यह युवा दिवस किनके नाम है? महेश राउत के, जिन्होंने महाराष्ट्र के आदिवासियों के लिए अपनी युवता समर्पित की और आज दो साल से जेल में हैं या अन्य जेलों में बंद नताशा, देवांगना, इशरत, मीरान, आसिफ़, शरजील, ख़ालिद, उमर जैसों के नाम, जिन्होंने समानता के उसूल के लिए अपनी जवानी गर्क करने से गुरेज़ नहीं किया?
युग के युवा,
मत देख दाएं,
और बाएं, और पीछे,
झांक मत बगलें,
न अपनी आंख कर नीचे;
अगर कुछ देखना है,
देख अपने वे
वृषभ कंधे
जिन्हें देता निमंत्रण
सामने तेरे पड़ा
युग का जुआ,
युग के युवा! तुझको अगर कुछ देखना है,
देख दुर्गम और गहरी
घाटियां
जिनमें करोड़ों संकटों के
बीच में फंसता, निकलता
यह शकट
बढ़ता हुआ
पहुंचा यहां है.
दोपहर की धूप में
कुछ चमचमाता-सा
दिखाई दे रहा है
घाटियों में.
यह नहीं जल,
यह नहीं हिम-खंड शीतल,
यह नहीं है संगमरमर,
यह न चांदी, यह न सोना,
यह न कोई बेशक़ीमत धातु निर्मल.
देख इनकी ओर,
माथे को झुका,
यह कीर्ति उज्ज्वल
पूज्य तेरे पूर्वजों की
अस्थियां हैं.
आज भी उनके
पराक्रमपूर्ण कंधों का
महाभारत
लिखा युग के जुए पर.
आज भी ये अस्थियां
मुर्दा नहीं हैं;
बोलती हैं :
‘जो शकट हम
घाटियों से
ठेलकर लाए यहां तक,
अब हमारे वंशजों की
आन
उसको खींच ऊपर को चढ़ाएं
चोटियों तक.’
गूंजती तेरी शिराओं में
गिरा गंभीर यदि यह,
प्रतिध्वनित होता अगर है
नाद नर इन अस्थियों का
आज तेरी हड्डियों में,
तो न डर,
युग के युवा,
मत देख दाएं
और बाएं और पीछे,
झांक मत बग़लें,
न अपनी आंख कर नीचे;
अगर कुछ देखना है
देख अपने वे
वृषभ कंधे
जिन्हें देता चुनौती
सामने तेरे पड़ा
युग का जुआ.
इसको तमककर तक,
हुमककर ले उठा,
युग के युवा!
लेकिन ठहर,
यह बहुत लंबा,
बहुत मेहनत औ’ मशक़्क़त
मांगनेवाला सफ़र है.
तय तुझे करना अगर है
तो तुझे
होगा लगाना
ज़ोर एड़ी और चोटी का बराबर,
औ’ बढ़ाना
क़दम, दम से साध सीना,
और करना एक
लोहू से पसीना.
मौन भी रहना पड़ेगा;
बोलने से
प्राण का बल
क्षीण होता;
शब्द केवल झाग बन
घुटता रहेगा बंद मुख में.
फूलती सांसें
कहां पहचानती हैं
फूल-कलियों की सुरभि को
लक्ष्य के ऊपर
जड़ी आंखें
भला, कब देख पातीं
साज धरती का,
सजीलापन गगन का.
वत्स!
आ तेरे गले में
एक घंटी बांध दूं मैं,
जो परिश्रम
के मधुरतम
कंठ का संगीत बनाकर
प्राण-मन पुलकित करे
तेरा निरंतर,
और जिसकी
क्लांत औ’ एकांत ध्वनि
तेरे कठिन संघर्ष की
बनकर कहानी
गूंजती जाए
पहाड़ी छातियों में.
अलविदा,
युग के युवा,
अपने गले में डाल तू
युग का जुआ;
इसको समझ जयमाल तू;
कवि की दुआ!
‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ की याद अविजित पाठक के लेख ने दिलाई तो यकायक हरिवंशराय बच्चन की इस कविता का स्मरण हो आया. युवा के कंधों पर युग का जुआ पड़ता ही है, लेकिन वह उसे बोझ नहीं, बंधन नहीं, जयमाल, वरदान समझे, यह कवि की प्रार्थना है.
कविता आह्वानपरक है और एक तरह का सीधापन इसमें है. जो युवा है उसे उस शकट को खींचकर आगे ले जाना है जिसे दुर्गम घाटियों से उसके पुरखे ठेलकर ऊपर ले आए थे.
एक अर्थ से इतिहास के दाय का बोध कराने वाली कविता है यह. युवा है कौन? नवीं कक्षा में था जब बाबूजी ने सुकांत भट्टाचार्य की कविताओं से परिचय कराया था. सुकांत 21 के हुए थे मुश्किल से कि इस दुनिया से गुजर गए.
चिर युवा कवि की छवि उनकी हमेशा मन में रही है. उनकी एक कविता प्रायः दुहराता हूं ‘अठारह की उमर’. यह उमर बेपरवाही की, फक्कड़पन और दुस्साहस की होती है, ऐसा कविता बतलाती है.
उद्धतता की नहीं. सब कुछ के तिरस्कार की नहीं. लेकिन इस वयस की विशेषता यह है, जैसा बच्चन भी लिखते हैं कि यह बहुत आगा पीछा नहीं सोचती. यह किसी रास्ते पर चलने के पहले ख़ुद को सुरक्षित नहीं कर लेती.
अपना बीमा कराने का ख़याल अगर युवावस्था में ही आपको आता है तो ज़रूर कुछ गड़बड़ है आपकी बनावट में. जोखिम मोल लेना, ख़तरे की परवाह न करना, यह तरुणाई की ख़ासियत है. लेकिन क्या यह उद्देश्यनिरपेक्ष है?
तरुणावस्था को तलाश किसकी है? नागार्जुन की कविता है, ‘मांग रही तरुणाई वो हथियार.’ कविता सवाल करती है:
जातिवाद के संपाती की चोंच कौन झाड़ेगा?
आर्थिक हितों के छोरों की निगरानी कौन करेगा?
धरती की प्यासी फ़सलों को पानी देगा कौन?
आगे वह पूछती है,
समर भूमि में सबके शोणित साथ बहे हैं
सुख की सर-गम की थिरकन क्या
महलों को ही होगी नसीब?
फिर नागार्जुनी अंदाज में कविता आगे बढ़ती है,
मांग रही तरुणाई वो हथियार
क्षुधा-अशिक्षा-रोग -रूढ़ि की पलटन का
जो कर डाले संहार
मांग रही तरुणाई वो हथियार
द्विपद भेड़िए दहलाएं देख जिसकी पैनी धार
मांग रही तरुणाई वो हथियार
जिसकी छाया में जनलक्ष्मी करे अशंक विहार
मांग रही तरुणाई वो हथियार
जिसके बल पर सगुण शांति के सपने हों साकार !
नागार्जुन हथियारबंद क्रांति के ख़िलाफ़ न थे लेकिन इस कविता में हथियार का हिंसा से कोई संबंध नहीं. सगुण शांति के सपने को यथार्थ देखने की कामना है, अस्त्र-शस्त्र वे चाहिए जो इसमें सहायता करें.
युवा की कल्पना जब भी हम करते हैं तो भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाकुल्लाह, यहां तक कि सुभाषचंद्र बोस की छवियां ही कौंधती हैं. लेकिन हम आनंदीबाई जोशी को प्रतिनिधि युवा के रूप में नहीं याद कर पाते जो 22 साल की उम्र में ही इस संसार से विदा हो गईं.
