साल हुआ, संसद ने एक झूठ पर मुहर लगाई. एक साल झूठ का, धोखाधड़ी, क्रूरता और हिंसा का. एक साल सच्चाई का, ईमानदारी, सद्भाव और अहिंसा का.
एक साल!
एक साल झूठ का, धोखाधड़ी का, क्रूरता और हिंसा का. एक साल सच्चाई का, ईमानदारी का, सद्भाव और अहिंसा का. एक साल दमन का. एक साल संघर्ष का. किसका साल कौन-सा है? हम किस साल के वारिस हैं?
तो हम इस साल का ब्योरा दें. फिर इसकी समीक्षा करें. और समीक्षा के बाद आत्मसमीक्षा. हमने इस साल क्या भूमिका निभाई? हम किसके साथ खड़े हुए और किसे अकेला छोड़ दिया?
साल हुआ, संसद ने एक झूठ पर मुहर लगाई. भारत की हिंदू जनता को बताया गया कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में जुल्म झेल रहे अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए नागरिकता के कानून में संशोधन लाया जा रहा है.
इन देशों से आने वाले सबको- हिंदू,सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध, सबको इस रास्ते भारत की नागरिकता दी जाएगी. सिर्फ एक पहचान के लोग इस रास्ते भारत की नागरिकता हासिल नहीं कर सकते.
वह पहचान मुसलमान की है. पूछा गया कि क्यों मुसलमानों को इस सूची से बाहर रखा गया है. जवाब था चूंकि ये देश इस्लामी हैं, इनमें मुसलमान तो उत्पीड़न के शिकार हो नहीं सकते! इस जवाब को ज़्यादातर लोगों ने स्वीकार कर लिया.
उत्पीड़न या धार्मिक पहचान के आधार पर उत्पीड़न? राजनीतिक उत्पीड़न के शिकार लोगों के लिए हमदर्दी क्यों नहीं?
इस कानून के रास्ते तस्लीमा नसरीन को तो नागरिकता नहीं मिल सकती, हालांकि वह मुसलमानों के समाज के भीतर का ही उत्पीड़न है!
पूछा गया कि अगर हम उत्पीड़न झेल रहे लोगों को अपने देश में अपने बराबर हक देना चाहते हैं तो सिर्फ ये ही तीन देश क्यों! अगर हम पड़ोसियों के दुख से दुखी हैं तो श्रीलंका क्यों नहीं, क्यों नहीं भूटान, क्यों म्यांमार नहीं, चीन या नेपाल क्यों हमारी इस हमदर्दी के दायरे से बाहर है?
क्या बौद्धबहुल देश में अल्पसंख्यकों पर जुल्म नहीं होता, क्या हिंदूबहुल देश में हिंसा नहीं होती? क्या हमें मालूम नहीं कि श्रीलंका में तमिल हिंदुओं या ईसाइयों या मुसलमानों के साथ भेदभाव ही नहीं, उनका उत्पीड़न भी होता रहा है?
म्यांमार से तो ज़ुल्म से बचने को भागे रोहिंग्या बांग्लादेश में शरण लेने को बाध्य हैं और भारत में भी कोई 40,000 रोहिंग्या पनाह लिए हुए हैं.
क्या हम नहीं जानते कि चीन में बौद्ध तिब्बती और वीगर मुसलमान अत्याचार के शिकार हैं? हम क्यों अपनी करुणा का लाभ नहीं देना चाहते? अगर धार्मिक आधार ही कारण है तो पाकिस्तान के अहमदिया समुदाय या हजारों शियाओं को क्यों हम परे कर रहे हैं?
ये सवाल जायज़ थे, वाजिब थे, लेकिन सरकार ने इनका कोई जवाब नहीं दिया. बहुसंख्यक हिंदुओं को ये सवाल गैरज़रूरी मालूम पड़े. हर अच्छे काम में रुकावट डालनेवालों के दिमाग का एक और खलल.
कुछ ने कहा कि हमें सबका ठेका नहीं ले रखा है. जो इस क़ानून से बाहर हैं, वे दूसरे देशों का दरवाजा खटखटाएं. कुछ ने पूछा कि जो क़ानून किसी की नागरिकता ले नहीं रहा, अगर सबको न सही, कुछ लोगों को ही इस कानून से मदद हो रही है तो इसका विरोध क्यों?
कानून जानने वालों ने, संविधान के विशेषज्ञों ने इसका जवाब दिया: इस कानून से आपत्ति इसलिए है कि इसके माध्यम से भारत की नागरिकता की परिभाषा में पहली बार धर्म के आधार पर वर्गीकरण किया जा रहा था. यह भारतीय नागरिकता के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को ही बदल देगा.
