बीते दिनों जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान दिए गए केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू के इस बयान को लेकर चकमा डेवलपमेंट फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर रोष जताया है. यह दोनों समुदाय पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा का समर्थन करते आए हैं.
नई दिल्ली: भाजपा नेताओं की जन आशीर्वाद यात्राओं में दिए जा रहे बयानों को लेकर उठ रहे विवाद थमने का नाम नहीं ले रहे हैं. जहां एक ओर केंद्रीय मंत्री नारायण राणे द्वारा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को लेकर की गई अभद्र टिप्पणी पर सियासी घमासान मचा, वहीं, देश के उत्तर पूर्वी हिस्से में एक अन्य केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू के ऐसी ही यात्रा के दौरान अरुणाचल प्रदेश के एक संवेदनशील मसले पर दिए गए बयान ने सुर्खियां बटोरीं.
अरुणाचल प्रदेश के पहले केंद्रीय कैबिनेट मंत्री होने के अलावा रिजिजू दिनेश गोस्वामी के बाद पूर्वोत्तर से आने वाले पहले केंद्रीय कानून मंत्री भी हैं. केंद्र में कानून मंत्री होने के नाते उनसे गृह राज्य में लंबे समय से चले आ रहे चकमा-हाजोंग शरणार्थी पुनर्वास मुद्दे को सुलझाने की उम्मीद है, जो इस सीमावर्ती राज्य में काफी भावनात्मक मुद्दा है.
समाचार रिपोर्ट के अनुसार, रिजिजू ने हफ्ते भर पहले जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान अपने भाषणों में इसे जगह दी और उनके इस बयान ने एक नया तूफान खड़ा कर दिया.
केंद्रीय मंत्री ने अपने बयानों में स्पष्ट रूप से कहा कि अरुणाचल में रहने वाले सभी ‘विदेशियों’ को राज्य छोड़ना होगा और ‘कोई भी इसमें दखल नहीं दे सकता.’ भले ही नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) अरुणाचल पर लागू नहीं है, कानून मंत्री ने इसका हवाला देते हुए कहा कि ‘मूल आदिवासी लोगों को छोड़कर, किसी भी विदेशी को एसटी (अनुसूचित जनजाति) का दर्जा (अरुणाचल में) प्राप्त नहीं हो सकता है.’
उन्होंने कहा कि सीएए मूल निवासियों की पहचान, संस्कृति और अधिकारों की रक्षा करेगा और कोई भी इसे रोक नहीं सकता.’
23 अगस्त को चकमा अधिकार और विकास संगठन (सीआरडीओ) द्वारा जारी एक बयान के अनुसार, रिजिजू ने राज्य की अपनी तीन दिवसीय यात्रा के दौरान ‘अरुणाचल प्रदेश के चकमा और हाजोंग लोगों को चेतावनी दी थी कि वे इस तथ्य के बारे में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि उन्हें अरुणाचल प्रदेश में बसने या रहने की अनुमति नहीं दी जाएगी.’
केंद्रीय मंत्री के भाषणों के चलते चकमा डेवलपमेंट फाउंडेशन ऑफ इंडिया (सीडीएफआई) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को पत्र लिखकर उनके समुदाय की ओर से रोष जताया है.
उल्लेखनीय है कि चकमा-हाजोंग उत्तर पूर्वी राज्यों में अपनी सुरक्षा के लिए भाजपा का समर्थन करते रहे हैं. मसलन, ईसाई बहुल मिजोरम में, जहां उनका बहुसंख्यक मिजो समुदाय के साथ भी टकराव है, भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव में एक सीट जीतने के लिए केवल चकमा समुदाय पर भरोसा कर सकी थी.
प्रधानमंत्री और अन्य को लिखे गए सीडीएफआई के पत्र पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए करते हुए अरुणाचल में प्रभावशाली छात्र निकाय ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्स यूनियन (आपसू), जो राज्य से ‘बाहरियों’ को निकालने के मुद्दे पर अगुवाई कर रहा है, ने रिजिजू के बयान का स्वागत करते हुए 24 अगस्त को ईटानगर में एक प्रेस वार्ता आयोजित की. इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट में इसके समाधान का मामला लंबित होने के बावजूद मुद्दे पर अच्छा-खासा तनाव खड़ा हो चुका है.
पड़ोसी राज्य असम में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के नेतृत्व में 1980 के विदेशी-विरोधी आंदोलन के पदचिह्नों पर चलते हुए आपसू चकमा और हाजोंग शरणार्थियों, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा 1964 और 1969 के बीच कई चरणों में सीमावर्ती राज्य के तीन जिलों में बसने की अनुमति दी गई थी, के खिलाफ एक सार्वजनिक अभियान का नेतृत्व कर रहा है. इन शरणार्थियों को तब बसाया गया था, जब अरुणाचल को उत्तर पूर्वी सीमांत एजेंसी (एनईएफए) के रूप में असम से जुड़ा था.
