सरकारी अफ़सरान हों या मुंसिफ़, ख़ुद को सामाजिक नैतिकता का प्रहरी मान बैठते हैं

व्यक्ति कुछ मौलिक अधिकारों से संपन्न है. संविधान इन अधिकारों की निशानदेही कर राज्य को बताता है कि वह व्यक्ति के जीवन में कहां हस्तक्षेप नहीं कर सकता.

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व्यक्ति कुछ मौलिक अधिकारों से संपन्न है. संविधान इन अधिकारों की निशानदेही कर राज्य को बताता है कि वह व्यक्ति के जीवन में कहां हस्तक्षेप नहीं कर सकता.

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हादिया और शेफिन जहां. (फोटो साभार: स्क्रॉलडॉटइन)

‘मेहरबानी करके मेरी मदद करो’, यह पुकार है केरल के कोट्टायम के टीवी पुरम के एक घर में क़ैद कर दी गई एक बालिग़ औरत की. उसका क़सूर यह है कि अब वह ख़ुद को हादिया कहलाना पसंद करती है जबकि उसके पिता अशोकन का कहना है कि यह तब्दीली एक बड़ी साज़िश है. साज़िश है उनकी बेटी के दिमाग़ की धुलाई के ज़रिये उसे मुसलमान बनाकर इस्लामिक स्टेट के लिए सीरिया भेजने की.

हादिया की यह पुकार इस देश में हर कोई सुन रहा है लेकिन यह पुकार देश के उच्चतम न्यायालय की दीवारों से टकरा कर लौट गई है. इस देश की एक बालिग़ औरत जो वोट दे सकती है, सरकार चुनने का दिमाग़ जिसके पास है, अपनी ज़िंदगी का फ़ैसला करने को आज़ाद नहीं है.

हादिया इसलिए आज़ाद नहीं कि जैसा रवायती तौर पर समझा जाता है, लड़की या औरत के विवेक पर वैसे ही भरोसा नहीं किया जा सकता, उसकी सोचने समझने की ताक़त पर यक़ीन नहीं किया जा सकता, वह कमज़ोर दिमाग़ की होती है. उच्चतम न्यायालय के पहले केरल का उच्च न्यायालय ही हादिया से सख़्त ख़फ़ा हो गया कि उसने उससे पूछे बिना शादी कैसे कर ली! जबकि अभी वह उसके अखिला से हादिया बनने की जांच ही कर रहा था. वह भी एक मुसलमान से!

अदालतों का यह भी ख़्याल है, जैसा आम हिंदुस्तानी मां-बाप या उनकी खाप पंचायतें मानती हैं, शादी जैसा बड़ा निर्णय बिना माता-पिता की मर्ज़ी के कैसे किया जा सकता है.

यह भी पूछा जा रहा है कि इस शादी को शादी कैसे माना जाए जिसमें लड़की के परिवार के पक्ष से कोई शामिल न हुआ. और केरल के उच्च न्यायालय ने हादिया की शेफिन जहां से शादी को रद्द कर दिया.

क्या यह हक़ उसे था? क्या यह अधिकार भारत के उच्चतम न्यायालय को है कि वह एक बालिग़ औरत के दिल दिमाग़ पर कब्ज़ा कर ले? क्या यह हक़ उसे है कि वह उसे उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसके मां बाप के घर नज़रबंद कर दे?

क्या यह हक़ उच्चतम न्यायालय को है कि वह हादिया को उसके शौहर से मिलने से रोक दे? और क्या यह हक़ उसे है कि वह एक बालिग़ लड़की के ख़ुद के मजहबी रुझान बदलने और अपना वैवाहिक रिश्ता बनाने के निर्णय को उसके पिता के संदेह के कारण एक बड़ी दहशतगर्द साज़िश का अंग मानकर उसकी जांच करने के लिए एक राष्ट्रीय एजेंसी को लगा दे और जांच होने तक तक वह हादिया को कैद कर दे?