उन्होंने कहा कि संविधान नागरिकों के तर्कपूर्ण वर्गीकरण की इजाजत देता है, आप नागरिकों का वर्गीकरण कर सकते हैं लेकिन उसका पर्याप्त तर्क होना चाहिए और वह भी ऐसा जो समानता के सिद्धांत के खिलाफ न हो.
वर्गीकरण से समानता के विचार को बढ़ावा मिलना चाहिए, वह खंडित नहीं होना चाहिए. लेकिन इस कानून में जो वर्गीकरण है वह समानता के विचार के खिलाफ है.
इस कानून के पीछे विभाजनकारी दृष्टि है, विभेदकारी विचार जो एक ख़ास पहचान को भारतीय सहानुभूति के दायरे से बाहर रखना चाहता है जो उस पहचान को बाहरी मानता रहा है. इसलिए सरकार ने कानून के पक्ष में अलग-अलग तर्क दिए.
प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत-पाकिस्तान निर्माण के समय जो काम अधूरा रह गया था, उसे इस क़ानून के जरिये पूरा किया जा रहा था. वह अधूरा काम क्या था?
क्या वे यह कह रहे थे कि वह अधूरा काम था हिंदू-मुसलमान आबादियों की अदला-बदली? जो हिंदू पाकिस्तान में बचे रह गए थे क्या उन्हें भारत आने का एक रास्ता खोला जा रहा था?
अगर ऐसा था तो इसे कानून में लिखा क्यों नहीं, इसे अलिखित क्यों छोड़ दिया गया? प्रधानमंत्री के राजनीतिक भाषण में क्यों कानून का वह उद्देश्य बताया जा रहा था जो खुद कानून के मसविदे में नहीं लिखा था?
अगर कानून का मकसद भारत-पाकिस्तान विभाजन के बचे काम को पूरा करना था तो फिर अफगानिस्तान इस तस्वीर में कहां से आ गया?
क्या इसी से इस क़ानून में छिपे झूठ और धोखे का पता नहीं चल जाता? विभाजन का बचा काम क्या है? क्या बांग्लादेश और पाकिस्तान को भारत मात्र मुसलमानों का देश बना ही देना चाहता है?
अगर उसे इन देशों में धार्मिक आधार पर भेदभाव, उत्पीड़न अस्वीकार्य है तो क्या 2014 से ही सही, इन सरकारों से बातचीत में कभी उसने यह मुद्दा उठाया है? क्या कभी कोई सार्वजनिक वक्तव्य उसने दिया है कि इन देशों में अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार हो रहा है?
इस सरकार के नेता अपनी जनता से यह सब कुछ कहते रहे हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय पटल पर कभी अपनी यह समझ उन्होंने नहीं रखी. क्यों?
आप इन सरकारी वार्ताओं का विवरण पढ़ लीजिए, भारत के आधिकारिक बयान पढ़ लीजिए, कभी भी उसने बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से यह सवाल नहीं किया है.
तो नागरिकता के कानून में लाए गए संशोधन का आशय निश्चय ही वह नहीं है जो प्रधानमंत्री और सरकार बता रही है. उसमें जो झूठ और धोखा है, वह गृहमंत्री के उस बयान से उजागर हो जाता है जो उन्होंने संसद में दिया और बाहर कई बार जिसे दोहराया.
उन्होंने दावा किया कि पहले सीएए लागू किया जाएगा फिर एनआरसी की प्रक्रिया पूरी की जाएगी फिर लागू किया जाएगा. उन्होंने बार बार इन दोनों के कालक्रम पर जोर दिया- पहले फिर सीएए फिर एनआरसी.
एनआरसी अब भारतीय भाषाओं का पहचाना हुआ शब्द है. ऐसा रजिस्टर, ऐसी सूची जिसमें आपका नाम दर्ज होने पर आपकी भारतीयता पक्की होगी.
बिना एनआरसी पर बात किए सीएए के मकसद को समझना मुमकिन नहीं. अगर आपकी याददाश्त ईमानदार है तो आप भूल नहीं सकते कि पिछले 7 साल में बार-बार वादा किया गया है कि यह सरकार घुसपैठियों को चुन-चुनकर बाहर फेंक देगी.
यह वादा एक तबके के लिए था, जिसे हिंदू कहा जा सकता है. जो उनके लिए आश्वासन था, वह एक दूसरे तबके के लिए थी चेतावनी या धमकी.
