नगालैंड फायरिंगः अंग्रेज़ी अख़बारों ने की आफ़स्पा की आलोचना, सेना के दावों पर सवाल उठाया

नगालैंड के मोन ज़िले के ओटिंग और तिरु गांवों के बीच सुरक्षाबलों द्वारा फायरिंग में नागरिकों की मौत के बाद देश के प्रमुख अंग्रेज़ी दैनिकों के संपादकीय में आफ़स्पा पर नए सिरे से विचार करने की बात कही गई है, साथ ही केंद्र व सुरक्षाबलों को कटघरे में खड़ा किया गया है.

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(फोटोः द वायर)

नगालैंड के मोन ज़िले के ओटिंग और तिरु गांवों के बीच सुरक्षाबलों द्वारा फायरिंग में नागरिकों की मौत के बाद देश के प्रमुख अंग्रेज़ी दैनिकों के संपादकीय में आफ़स्पा पर नए सिरे से विचार करने की बात कही गई है, साथ ही केंद्र व सुरक्षाबलों को कटघरे में खड़ा किया गया है.

(फोटोः द वायर)

नई दिल्लीः नगालैंड फायरिंग को लेकर देशभर के अंग्रेजी अखबारों के संपादकीयों में लगभग एक जैसा रवैया ही देखने को मिला. अधिकतर अखबारों में आफस्पा पर नए सिरे से विचार करने पर जोर दिया गया है या फिर नगालैंड में हुई इस घटना के लिए सुरक्षाबलों और केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया गया है.

न्यू इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय में राज्य में हुए घटनाक्रमों पर सवाल खड़े किए गए हैं. स्पष्ट तौर पर पूछा गया है कि ऐसे इलाके में इस तरह का गुप्त अभियान क्यों किया गया जहां कई सालों से कोई सक्रिय विद्रोह नहीं हुआ.

अखबार में कहा गया, ‘युद्धविराम समझौतों के संदर्भ में देखें तो सेना के दावे तर्कों को धता बताते दिखते हैं.’

संपादकीय  में कहा गया, ‘वास्तव में केंद्र सरकार के लगभग सभी विद्रोही समूहों के साथ युद्धविराम समझौता होने और उन सभी के साथ शांति वार्ता होने के चलते मणिपुर को छोड़कर उत्तरपूर्व के लगभग सभी हिस्सों में विद्रोह निष्क्रिय रहा. कुछ समूहों जिन्होंने इन समझौतों पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, वे मणिपुर का पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और असम का उल्फा का परेश बरुआ धड़ा है.’

अखबार के संपादकीय में कहा गया, ‘इसलिए रविवार को सेना के बयान में मोन में विद्रोही गतिविधियों की विश्वसनीय जानकारी का हवाला दिया गया, जो तर्कों को धता बताती है क्योंकि यह बताया गया था कि विद्रोही हमले और लूट जारी रख सकते हैं जो मामला ही नहीं है.’

संपादकीय में यह भी कहा गया कि पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर का यह मतलब नहीं है कि दोषी सेनाकर्मियों पर सशस्त्रबल विशेष अधिकार अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया जाएगा. दरअसल यह अधिनियम सैन्यकर्मियों को तब तक अभियोजन से सुरक्षा प्रदान करता है, जब तक इसे केंद्र सरकार द्वारा मंजूरी नहीं दी जाती.

संपादकीय में कहा गया, ‘अब तक अधिकारियों द्वारा दिए गए बयान यह संकेत नहीं देते कि अगर सैन्यकर्मियों को दोषी पाया जाएगा तो उसे मंजूरी दी जाएगी और कानून के अनुरूप उचित प्रक्रिया का पालन किया जाएगा.’

वहीं, हिंदुस्तान टाइम्स ने इन मौतों को राज्य के रिकॉर्ड पर धब्बा बताया. संपादकीय में कहा गया है, ‘तथ्य है कि यह ऐसे राज्य में हुआ, जहां केंद्र सरकार के विरोध का इतिहास रहा है और जहां केंद्र सरकार से विमुखता अधिक रही है.’

