीवन को, उसकी प्रजातंत्रीय कामना को अपनी सेना और शक्ति के बल पर इस तरह चूस लेगा कि 25 वर्ष तक जर्मनी में नाज़ी दल का कोई विरोधी नहीं रह जाएगा.’
प्रेमचंद ने 1933 में जर्मनी में हुए चुनावों में नाज़ी दल की विजय के बाद ‘जर्मनी का भविष्य’ शीर्षक के संक्षिप्त टिप्पणी में यह आशंका व्यक्त की थी.
इस अंश में ध्यान देने लायक अंश वह है जिसमें वे जर्मनी की ‘प्रजातंत्रीय कामना’ को चूस लिए जाने को लेकर चिंतित हैं. प्रजातंत्रीय कामना लुप्त हो सकती है और वह एक ख़ास तरह की राजनीतिक शक्ति के प्रबल होने की स्थिति में ख़तरे में पड़ जाती है, यह वे कह रहे हैं.
लेकिन यह जो जीत हुई है, वह यूं ही नहीं: ‘जर्मनी में नाज़ी दल की नाजायज़ सेना का तीव्र दमन और सभी विरोधी शक्तियों को चुनाव के पूर्व ही कुचल डालना ही नाज़ी विजय का कारण है. यह कहां का न्याय था कि वर्गवादियों को जेल भेजकर, विरोधियों को पिटवाकर, मुसोलिनी की तरह विरोधी पत्रों को बंद कराकर चुनाव कराया जाए और उसकी विजय को राष्ट्र मत की विजय बताया जावे.’
प्रेमचंद की इस टिप्पणी को ज़रूरी नहीं आज के दौर पर घटाकर देखा जाए. लेकिन इस टिप्पणी में नाज़ी दल की विजय के पहले विपक्ष के जोर-जबर्दस्ती सफाए पर प्रेमचंद का ध्यान जाता है.
वे जर्मनी के विपक्षी दलों की लानत मलामत नहीं करते कि वे क्यों अपनी रक्षा नहीं कर रहे, यह साफ़ तौर पर कहते हैं कि जुर्म हिटलर का है जो गैरजनतांत्रिक तरीके से विपक्ष का ख़ात्मा कर रहा है.
विपक्ष का ख़त्म होना चिंता का विषय होना चाहिए और उसके लिए उसे ही ज़िम्मेदार मानने की जगह जो उसे ख़त्म कर रहा है, उस पर सवाल उठाना चाहिए, इसे लेकर प्रेमचंद को संदेह नहीं है. नाजी दल की एक निजी सेना है जो दूसरे जर्मन दलों के पास नहीं.
प्रेमचंद की तीखी निगाह उनके अपने वक्त की दुनिया में जो कुछ भी घटित हो रहा था, उसके आरपार देखती है. उनका अपना पक्ष स्पष्ट है. जर्मनी में जो रहा है उसके लिए वे यूरोपीय सभ्यता को ज़िम्मेदार मानते हैं.
जर्मनी में नाजी दल के एकाधिपत्य के पीछे यहूदियों का दमन भी है. इस दमन के लिए पहले से आधार मौजूद है: ‘यूरोपीय संस्कृति की तारीफें सुनते-सुनते हमारे कान पक गए. उनको अपनी सभ्यता पर गर्व है. हम एशियावाले तो मूर्ख हैं, बर्बर हैं, असभ्य हैं, लेकिन जब हम उन सभी देशों की पशुता देखते हैं तो जी में आता है यह उपाधियां सूद के साथ क्यों न उन्हें लौटा दी जाएं.’
प्रेमचंद यूरोप में यहूदी विरोधी घृणा के बारे में चर्चा करते हैं: ‘यहूदी मालदार हैं और आजकल धन ही राष्ट्रों की नीति का संचालन करता है, माना! रूस में कम्युनिज़्म को फैलाने में यहूदियों का हाथ था, यह भी माना. यहूदियों ने ईसाइयों से पुरानी अदावतों का बदला लेने और ईसाई सभ्यता को विध्वंस करने का बीड़ा उठा लिया है. यह भी हम मान लेते हैं, लेकिन इसके क्या मानी कि एक राष्ट्र का सबसे बड़ा अंग यहूदियों को मिटा देने पर ही तुल जाए. जर्मनी में नाजी दल ने आते ही आते यहूदियों पर हमला बोल दिया है. मारपीट, खून-खच्चर भी होना शुरू हो गया है और यहूदियों को जर्मनी से भागने भी नहीं दिया जाता… वह अपने प्राणों की रक्षा नहीं कर सकते. यहूदियों ने वहां सकूनत अख़्तियार कर ली है. कई पीढ़ियों से वहां रहते आए हैं. जर्मनी की जो कुछ उन्नति है उसमें उन्होंने कुछ कम भाग नहीं लिया है, लेकिन अब जर्मनी में उनके लिए स्थान नहीं है.’