कौन हैं चकमा-हाजोंग
मूल रूप से पूर्वी पाकिस्तान में चटगांव हिल ट्रैक्ट्स (सीएचटी) के निवासी चकमा बौद्ध हैं. उसी क्षेत्र, जो अब बांग्लादेश में हैं, से आने वाले हाजोंग हिंदू हैं. चकमा-हाजोंग असम सहित कई पूर्वोत्तर राज्यों में फैले हुए हैं. 1962 में पूर्वी पाकिस्तान द्वारा कप्ताई बांध को शुरू करने, जिससे इन अल्पसंख्यक समुदायों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ, के बाद ये शरणार्थी खुली सीमाओं के रास्ते भारत पहुंचे थे.
चकमा-हाजोंग विरोधी आंदोलन 1987 में एनईएफए के एक राज्य अरुणाचल प्रदेश बनने के बाद इनके मूल निवासी न होने के मुद्दे पर उन्हें निकाले जाने की मांग के इर्द-गिर्द ही रहा है. समय बीतने के साथ असम का मूल-निवासी बनाम बाहरी आंदोलन विदेशी-विरोधी आंदोलन बनते हुए अंततः बांग्लादेश-विरोधी आंदोलन बन गया. अरुणाचल में भी ऐसा ही हुआ क्योंकि इनका मूल निवास चटगांव अब बांग्लादेश का हिस्सा है.
भले ही सीएए अरुणाचल में लागू नहीं था, फिर भी 2019 में आपसू ने असम के आसू के साथ एकजुटता दिखाते हुए राज्य में इसके खिलाफ कई विरोध प्रदर्शन किए, जिसकी एक वजह अब तक समाधान की राह देख रहा चकमा-हाजोंग मुद्दा भी था.
रिजिजू के बयान के क्या मायने हैं
संयोग की बात है कि रिजिजू का बयान मुख्यमंत्री पेमा खांडू द्वारा उनके स्वतंत्रता दिवस के भाषण में चकमा-हाजोंग का जिक्र करने के कुछ ही दिन बाद आया है.
द अरुणाचल टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, खांडू ने राजधानी ईटानगर में दिए भाषण में कहा था कि ‘सभी अवैध अप्रवासी चकमाओं को संविधान के अनुसार बाइज्जत कुछ अन्य जगहों पर ले जाकर बसाया जाएगा.’
मुख्यमंत्री ने कहा, ‘आने वाले दिनों में हम लंबे समय से चली आ रही इस समस्या के समाधान के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे. संविधान के अनुसार, चकमा अरुणाचल में नहीं रह सकते क्योंकि अरुणाचल एक आदिवासी राज्य है.’
खांडू ने यह भी कहा कि इस पेचीदा मुद्दे के कारण अरुणाचल में रहने वाले चकमा भी परेशान हैं. उनका कहना था, ‘मुझे उनके लिए बुरा लगता है क्योंकि वे भी आखिर इंसान हैं.
आपसू ने प्रेस वार्ता में खांडू के भाषण का भी स्वागत किया और इस मुद्दे के समाधान की उम्मीद जताई.
अरुणाचल के चकमा-हाजोंग नेताओं ने द वायर से बात करते हुए कहा कि उन्होंने खांडू के भाषण पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं दी क्योंकि ‘उन्होंने केवल अवैध अप्रवासियों को फिर से बसाने की बात की थी, नागरिकों को नहीं.’ साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि ‘इस मुद्दे का समाधान होना चाहिए क्योंकि वे भी इंसान हैं.’ हालांकि, रिजिजू के भाषण ने उन्हें जवाब देने के लिए ‘मजबूर’ कर दिया ‘क्योंकि उन्होंने ऐसा कोई फर्क न करते हुए समुदाय के सभी लोगों को विदेशी कहा,’ भले ही 1987 के बाद पैदा हुए उनमें से ढेरों राज्य में भारतीय नागरिकों के रूप में वोट दे रहे हैं.’
अरुणाचल प्रदेश के चकमा और हाजोंग के नागरिक अधिकार समिति के महासचिव संतोष चकमा के अनुसार, ‘अरुणाचल में समुदाय के लगभग 5,000 लोग मतदाता हैं. 1964 और 1969 के बीच केंद्र ने वर्तमान अरुणाचल प्रदेश में 14,888 लोगों को बसाया था. उनमें से मुश्किल से 4,500 या कुछ ज्यादा जीवित बचे हैं. चकमा-हाजोंग की वर्तमान आबादी का 90% से अधिक भारत में ही जन्मा है इसलिए नागरिकता अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, वे जन्म से भारतीय नागरिक हैं.’
