अक्सर जनता को यह नहीं पता होता कि उसके साथ सत्ता क्या कर रही है. ऐसे मेें ख़तरा उन लोगों से होता है जो जनता से जनता की भाषा में सत्ता की हक़ीक़त बताते हैं. इसलिए उन्हें ख़ामोश किए जाने की कोशिश की जाती है.
बेंगलुरु में कन्नड़ की मशहूर पत्रकार और गौरी लंकेश पत्रिके नाम की पत्रिका की संपादक गौरी लंकेश की उनके घर में घुसकर हत्या कर दी गई. सात गोलियां चलाई गईं, तीन गोलियां उन्हें लगीं और ये काफी थीं कि गौरी लंकेश गिर पड़ें और खत्म हो जाएं.
गौरी लंकेश अपने निर्भीक लेखन के कारण कन्नड़ में जानी जाती थीं. यह बताना ज़रूरी है और याद रखना भी कि गौरी लंकेश ने बावजूद इसके कि वह अंग्रेज़ी में पत्रकारिता कर सकती थीं कन्नड़ में लिखना और बोलना पंसद किया.
यह बात याद रखना इसलिए भी ज़्यादा ज़रूरी है कि भारतीय भाषाओं में सच बोलना आज कहीं ज़्यादा जोख़िम का काम है. वह चाहे छत्तीसगढ़ में हो, महाराष्ट्र में हो या कर्नाटक में हो.
यह याद आना बहुत मुश्किल नहीं है कि गौरी लंकेश से पहले कर्नाटक में एमएम कलबुर्गी इसी तरह से मार डाले गए थे और उसके पहले महाराष्ट्र में मराठी में लिखने और बोलने वाले गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर इसी तरह से मार डाले गए थे.
यह पूछा जा सकता है कि हम क्यों गौरी लंकेश की हत्या को इन सब हत्याओं के साथ रखकर देख रहे हैं. क्या हमें यह ठीक-ठीक पता है कि इन हत्याओं के पीछे एक रिश्ता है.
अगर हम पुलिस की निगाह से देखें तो निश्चय ही हम यह नहीं कह सकते क्योंकि हमें अभी तक नहीं मालूम है कि ये सारी हत्याएं किन लोगों ने की. किन वजहों से की. लेकिन हमें यह ज़रूर मालूम है कि नरेंद्र दाभोलकर क्या कर रहे थे. हमें यह पता कि गोविंद पनसारे ने अपनी पूरी ज़िंदगी क्या करते हुए गुज़ारी है. हमें यह मालूम है कि एमएम कलबुर्गी कन्नड़ साहित्य के मर्मज्ञ होते हुए दरअसल कन्नड़ में तार्किकता पर बल दे रहे थे.
यही एक चीज़ है जो इन सारे लोगों को एक-दूसरे से जोड़ती है और वह यह है ये लोग समाज को तर्कशील बनाना चाहते थे. समाज में संवाद और विवाद की जगह सुरक्षित रखना चाहते थे.
ये संकीर्ण राष्ट्रवाद से परे जाकर मानवीयता की भाषा में बात करने के हामी थे. इनमें से सभी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के पक्षधर थे. मारे जाने के कुछ समय पहले तक गौरी लंकेश ट्विटर का इस्तेमाल रोहिंग्या मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा की वकालत करने के लिए कर रही थीं.
वो सवाल उठा रही थीं कि क्यों रोहिंग्या मुसलमानों के कत्लेआम पर हम उस तरह की प्रतिक्रिया नहीं कर पा रहे हैं जैसी हमें करनी चाहिए. ये हमें मालूम है कि रोहिंग्या मुसलमानों पर एक तरह से बर्मा में कत्लेआम हो रहा है और वो वहां से भाग रहे हैं. लेकिन पहले से भारत में जो रोहिंग्या शरणार्थी हैं उनको निकालने को भारत सरकार आमादा है.
इसी तरह वो दलितों के अधिकारों के पक्ष में काम कर रही थीं और गौरी लंकेश को इस वजह से भी जाना जाता है कि उन्हें नक्सलवादी कहकर लांछित किया जाता है और राष्ट्रविरोधी कहा जाता है. वह उन्हें राष्ट्र और समाज के सामान्य लोगों के रूप में देखने और उनके साथ व्यवहार करने के पक्ष में थीं.
इस कारण बहुत से लोग उन्हें नक्सलवादी और माओवादी भी कहते थे. लेकिन इसकी उन्हें परवाह नहीं थी.
वे भ्रष्टाचार को भी उजागर कर रही थीं. राजनीतिक भ्रष्टाचार और आर्थिक भ्रष्टाचार जो कर्नाटक में काफी है. जैसा भारत के दूसरे राज्यों में भी है. और ऐसा करना काफी ख़तरनाक है. क्योंकि जब आप अपने अगल-बगल की दुनिया में उसी भाषा में, उसी ज़ुबान में टिप्पणी करते हैं जिस भाषा में लोग एक-दूसरे से बातचीत करते हैं तो यह खतरनाक हो जाता है. क्योंकि उस बात को सुना भी जा सकता है और उसकी प्रतिक्रिया भी हो सकती है.