क्या यह इसलिए हुआ कि अखिला ने जो मजहब अपनाया है, उसे हमारी अदालतें शक की निगाह से देखती हैं? यह भी कि उस मजहब से जुड़ी जो भी चीज़ हो रही है उसके तार ज़रूर किसी अंतरराष्ट्रीय तंत्र से जुड़े होंगे और वह साजिश ही होगी?

क्या अखिला हादिया के बदले हरलीन कौर हो जाती तो? अगर हादिया बौद्ध या जैन या पारसी हो जाती तो? लेकिन अदालतें कह सकती हैं कि इन मजहबों से कोई इस्लामिक स्टेट में शामिल नहीं हो रहा. यह उनका फ़र्ज़ है, वे कह सकती हैं कि वे हादिया की सुरक्षा के लिए क़दम उठाएं. जो देश की सुरक्षा भी है.

हालांकि केरल की पुलिस बार बार कह रही है कि उसने हादिया के पिता की शिकायत के बाद जांच कर ली थी और उसके शक को बेबुनियाद पाया था.

शेफिन जहां मस्कट में नौकरी करता था. यह बात उसने छुपाई नहीं थी. मस्कट में नौकरी बहुत सारे मुसलमान और हिंदू करते हैं. भारतीय संविधान में किसी को भी अपना धर्म बदलने की इजाज़त है. संविधान की आत्मा को कुचल कर तक़रीबन हर जगह इस अधिकार पर इतनी बंदिशें लगा दी गई हैं कि मजहब बदलने के पहले, ख़ासकर अगर आप इस्लाम या ईसाई धर्म अपना रहे हों, आपको स्थानीय प्रशासन को हर तरह की तसल्ली देनी पड़ती है. ध्यान रहे भारत में यह प्रशासन प्रायः हिंदू ह्रदय का होता है.

अपनी मर्ज़ी से शादी करने वाली लड़कियों और लड़कों को मालूम है कि इश्क़ आग का दरिया हो न हो, विवाह निबंधक का दफ़्तर ज़रूर कांटों भरी जगह है जहां से लहूलुहान हुए बिना शायद ही दोनों निकल सकें. सरकारी अफ़सरान हों या मुंसिफ़, ख़ुद को मां बाप का प्रतिनिधि और सामाजिक नैतिकता का प्रहरी मान बैठते हैं.

अपनी मर्ज़ी से शादी का रिश्ता बनाने वाले नौजवानों को हमारे मुल्क़ का निज़ाम चलाने वाले जिस क़दर बेइज़्ज़त करते हैं, इसका हाल वे भुक्तभोगी ही बता सकते हैं.

अभी हाल में मेरी एक छात्रा ने एक मुसलमान से शादी की है. धर्म नहीं बदला. लेकिन यह आसान न था. उसे अपने परिवार से ख़तरा था और अभी भी है. उसे शादी के बाद फौरन शहर छोड़ देना पड़ा.

यह 2017 है. 1987 में पटना में मेरे मित्रों की इस क़िस्म की शादी के वक़्त विश्व हिंदू परिषद की शिकायत पर पुलिस आ गई थी. इसके बाद की और ऐसी शादियों में हमें काफ़ी गोपनीयता और एहतियात बरतनी पड़ी थी.

तक़रीबन सात साल पहले दिल्ली में विश्वविद्यालय के अध्यापक जावीद आलम और एक हिंदू जयंती के विवाह के फ़ैसले पर दिल्ली भर में उनके ख़िलाफ़ पोस्टर लगा दिए गए थे और दोनों को जान बचाने को छिपना पडा था.

जावीद आलम के कॉलेज ने उनकी नौकरी इस जुर्म में ख़त्म कर दी थी. उसके भी बहुत पहले जब जवाहरलाल नेहरू की बेटी ने एक पारसी से शादी करने का निर्णय किया तो पूरे देश में तूफ़ान आ गया था.

ख़ुद गांधी को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा था और कन्या और वर अपनी ज़िंदगी के बारे में निर्णय लें, उनके इस अधिकार के पक्ष में दलील देनी पड़ी थी.