वह दूसरा तबका कौन सा था? क्या यह धमकी सचमुच बांग्लादेशियों के लिए थी? क्या वे सचमुच अवैध तरीके से इतनी बड़ी तादाद में भारत में घुस आए थे कि उसे दीमक की तरह चाटे जा रहे थे, उसे खोखला कर रहे थे?
या बांग्लादेशी भारतीय जनता पार्टी की कूट भाषा का एक शब्द था जिसका आशय उसकी जनता को मालूम है. नेता बोलता है घुसपैठिया, बाहरी, दीमक और जनता सुनती है मुसलमान.
मुसलमान चिरंतन बाहरी हैं. बाबर की औलाद का अर्थ भी मुसलमान है हालांकि बाबर की औलादों को गुजरे ज़माना बीत गया. भाजपा के नेता इस कूट भाषा का इस्तेमाल अपने असली आशय को छिपाने के लिए करते रहे हैं.
इसका ताज़ा उदाहरण बाबरी मस्जिद के ध्वंस में शामिल नेताओं पर चले मुक़दमे के ब्योरे में है. इस मुक़दमे में सबको बरी कर दिया गया था.
क्या भाजपा नेता मुसलमान विरोधी घृणा से प्रेरित थे. बाबर की औलादों को सबक सिखलाने का नारा लगानेवाले ने कहा कि यह नारा मुसलमानों के खिलाफ नहीं है, सिर्फ उनके खिलाफ है जो खुद को बाबर के वंशज मानते हैं.
लेकिन बाबर की औलाद को कब्रिस्तान या पाकिस्तान की ठौर भेजने का नारा लगाने वाले और उसे दुहराने वाले जानते हैं कि यह मुसलमानों को अपमानित करने के लिए लगाया जा रहा है.
यही चालाकी एनआरसी और सीएए के पूरे अभियान में छिपी या उजागर है. एनआरसी की प्रक्रिया से असली भारतीयों की पहचान की जाएगी और ‘बाहरी’ तत्त्वों को छान-फटककर अलग कर दिया जाएगा.
लेकिन असम में जैसे ही एनआरसी का ऐलान हुआ, मालूम हुआ तकरीबन 15 लाख हिंदू इससे बाहर रह गए! यह तो वादा न था. बात बांग्लादेशियों को निकाल बाहर करने की थी, जिसका मतलब था मुसलमान, लेकिन बाहर हो गए हिंदू!
भारतीय जनता पार्टी अपनी हिंदू जनता को भरोसा दिलाया: हम सीएए ला रहे हैं. जो हिंदू एनआरसी से बाहर रहे गए हैं, उन्हें हम सीएए के रास्ते भीतर ले आएंगे. सीएए में हमने एक छन्नी (फिल्टर) लगा दी है. इस रास्ते मुसलमान भीतर नहीं आ सकेंगे.
असम में यह प्रयोग कल्पना से आगे निकल गया था. जो एनआरसी में जगह नहीं पा सके, वे डिटेंशन कैंपों में बंद किए जा रहे थे. हिंदू, मुसलमान दोनों. लेकिन हिंदुओं को सीएए का दिलासा दिया जा रहा था.
असमिया हिंदुओं को यह कबूल न था. उन्हें सीएए सीधा धोखा जान पड़ा. असम में मांग थी गैर असमिया लोगों को बाहर करने की. सिर्फ मुसलमानों को नहीं.
लेकिन भाजपा कह रही थी, एनआरसी में जो हिंदू आ नहीं सके, उन्हें हम भीतर लाएंगे और जो मुसलमान इसमें आ गए हैं, उन्हें बाहर निकालने के लिए हम दोबारा एनआरसी की प्रक्रिया शुरू करेंगे.
असम भाजपा ने उसी एनआरसी को नकार दिया जो सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में तैयार की गई थी. हरेक दावे की जांच करनेवाले ट्रिब्यूनल को कहा गया कि वह ज़्यादा से ज्यादा विदेशियों, बाहरी की पहचान करे.
यानी इरादा वस्तुपरक जांच का नहीं, ‘बाहरी’ पैदा करने का था. जितना बाहरी पैदा करेंगे उतना बाहरी का शिकार करने का मज़ा बढ़ता जाएगा.
सीएए का सांकेतिक अर्थ था. यह इशारा था मुसलमानों को कि एक रास्ता तो कम से कम ऐसा अभी बनाया जा सकता है जिस पर मुसलमान पहचान नहीं चल सकती. यह भारत के विचार में उनकी भागीदारी को हीन करने का प्रभावी तरीका था.
