बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक बार में तीन तलाक़ कहने को असंवैधानिक क़रार दिया. अदालत के फैसले पर आम मुस्लिम महिलाओं से बातचीत.
‘मैं मानती हूं एक बार में तीन तलाक़ होना ग़लत है. कोर्ट के इस फ़ैसले से क्रेडिट जिसने भी लिया हो पर हमारे लिए तो ये पहले ही ग़लत था, बस कोर्ट ने अब मुहर लगा दी है’, ये कहना था शाहजहां का जो एक घरेलू महिला हैं, जिन्होंने तीन तलाक़ के मुद्दे को न्यूज़ चैनलों पर देखा और सुना.
एक एनजीओ में काम करने वाली अनम कहती हैं, ‘ये जीत उन महिलाओं की है जो इतने सालों से अपने साथ हुए अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रही हैं, न कि उस पार्टी की जो इस मुद्दे को और इस जीत को अपना बताने में लगी हुई है. औरतों के हक़ में आए फ़ैसले को का हम सभी स्वागत करते हैं पर अगर कोई पार्टी इस फ़ैसले से फ़ायदा उठा रही है तो ये बहुत ग़लत बात है.’
‘ख़ैर हमने अपने आस-पास कभी इस तरह की कोई घटना नहीं देखी पर अगर ये कहीं होता है तो हम भी इसकी निंदा करते हैं. ये कहना ग़लत है कि सिर्फ़ मुसलमान समुदाय में महिलाओं के साथ भेदभाव होता है ऐसा हर मज़हब में होता है, हर समुदाय में होता है, ऐसी चीज़ें मज़हब से नहीं बल्कि समाज से निकल कर आती हैं.’
एक अन्य एनजीओ से जुड़ी बुशरा ने भी इस बात से सहमति जताई कि हर मज़हब में महिलाओं के साथ भेदभाव और अन्याय होता है. बुशरा कहती हैं, ‘इंस्टेंट तीन तलाक़ बेहद ग़लत बात है. ग़ुस्से में आकर एक बार में तीन तलाक़ देने का हक़ किसी को नहीं है. पर तलाक़ के अलावा भी मुस्लिम महिलाओं से जुड़े कई मुद्दे हैं. सरकार ने अगर इस मामले में इतनी रुचि ली है तो मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा, रोज़गार और अन्य सुधारों पर भी सरकार को उतनी ही रुचि लेनी चाहिए.
अनम का यह भी कहना था, ‘हो सकता है कि मैं जिस घर से आती हूं वहां महिलाओं को पुरुषों से बहुत सहयोग मिला पर एक दूसरा तबका भी है जिसे इस तरह की आज़ादी भी नहीं मिलती. किसी भी मुद्दे को एक नज़रिए से देखना सही नहीं है. हर जगह वर्ग और शिक्षा का स्तर अलग है.’
फ्रीलांसर के बतौर काम करने वाली यास्मीन कहती हैं, ‘अगर कोई इंसान इतना ग़ुस्सैल है कि तैश में आकर किसी महिला को तलाक़ दे सकता है तो मैं नहीं मानती ऐसे इंसान के साथ रहना कहीं से भी सही है. अगर दो लोगों की आपस में नहीं बनती तो उन्हें अलग हो जाना चाहिए पर तीन तलाक़ तो सरासर ग़लत है.’
वे यह भी मानती हैं, ‘इस्लाम बहुत सारे हक़ देता है महिलाओं को पर इस समाज में जितनी आसानी से आदमी तीन तलाक़ का इस्तेमाल कर लेते हैं उतनी आसानी से महिलाएं खुला का इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं.’
बुशरा ने बताया, ‘मुस्लिम महिलाओं को मुस्लिम समुदाय के मौलानाओं से बहुत ख़तरा है जिन्होंने ख़ुद भी इस्लाम को पढ़ा नहीं है. महिलाएं चाहे जिस धर्म की हों पंडित और मौलानाओं के हाथों कठपुतली बनी हुई हैं, ये जानते हैं कि अगर महिलाओं के हाथ में किताब आ गयी, वो पढ़ लिख गयीं तो हमारी सुनने वाली नहीं. इसलिए महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा जाता है. उनके हक़ की जानकारी से दूर किया जाता है.’
‘हम बहुत पीछे जाते जा रहे हैं. मुसलमानों को टीवी के धारावाहिकों में भी इस तरह से दिखाया जाता है जैसे उनके जीवन में एक से ज़्यादा शादी और तलाक़ के सिवा कुछ और हो ही न.’
महिलाओं से हुई पूरी बातचीत इस लिंक पर देख सकते हैं.