इंदिरा और फ़िरोज़ की शादी राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू क्षोभ का विषय बनी थी. उच्चतम न्यायालय को इस तरह के इतिहास की शिक्षा देने का इरादा नहीं. सिर्फ़ यह बताने का है कि मुसलमानों को लेकर एक गांठ इस देश की बहुसंख्या में है. वह कहीं भी हो सकती है. वह किसी भी नाम पर पड़ सकती है.

अभी वह गांठ और कस जाती है दहशतगर्दी के नाम पर. उच्चतम न्यायालय क्या इससे नावाक़िफ़ है? या, क्या यह शकोशुबहा वहां भी मन की किसी परत में है?

‘क्या मुझे इस तरह रहना होगा?’ यह चीख़ है हादिया की. उच्चतम न्यायालय को भारतीय व्यक्ति के निजता के अधिकार की तरफ़ से खड़े होने के चलते जो वाहवाही मिल रही है, उसके शोर में एक मुसलमान औरत की यह चीख़ दब गई है.

उच्चतम न्यायालय को राष्ट्र की सुरक्षा की चिंता जो है. क्या वह मानता है, जैसा कि प्रचार किया गया है कि ‘हिंदू लड़कियों को मुसलमान बना कर वह उन्हें दहशतगर्दों के हवाले कर दिया जाता है?’

क्या उसे इस प्रचार में ज़रा भी दम नज़र आता है कि ‘हिंदू लड़कियों को बरगला कर मुसलमान बना लिया जाता है और साज़िशन ख़ूबसूरत मुसलमान जवानों से उनका निक़ाह करा दिया जाता है?’

कि हिंदू लड़कियों पर डोरे डालने के लिए कसबल बनाए मुसलमान नौजवान मोटरसाइकिल लिए चक्कर काटे रहते हैं? और हिंदू लड़कियां उनकी मर्दानगी पर रीझकर उनके झांसे में आ जाती हैं?

कि हिंदू लड़कियों को मुसलमान बनाकर फिर वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है? कि फिर उनके शरीर का हरेक अंग बेच दिया जाता है? और अब, उन्हें इस्लामिक स्टेट के हवाले कर दिया जाता है?

क्या हमारा माननीय उच्चतम न्यायालय इस प्रचार में कुछ सच्चाई की बू पाने लगा है? क्या उसने हिंदू लड़कियों को इस अंतरराष्ट्रीय षडयंत्रकारी मजहब से बचाने का ज़िम्मा अपने कंधे पर ले लिया है? और अपने राष्ट्रीय कर्तव्य के जोश में वह संविधान की उस धारा को बिसरा बैठा है जिसकी एक भरी पूरी व्याख्या उसी के नौ सदस्यों ने हाल में की है.

व्यक्ति कुछ मौलिक अधिकारों से संपन्न है. उनका स्रोत राज्य नहीं, संविधान भी नहीं. संविधान इन अधिकारों की निशानदेही करता है और राज्य को बताता है कि वह व्यक्ति के जीवन में कहां हस्तक्षेप नहीं कर सकता. व्यक्ति के अधिकारों का स्रोत वह ख़ुद है और उनकी वैधता के लिए किसी और की दरकार नहीं.

हादिया एक भारतीय नागरिक है. वह बालिग़ है. उसे सोचने समझने, अपने बारे में निर्णय करने का हर अधिकार है. वह किस तरह का मजहबी रुख़ ले इसका भी. किससे शादी करे, यह तय करना उसका हक़ है.

न तो मां-बाप, न उसका परिवार, न उसकी जाति-पंचायत, न उसका धर्म उसकी तरफ़ से बोलने का हक़दार हैं. हदिया इस राष्ट्र की संपत्ति नहीं है. और उच्चतम न्यायालय उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसका अभिभावक नहीं बन सकता.

बेहतर हो कि यह ग़लती सुधार ली जाए. वरना इस मुल्क़ के मुसलमान अब अदालतों तक आने से भी हिचकेंगे, जिनपर अब तक उन्हें भरोसा रहा है, बारहा निराशा के बावजूद.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.)