इसे अगर असम के एनआरसी के उदाहरणों के सहारे समझा जाए तो साफ था कि यह मात्र प्रतीकात्मक या संकेतात्मक नहीं, मुसलमानों के लिए यह वास्ताविक ख़तरा हो सकता है.
इसलिए असम के बाद पूरे भारत में विरोध शुरू हुआ और उसमें मुसलमान पेश पेश रहे. यह स्वाभाविक था.
सीएए समान नागरिकता के विचार या उसूल के खिलाफ था, लेकिन जिनकी ज़िंदगियां सीएए एनआरसी के साथ मिलकर तबाह कर सकता था, वे मुसलमान थे.
जिस राजनीतिक दल की बुनियाद ही मुसलमानों के प्रति नफरत हो, उसकी सरकार से किसी सहानुभूति की उम्मीद करना उनके लिए मूर्खता ही हो सकती थी.
इसलिए असम में जहां असमिया जनता ने सीएए का विरोध किया, उत्तर पूर्व के अलावा शेष भारत में मुख्य रूप से मुसलमानों ने इसका विरोध किया. सीएए का विरोध नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा में भी हुआ.
आप अगर साल भर पहले के अखबार देखें तो पाएंगे कि केंद्रीय गृहमंत्री ही नहीं, राज्यों के भाजपा नेता भी अपने अपने राज्य में एनआरसी की प्रक्रिया शुरू करने का ऐलान कर रहे थे.
उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार, दिल्ली, हर जगह एनआरसी लागू करने का ऐलान भाजपा के नेता कर रहे थे. गृहमंत्री ने कहा ही था कि पहले सीएए के जरिये सभी इच्छुक गैर मुसलमानों को नागरिकता दी जाएगी, फिर एनआरसी के जरिये घुसपैठियों को बाहर कर दिया जाएगा.
गृहमंत्री ने दुविधा और अस्पष्टता समाप्त करने के लिए कहा कि मुसलमानों के अलावा किसी को अपनी नागरिकता देने के लिए किसी कागज़ की ज़रूरत न होगी. उन्होंने कहा कि हम आगे बढ़कर इन्हें नागरिकता देंगे. लेकिन इस बयान में भी मुसलमान का जिक्र न था.
सीएए में भले ही एक धर्म को अलग किया गया हो, दावा किया गया कि एनआरसी धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया है. लेकिन गृहमंत्री ने साफ कहा, ‘हम पूरे देश में एनआरसी को सुनिश्चित करेंगे. हम हरेक घुसपैठिए को देश से बाहर कर देंगे सिवा बौद्ध, हिंदू और सिख के.’
यह गृहमंत्री का बयान था. साफ है कि मुसलमान को छोड़कर किसी को कागज़ की भी ज़रूरत न होगी, जबकि मुसलमान हमेशा संदेह के घेरे में रहेगा.
क्या इन बयानों के बाद मुसलमानों का आशंकित और आंदोलित होना गलत था? क्या उनका अदालत जाना गलत था और अदालत के खामोश रहने पर क्या सड़क पर उतरना गलत था?
और क्या छात्रों, बुद्धिजीवियों का समानता के सिद्धांत के पक्ष में आवाज़ उठाना गलत था? क्या उनका मुसलमानों के साथ खड़ा होना गलत था?
एक साल पहले सीएए को संसद में संख्या बल पर पारित करा लेने के बाद सरकार को सबसे पहले छात्रों से विरोध का सामना करना पड़ा.
जामिया मिलिया इस्लामिया के हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, आदिवासी, हर धर्म के छात्रों ने इस कानून का विरोध किया. इसकी सज़ा उन्हें मिली. विश्वविद्यालय के भीतर घुसकर दिल्ली पुलिस ने उन पर क्रूरता दिखलाई.
सबसे ऊंची अदालत ने इसकी शिकायत करने पर मशविरा दिया, पहले सड़क से हट जाओ, फिर अर्जी लेकर आओ. यह दिल्ली पुलिस को ही नहीं, हर भाजपा सरकार को शह थी.
फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों पर हमला किया गया. फिर विरोध कर रहे सामान्य लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया.
जो विरोध साल भर पहले शुरू हुआ, जिस पर दमन की शुरुआत की आज सालगिरह है, वह इस दमन से रुका नहीं, झुका नहीं. उस दमन का जवाब मुसलमान औरतों ने दिया: शाहीन बाग़ के शानदार प्रयोग से. उसकी कहानी आगे.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)