विधानसभा चुनाव: … आज अचानक हम पे जो हैं मेहरबान, इनसे पूछो ये आज तक थे कहां

चुनावी बातें: चुनावों का मौसम आते ही बुज़ुर्ग कई ऐसे पुराने क़िस्से सुनाते हैं, जो लोकतंत्र के इस त्योहार पर पैने कटाक्ष से लगते हैं. बताते हैं कि एक बार भारतेंदु हरिश्चंद्र जब बस्ती पहुंचे, तो बोले- बस्ती को बस्ती कहूं तो काको कहूं उजाड़! हर्रैया क़स्बे में बालूशाही खाई तो पूछने से नहीं चूके कि उसमें कितना बालू है, वो कितनी शाही है.

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(प्रतीकात्मक फोटो, साभार: फेसबुक)

चुनावी बातें: चुनावों का मौसम आते ही बुज़ुर्ग कई ऐसे पुराने क़िस्से सुनाते हैं, जो लोकतंत्र के इस त्योहार पर पैने कटाक्ष से लगते हैं. बताते हैं कि एक बार भारतेंदु हरिश्चंद्र जब बस्ती पहुंचे, तो बोले- बस्ती को बस्ती कहूं तो काको कहूं उजाड़! हर्रैया क़स्बे में बालूशाही खाई तो पूछने से नहीं चूके कि उसमें कितना बालू है, वो कितनी शाही है.

(प्रतीकात्मक फोटो, साभार: फेसबुक)

कसमें, वादे, प्यार, वफा सब बातें हैं, बातों का क्या!  1967 में आई फिल्म ‘उपकार’ का यह गीत भले ही पुराना पड़ चुका है, लेकिन जब चुनावों में नेताओं के वादों व वादाखिलाफियों के चर्चे आम होते हैं तो इसे मजे लेकर गाया और गुनगुनाया जाता है.

उत्तर प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनाव भी इसका अपवाद नहीं हैं, जिनमें ऐसे वादों व वादाखिलाफियों से आजिज सयाने लोग इस गीत की मिसाल देकर उन्हें कतई गंभीरता से न लेने और सिर झटककर भुला देने की ‘नेक सलाह’ दे रहे हैं. अलबत्ता, कहना मुश्किल है कि मतदाता उनकी सलाह को कितना मानेंगे, क्योंकि कई फिल्मी गीत उन्हें दूसरी तरह की सलाहें भी दे रहे हैं.

मसलन, 1987 में आई फिल्म ‘प्रतिघात’ के बहुचर्चित ‘हमरे बलमा बेईमान’ वाले गीत के ये शुरुआती बोल- ‘आज अचानक हमपे जो हैं मेहरबान… इनसे पूछो ये आज तक थे कहां… कैसे आई इनको हमरी याद जी… अरे रहमदिल क्यों कर हुए जल्लाद जी?’

लेकिन फिल्मों की छोड़िये, उत्तर प्रदेश के गांवों-कस्बों में जो चुनावी किस्से परंपरागत रूप से चले आ रहे हैं, और जरा-सा छेड़ दिए जाने पर बड़े-बुजुर्ग जिन्हें रुचिपूर्वक सुनाने लग जाते हैं, उनमें इन वादों व वादाखिलाफियों पर ही नहीं, उन पर चढ़ने वाले चुनाव के नशे पर इतने गहरे तंज हैं कि उनके आईने में नेताओं की छवि पुलिस वालों की छवि से भी खराब नजर आती है.

इसकी एक बड़ी मिसाल है जनमानस में लोकगीत की तरह प्रचलित किसी कवि की ये पंक्तियां, जिनमें एक वादाखिलाफ नेता बेहद ढिठाई से खुद पर चढ़े चुनावी नशे को कुबूल कर रहा हैः ‘सड़क पक्की करा दूंगा, कहा होगा… काम नक्की करा दूंगा, कहा होगा… अब नशे की बात का एतबार भी क्या, इलेक्शन के नशे में था कहा होगा…’

आपको ताज्जुब होगा कि चुनाव के इस नशे का खुमार उस बस्ती शहर तक में कुछ कम नहीं होता, जो कभी इतना उजड़ा-उजड़ा सा था कि वरिष्ठ साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र वहां गए, तो सवाल कर डाला था कि बस्ती को बस्ती कहूं तो काको कहूं उजाड़!