प्रेमचंद की इस टिप्पणी को फिर आज के वक़्त की रोशनी में पढ़ने की ज़रूरत नहीं लेकिन वे उस समय भी अपने देश की स्थिति की तुलना, जर्मनी में जो कुछ हो रहा था, उससे करते हैं: ‘इधर कुछ दिनों से हिंदू मुसलमान के एक दल में वैमनस्य हो गया है, उसके लिए वही लोग ज़िम्मेदार हैं, जिन्होंने पश्चिम से प्रकाश पाया है और अपरोक्ष रूप से यहां भी वही पश्चिमीय सभ्यता अपना करिश्मा दिखा रही है.’
इसी पश्चिमी सभ्यता का एक आविष्कार राष्ट्रीयता है. टैगोर की राष्ट्रवाद की आलोचना से प्रायः सब परिचित हैं. भगत सिंह ने राष्ट्रवादी संकीर्णता की जो आलोचना की, वह कम प्रचारित है. उन्हें कट्टर राष्ट्रवादी के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है.
प्रेमचंद ‘राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता’ शीर्षक निबंध में लिखते हैं, ‘राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी. नतीजा दोनों का एक है. सांप्रदायिकता अपने घेरे के अंदर शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे ज़रा भी मानसिक कलेश न होता था. राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है.’
प्रेमचंद राष्ट्रीयता की जगह अंतर्राष्ट्रीयतावाद को तरजीह देते हैं. यह गांधी, नेहरू और भगत सिंह के विचारों से मिलता-जुलता ख्याल है. जिस समय प्रेमचंद लेख रहे हैं, देश के भीतर राष्ट्रीयता का प्रश्न हिंदू-मुस्लिम दायरे में बंटा हुआ है. प्रेमचंद इसमें किसी के साथ रियायत नहीं करते लेकिन देखिए, ख़िलाफ़त के मसले पर भी वे क्या कहते हैं.
वे ख़िलाफ़त के मसले को ‘महात्मा गांधी की व्यापक दृष्टि’ से न देख पाने की हिंदुओं की कमज़ोरी पर अफ़सोस जाहिर करते हैं, ‘सच्चाई यह है कि हिंदुओं ने कभी ख़िलाफ़त का महत्व नहीं समझा और न समझने की कोशिश की, बल्कि उसको संदेह की नज़र से देखते रहे.’
वे और सख़्त अल्फाज़ का इस्तेमाल करते हैं, ‘हिंदू कौम कभी अपनी राजनीतिक उदारता के लिए मशहूर नहीं रही और इस मौके पर तो उसने जितनी संकीर्णता का परिचय दिया है, उससे मजबूरन इस नतीजे पर पहुंचना पड़ता है कि इस कौम का राजनीतिक दीवाला हो गया वरना कोई वजह न थी कि सारी हिंदू कौम सामूहिक रूप से कुछ थोड़े से उन्मादग्रस्त तथाकथित देशभक्तों की प्रेरणा से इस तरह पागल हो जाती.’
प्रेमचंद उस समय हिंदू संगठन निर्माण और शुद्धि आंदोलनों की आलोचना करते हैं और कहते हैं निराशा इस बात से है कि इसके ख़िलाफ़ उदार नेता भी नहीं बोल रहे.
वे पूछते हैं, ‘आज कौन-कौन हिंदू है जो हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए जी-जान से काम कर रहा हो, जो उसे हिन्दुस्तान की सबसे महत्वपूर्ण समस्या समझता हो. कौम का यह दर्द, यह टीस, यह तड़प आज हिंदुओं में कहीं दिखाई नहीं देती. दस-पांच हज़ार मकानों को शुद्ध करके लोग फूले नहीं समाते, मानो अपने लक्ष्य पर पहुंच गए. अब स्वराज्य हासिल हो गया!’
प्रेमचंद के इस लिखे को सिर्फ उन्हीं के वक्त पर टिप्पणी मानें, ‘गोकशी के मामले में हिंदुओं ने शुरू से अब तक एक अन्यायपूर्ण ढंग अख़्तियार किया है. हमको अधिकार है कि जिस जानवर को चाहें पवित्र समझें लेकिन यह उम्मीद रखना कि दूसरे धर्म को मानने वाले भी उसे वैसा ही पवित्र समझें, खामखाह दूसरों से सर टकराना है, गाय सारी दुनिया में खाई जाती है, इसके लिए क्या आप सारी दुनिया को गर्दन मार देने के क़ाबिल समझेंगे? …अगर हिंदुओं को अभी यह जानना बाकी है कि इंसान से कहीं ज़्यादा पवित्र प्राणी है, चाहे वह गोपाल की गाय हो या ईसा का गधा, तो उन्होंने अभी सभ्यता की वर्णमाला भी नहीं समझी.’
प्रेमचंद यह सब कुछ आज से तकरीबन नब्बे साल पहले लिख रहे थे. क्या उस ककहरे पर काम अब शुरू किया जाए?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.)