12 की उम्र में ही अपनी शिशु की मृत्यु को झेलने के बाद वे 17 की थीं, जब कठिन समुद्र यात्रा करके अमेरिका गईं और वहां डॉक्टरी की पढ़ाई की. इसके लिए जो सामाजिक विरोध उन्हें झेलना पड़ा होगा उसकी हम कल्पना ही कर सकते हैं.
या कभी रक्मा बाई को युवावस्था का प्रतीक माना जाएगा ? यह 19वीं सदी थी जब उस तरुण स्त्री बल्कि किशोरी ने अपने बाल विवाह को चुनौती दी और पति के साथ सहवास से मना कर दिया. इसका दंड भीषण था.
ब्रिटिश अदालत ने हिंदू रूढ़िवादियों के सुर में सुर मिलाकर उन्हें जेल की सजा सुनाई. रक्मा डरी नहीं, उन्होंने कदम पीछे नहीं खींचे. लेकिन उनके इस मुक़दमे के कारण ही 1891 में वह क़ानून बना, जिसमें विवाह के लिए सहमति की न्यूनतम उम्र निर्धारित की गई.
और सावित्री बाई फुले क्यों न हों नौजवानी की निशानी जिन्होंने पुरुष समाज के ईंट-पत्थर और गोबर-कीचड़ और गालियों से न डरते हुए औरतों की तालीम का काम शुरू किया?
भगत सिंह ने ठीक ही कहा था अपनी फांसी के वक़्त कि फांसी पर चढ़कर शहीद हो जाने से कहीं मुश्किल होगा इस समाज का मुक़ाबला करते हुए इंसाफ़, बराबरी के आदर्श पर काम करना.
जवानी का मतलब है दीवानगी. लेकिन किसकी? युवावस्था इस तरह देखें तो कुछ आदर्शों के बिना युवावस्था नहीं. युवावस्था के साथ जो भाव जुड़े हैं, वे हैं प्रेम के, दोस्ती के, नए नए रिश्तों के बनने के.
अल्हड़पन है उसमें लेकिन बदतमीजी नहीं है. युवावस्था अपनी छाती पर इतिहास को चढ़कर उसे कुचलने नहीं देती. घृणा, हिंसा, हत्या, ये युवावस्था के भाव नहीं हैं.
भगत सिंह ने हिंसा की राजनीति में भाग लेते हुए भी कहा था कि मानव रक्त उनके लिए सबसे पवित्र है.जब आप नौजवानों को सामूहिक हिंसा में आनंद लेते देखें तो मान लें कि वे अपनी अवस्था का बोध गंवा बैठे हैं.
इस युवा दिवस पर फिर हम किन युवाओं को याद करें? महेश राउत, जिन्होंने महाराष्ट्र के आदिवासियों के लिए अपनी युवता समर्पित की और उसकी सजा उन्हें आज का अधेड़ राष्ट्र दे रहा है, वे दो साल से जेल में हैं.
सालों के लिहाज़ से नहीं, लेकिन मन से नौजवान सुधा भारद्वाज जिन्होंने 40 की परिपक्व अवस्था में युवकों की तरह क़ानून पढ़ा जिससे छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की इंसाफ़ की लड़ाई लड़ सकें. और इसके चलते दो साल से जेल में हैं.
या दिल्ली की जेलों में बंद नताशा, देवांगना, इशरत, गुलफिशां, मीरान, आसिफ़ तनहा, शरजील, ख़ालिद सैफ़ी, उमर ख़ालिद के नाम यह युवा दिवस करें जिन्होंने समानता के सबसे ऊंचे इंसानी उसूल के लिए अपनी जवानी गर्क कर देने से गुरेज़ नहीं किया है?
लेकिन क्या हमें इन सबकी जवानी इस राज्य के हाथों यों होम होते देखते रहना चाहिए? क्या हमें ख़ुद को ताज़ा रखने के लिए इस युवता की बलि चाहिए ही? क्या यह राष्ट्र इतना निष्ठुर और बेहिस हो गया है कि इसे अपने युवकों की क़ुर्बानी चाहिए ही?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)