राज्य के जिन राजनीतिक विश्लेषकों से द वायर ने बात की, उनका कहना था कि रिजिजू और खांडू दोनों के बयानों को ‘सियासी नजर से देखा जाना चाहिए.’
गोपनीयता की शर्त पर एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, ‘रिजिजू केवल उस बात पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं जो खांडू ने अपने 15 अगस्त के भाषण में कही थी. यह दोनों के बीच उस मामले, जहां बहुसंख्यक जनता की भावना शामिल है, पर राजनीतिक श्रेय लेने की एक होड़ है. मेरे ख्याल से खांडू ने गेंद रिजिजू के पाले में डाल दी है. केंद्रीय कानून मंत्री होने के नाते उन्हें इस उलझे हुए मुद्दे को सुलझाने में सक्षम होना चाहिए. खांडू का यह कदम चतुराई भरा है. राज्य में दोनों के बीच चल रही सत्ता को लेकर खींचतान अब कोई रहस्य नहीं है.’
चकमा-हाजोंग मसले पर रिजिजू के हालिया बयान के राजनीतिक मायने के बारे में पूछे जाने पर आपसू महासचिव दाई टोबोम ने द वायर से कहा, ‘हमारे पास (रिजिजू के) बयान पर विश्वास करने की हर वजह है क्योंकि पहले तो यह कि यह देश के कानून और न्याय मंत्री बोल रहे हैं और इसलिए भी कि सीएए संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया था.’
उन्होंने आगे कहा, ‘पेचीदा मामलों में कई स्तर पर मुकदमेबाजी होती है, लेकिन माननीय मंत्री ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सीएए के लागू होने के बाद अरुणाचल की सीमा में चकमा-हाजोंग को नागरिकता का अधिकार नहीं मिल सकता. उन्होंने यह भी कहा कि यह अधिनियम पिछले सभी निर्णयों को नकारता है और इसके बजाय बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन एक्ट (बीईएफआरए), 1873 को मजबूत करता है.’
रिजिजू द्वारा चकमा-हाजोंग को ‘विदेशी’ कहने के बारे में टोबोम ने कहा, ‘ऐसा हमेशा नहीं हुआ है कि माननीय अदालतों ने चकमा-हाजोंग के पक्ष में ही फैसला सुनाया हो. 1993 में खुदीराम चकमा बनाम अरुणाचल प्रदेश सरकार मामले में उन्हें ‘विदेशी’ और ‘गैर-स्थानिक’ घोषित किया गया था.’
जनसांख्यिकीय बदलाव
असम में होने वाली बांग्लादेशी विरोधी बयानबाजी की तरह आपसू के लिए अरुणाचल से चकमा-हाजोंग को हटाने की मांग का प्राथमिक मुद्दा भी ‘जनसांख्यिकीय परिवर्तन’ के तर्क के इर्दगिर्द घूमता है.
टोबोम कहते हैं, ‘हम यह नहीं कह रहे हैं कि जनसांख्यिकीय बदलावों से ही अरुणाचल में कोई मुसीबत आ रही है. आज की तारीख में चकमा-हाजोंग संगठन ने खुद अपनी आबादी 60,000 के आसपास आंकी है जो हमारे अनुमान में सच से बहुत दूर है. राज्य में इनकी आबादी एक लाख से कम नहीं है.’
उनका तर्कहै, ‘इस बीच त्रासदी यह है कि मूल आदिवासी समूह- सिंगफोस, ताई खामटिस, तांगसा, जिनके क्षेत्रों में उन्हें अस्थायी रूप से बसाया गया था, की संख्या एक साथ उन आंकड़ों से मेल नहीं खाएगी, जो चकमा समूहों ने आधिकारिक तौर पर दिए हैं. इस प्रभावशाली संख्या के साथ उन्होंने अब स्थानीय जमीनों को हड़पना शुरू कर दिया है और सीमित प्राकृतिक संसाधनों के लिए भी वे प्रतिस्पर्धा में हैं, जिससे शांतिप्रिय आदिवासी समाजों में नाराज़गी और उथल-पुथल हो रही है.’
उधर, संतोष चकमा ने आपसू के उनकी जनसंख्या के अनुमान का खंडन किया है. वे कहते हैं, ‘2010-11 के आसपास अरुणाचल में चकमा-हाजोंग की एक विशेष जनगणना हुई थी. तब उनकी आबादी 50,000 से कम थी. 2011 की सामान्य आबादी की जनगणना में भी उनकी संख्या लगभग 52,000 है, इसलिए हमारे अनुमान के अनुसार इसे 60,000 से अधिक नहीं होना चाहिए.’