संपादकीय में कहा गया कि इनकार करने और भ्रम की रणनीति के बजाय दोनों सरकारों और सशस्त्रबलों ने अपनी गलती को पहचाना है, खेद जताया है और जांच टीम का गठन किया है.

हालांकि, जैसा कि द वायर  ने पहले भी बताया कि नगालैंड पुलिस की रिपोर्ट और भाजपा के मोन जिले के अध्यक्ष न्यावांग कोन्याक के बयान से पता चला कि सुरक्षाबलों ने शुरुआत में इस घटना को छिपाने का प्रयास किया था.

हिंदुस्तान टाइम्स के संपादकीय  कहा गया कि जांच निष्पक्ष होनी चाहिए. सभी जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए, जल्द से जल्द निष्कर्ष तक पहुंचना चाहिए और न्याय सुनिश्चित करना चाहिए.

टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने संपादकीय में घटना की निष्पक्ष जांच को लेकर कहा कि तथ्य यह है कि आफ्सपा खुद में एक बाधा है.

संपादकीय में कहा गया, ‘आइए याद रखें कि पूर्ववर्ती जांच से आत्मविश्वास बहाल नहीं हुआ है क्योंकि आफ्सपा के तहत किसी भी सैनिक पर नागरिकों की हत्या के लिए आरोप नहीं लगाया गया है.’

संपादकीय में उत्तरपूर्व और जम्मू कश्मीर की स्थितियों को समानांतर रखते हुए कहा गया है, उदाहरण के लिए बीते 20 वर्षों में केंद्र ने सैन्यकर्मियों के खिलाफ जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा अनुशंसित सभी मामलों में आफ्सपा के तहत अभियोजन चलाने की मंजूरी देने से इनकार किया है.

टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय में अन्य की तरह ही क्षेत्र की राजनीति पर भी टिप्पणी की गई है.

द टेलीग्राफ के संपादकीय में कहा गया है कि भाजपा सरकार को विपक्ष की नाराजगी और शांति वार्ता असफल रहने का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.

अधिकतर अन्य संपादकीयों की तरह इसमें भी आफ्सपा के तहत मिलने वाली ‘अपराध से मुक्ति’ की ओर इशारा किया गया है.

संपादकीय में कहा गया, ‘सशस्त्रबल विशेष अधिकार अधिनियम की वजह से जवाबदेही नदारद है और इसे कथित तौर पर नागरिकों की मौतों, सुनियोजित एनकाउंटर और न्यायिक हत्याओं के दोषी सैन्यकर्मियों को बचाने के लिए एक कानूनी ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.’

संपादकीय में कहा गया, नागरिक क्षेत्रों में सेना की तैनाती को लेकर भी बहस होनी चाहिए.

इंडियन एक्सप्रेस ने अपने संपादकीय में कहा सावधानी बरतने का आह्वान किया। यह एकमात्र अंग्रेजी का अग्रणी अखबार रहा, जिसके संपादकीय में आफ्सपा का जिक्र नहीं किया गया.

संपादकीय में केंद्र सरकार से मृतकों और शोकाकुल परिवारों तक पहुंचने और स्थानीय आबादी एवं सरकारी एजेंसियों के बीच विश्वास के उल्लंघन को सुलझाने की दिशा में तेजी से काम करने की बात की गई. साथ ही राजनीतिक दलों, सामुदायिक नेताओं और सुरक्षाबलों से शांत रहने को कहा गया है.

मालूम हो कि नगालैंड के मोन जिले के ओटिंग और तिरु गांवों के बीच यह घटना हुई. गोलीबारी की पहली घटना तब हुई जब चार दिसंबर की शाम कुछ कोयला खदान के मजदूर एक पिकअप वैन में सवार होकर घर लौट रहे थे.

इस घटना के बाद से पूर्वोत्तर से सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम, 1958 यानी आफस्पा को वापस लेने की मांग एक बार फिर जोर पकड़ने लगी है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)