इसलिए आप मराठी, कन्नड़, बांग्ला या छत्तीसगढ़ में हिंदी में लिख रहे हों तो आप वहां की स्थानीय सत्ता के लिए और उससे भी बड़ी सत्त्ता के लिए ज़्यादा बड़ा ख़तरा बने रहते हैं. यह बहुत ताज्जुब की बात नहीं है कि हम हिंदी की मुख्यधारा पत्रकारिता को देखें तो वहां अब ऐसी आवाज़ों को जगह मिलना बंद हो गया है जो आवाज़ें सत्ता की आलोचना करती हैं.
हिंदी में ऐसे लोगों को लिखने के लिए कोई अवकाश नहीं है लेकिन कर्नाटक और कन्नड़ इस बात के लिए जाने जाते हैं कि वहां स्वतंत्र मेधा और स्वतंत्र चिंता की एक परंपरा रही है.
यूआर अनंतमूर्ति की कन्नड़ पूरे कर्नाटक में सुनी जाती थी और इसीलिए अनंतमूर्ति को संकीर्ण राष्ट्रवाद की आलोचना के बाद कहा गया कि उन्हें पाकिस्तान चला जाना चाहिए. और अनंतमूर्ति की लंबी आयु प्राप्त करने के बाद बीमारी से हुई मृत्यु के उपरांत कर्नाटक में कुछ ऐसे लोग थे जिन्होंने दीवाली मनाई और मिठाई बांटी.
कर्नाटक में प्रतिरोध की यह परंपरा पुरानी है और गौरी लंकेश उसी परंपरा की उत्तराधिकारी थीं. वो अपने पिता की पत्रकारिता की भी उत्तराधिकारी थीं और उन्होंने अपनी पत्रिका निकालनी शुरू की.
गौरी को इस बात की चेतावनी दी गई कि वो जोख़िम मोल ले रही हैं और उन्हें धीमें काम करना चाहिए. संभव हो तो कुछ समय के लिए बोलना बंद कर देना चाहिए.
उन्होंने ऐसी सारी चेतावनी को परे झटक दिया था. यह नहीं कि उन्हें नहीं मालूम था कि उन पर ख़तरा है. इसकी आशंका उन्होंने अपने मित्रों से ज़ाहिर की थी लेकिन इस ख़तरे की वजह से वो बोलना बंद कर दें. यह गौरी के लिए मुमकिन नहीं था.
लेकिन आज यह सबके लिए सोचने का विषय है कि भारतवर्ष गौरी लंकेश जैसे लोगों के लिए सुरक्षित क्यों नहीं है. यह नहीं कि हम उनकी सुरक्षा की भीख मांग रहे हैं बल्कि यह कि जब हम गौरी जैसे लोगों की आवाज़ सुनने नहीं देते हैं तो दरअसल हम अपनी भाषाओं को गरीब कर लेते हैं पहले से अधिक दरिद्र कर लेते हैं.
गौरी लंकेश सिर्फ शहादत नहीं दे रही थीं. भाषा का जो काम है सच बोलना उसका पालन कर रही थीं.
आमतौर कहा जाता है कि बुद्धिजीवी सत्ता से सच बोलता है. सत्ता के मुख पर सच बोलता है. बुद्धिजीवी का असल काम है जनता को सच बताना. क्योंकि सत्ता को यह पता है कि वह क्या कर रही है.
अक्सर जनता को यह नहीं पता होता कि उसके साथ क्या किया जा रहा है. और ख़तरा उन लोगों से होता है जो जनता से जनता की भाषा में बात कर लेते हैं. इसलिए उन्हें खामोश किए जाने की कोशिश की जाती है.
यह वजह रही होगी कि गौरी लंकेश को मार डाला गया. और हमने देखा कि उनके मार डाले जाने के बाद उन्होंने जो कुछ भी कहा था जो कुछ भी लिखा था उसे सारे लोग वापस याद करने लगे हैं. लेकिन ध्यान रहे यह तसल्ली की बात नहीं है.
हम यह कहकर बहादुराना तो दिख सकते हैं कि गौरी लंकेश की सारी आवाज़ें सुरक्षित हैं लेकिन हम याद रखें कि गौरी लंकेश आगे ज़िंदा रहती तो बहुत कुछ बोल सकती थीं बहुत कुछ लिख सकती थीं. वो मरना नहीं चाहती थीं. वो शहादत नहीं चाहती थीं.
और हम भी नहीं चाहते हैं कि गौरी लंकेश जैसे हमारे दोस्त शहीद हों. उन्हें ज़िंदा रहना चाहिए. क्योंकि सच का अभ्यास रोज़ किया जाना है. वो हमारे समाज के लिए बहुत ज़रूरी है जैसे- रोटी जैसे- इंसाफ. न तो रोटी, न इंसाफ और न सच, तीनों ही एक-दूसरे के बिना ज़िंदा नहीं रह सकते. गौरी लंकेश पर बात करते समय हमें इसे याद रखना ज़रूरी है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.)