असम ‘एंगल’
23 अगस्त को मोदी, शाह, भागवत और अरुणाचल और असम के मुख्यमंत्रियों खांडू, हिमंता बिस्वा शर्मा को भेजे गए सीडीएफआई का पत्र में ‘अरुणाचल प्रदेश के 60,000 चकमा और हाजोंग को कथित तौर पर असम में निर्वासित करने के प्रस्ताव को खारिज करने’ की बात भी कही गई है. इसमें कहा गया है कि ‘यदि चकमा और हाजोंग को सीएए का दुरुपयोग करके अरुणाचल प्रदेश द्वारा असम में फेंका जाता है, तो असम बीईएफआरए के तहत इनर लाइन परमिट के तहत आने वाले सभी राज्यों यानी अरुणाचल बन जाएगा.’
इस बात का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि हिमंता बिस्वा शर्मा, जो अरुणाचल के चकमा-हाजोंग मुद्दे का समाधान खोजने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय की नई समिति के सह-अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हैं, सीएए का विरोध करने वाले बहुसंख्यक असमिया समुदाय को बांग्लादेश से आए हिंदुओं को सीएए के तहत बसाए जाने की बात स्वीकारने के लिए कहते हुए ‘जनसांख्यिकीय परिवर्तन’ का हवाला देते हुए ‘दुश्मन’ (बंगाली मूल के मुसलमानों की ओर इशारा करते हुए) की पहचान करने की कह रहे हैं.
चकमा और हाजोंग समुदायों के ऐसे अनिर्दिष्ट (जिनका कहीं आधिकारिक तौर पर दस्तावेजीकरण नहीं हुआ है) अप्रवासी सीएए के तहत नागरिकता के दायरे में आते हैं क्योंकि वे मूल रूप से वर्तमान बांग्लादेश के हिंदू और बौद्ध हैं.
गौरतलब है कि सीएए असम के गैर-छठी अनुसूची वाले क्षेत्रों पर लागू है. गौर करने वाला पहलू यह भी है कि सीएए 1985 के असम समझौते का भी उल्लंघन करता है, जिसके कारण असम की नागरिकता की एक विशेष कट-ऑफ तिथि 24 मार्च 1971 निर्धारित की गई थी.
सीडीएफआई के सुहास चकमा ने अपने पत्र में सीएए के तहत इस समुदाय को लाने की कानूनी अड़चन के बारे में भी बताया है. उनका कहना है कि नया संशोधित कानून अरुणाचल में रहने वाले समुदाय पर लागू ही नहीं होगा क्योंकि 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें भारतीय नागरिकता दी थी.
उनका कहना है, ‘सीडीएफआई का दावा है कि कोई भी कानून पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं होता है, इसलिए सीएए, जो दिसंबर 2019 में लाया गया था, वह राज्य के चकमा और हाजोंग पर लागू नहीं होता है क्योंकि वे 1964-68 के दौरान यहां पलायन करके आए थे. चकमा और हाजोंग 1955 के नागरिकता अधिनियम के अंतर्गत आते हैं, जिसके तहत उन्होंने 21 साल पहले 1998 में आवेदन जमा किए थे, लेकिन इन आवेदनों को राज्य सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश की स्पष्ट अवमानना और नागरिकता नियमों का उल्लंघन करते हुए आगे नहीं बढ़ाया गया है.’
सुहास ने आगे कहा, ‘इसके अलावा सीएए की संवैधानिक वैधता को शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई है और भारत सरकार ने अब तक इस कानून के नियम भी नहीं बनाए हैं.
संतोष चकमा कहते हैं, ‘हमारे द्वारा दायर एक याचिका, जिसमें कहा गया था कि अरुणाचल सरकार ने 1996 के आदेश का सम्मान नहीं किया, के जवाब में 2015 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद राज्य सरकार ने मूल शरणार्थियों के आवेदनों को प्रोसेस करना शुरू किया, जिनकी संख्या करीब 4,637 थी क्योंकि बाकी आवेदक तब तक गुजर चुके थे.’
उन्होंने कहा, ‘चूंकि इतने सालों तक आवेदन कहीं पड़े रहे थे, इसलिए तब तक कई आवेदन खराब हो गए थे. राज्य सरकार केवल 1,789 आवेदनों पर कार्रवाई कर सकी. 4,637 आवेदकों में से कुछ अब नहीं रहे.’
सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार 2017 में अरुणाचल सरकार द्वारा केंद्रीय गृह मंत्रालय को नागरिकता देने के लिए भेजे गए 1,798 आवेदन इसी मंत्रालय में ही पड़े हैं. संतोष चकमा कहते हैं, ‘ऐसा सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद हो रहा है.’
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