उन्होंने वहां के हर्रैया कस्बे में बालूशाही खाई तो भी व्यंग्यपूर्वक पूछने से नहीं चूके थे कि उसमें कितना बालू है और वह कितनी शाही है?

वहां के बुजुर्ग कई ऐसे पुराने चुनावी किस्से सुनाते हैं, जो हमारे ‘दुनिया के महानतम’ लोकतंत्र पर किसी झन्नाटेदार टिप्पणी से कम नहीं लगते. ऐसा ही एक किस्सा सुनिए.

बस्ती जिले के किसी विधानसभा क्षेत्र में एक बहुत बड़ा तालाब था. कभी किसी राजा ने जल संग्रह के लिए खुदवाया होगा. नई सभ्यता में निष्प्रयोज्य (उपयोग में न आने लायक) होने के बाद वह धीरे-धीरे करके पटने लगा और उसकी गहराई बहुत घट गई, तो संयोग ऐसा कि इलाके में कुछ ज्यादा ही बाढ़ आने लगी.

तब उस तालाब को गहरा कराने की मांग की जाने लगी, ताकि बाढ़ की समस्या का समाधान हो सके. कुछ ग्रामीण यह मांग लेकर क्षेत्रीय विधायक के पास गये तो उसने तालाब गहरा करा देने का वादा तो कर लिया, पर बाद में भूल गया. उन दिनों विधायक निधि भी नहीं होती थी.

इसके कुछ ही दिनों बाद प्रदेश की विधानसभा के चुनाव हुए तो उसकी वादाखिलाफी चुनाव का मुद्दा बन गई. ग्रामीण पहले से ही गुस्से में थे. इसलिए, इस मुद्दे पर वोट भी खूब बरसे और उसका प्रतिद्वंद्वी जीत गया. फिर क्या था, उसने दौड़-धूप कर किसी योजना के तहत तालाब को गहरा करने के लिए भारी-भरकम धनराशि स्वीकृत कराई और कुछ कराए बिना ही उसकी बंदरबांट करा डाली.

अगली बार के चुनाव में उसका यह घपला बड़ा मुद्दा बनकर उभरा और इस घपले की जांच कराकर दोषियों को सजा दिलाने का वादा करने वाला प्रत्याशी जीत गया. उसने जांच कराने का वादा निभाया भी.

लेकिन, घपला करने वाला पूर्व विधायक भी अपने-आप में एक ही था. रात के अंधेरे में नये विधायक के पास गया और बोला, ‘मैं तो समझता था कि चुनाव जीतने के बाद तुम ठीक से राजनीति करना सीख गए होंगे, पर तुम तो अभी भी निरे बुद्धू ही हो. अरे भाई, जांच कराकर क्या पाओगे? मैं फंसने से रहा, क्योंकि इतना अहमक नहीं हूं कि घोटाला करूंगा और लिखत-पढ़त में सबूत छोड़ जाऊंगा कि तुम चुनाव जीत कर आओ, जांच कराओ और मुझे सजा दिलवा दो. भाई मेरे! मेरा कहा मानो, मैंने तालाब गहरा करवाने के लिए योजना स्वीकृत कराई थी. अब तुम कहो कि तालाब गहरा करने से कहीं ज्यादा बड़ी समस्या खड़ी हो गई है, इसलिए उसे फिर से उथला करने की जरूरत है. फिर इसके लिए धन स्वीकृत करा लाओ और मेरी ही तरह मौज उड़ाओ.’

क़िस्सा-कोताह, वही हुआ. तालाब न गहरा हुआ, न उथला. मगर दो-दो बार ऐसा करने की योजनाएं बनीं और उन पर सरकारी धन स्वाहा किया गया.

बेचारे मतदाता क्या करते? किसी न किसी को तो उन्हें वोट देना और जिताना ही था. सो, आगे भी चुनाव होते रहे, दल, मोर्चे और प्रत्याशी जीतते-हारते रहे और सब कुछ पहले की तरह चलता रहा.

ऐसा ही एक और किस्सा. देश-विदेश के विश्वविद्यालयों से पढ़-लिखकर घर लौटे एक तालुकेदार के नौजवान बेटे के अपने देश व समाज की सेवा करने के ‘जुनून’ ने उसे थोड़ी लोकप्रियता हासिल करा दी तो एक पार्टी ने उसे बिना मांगे ही विधानसभा चुनाव का टिकट दे दिया.

अभी उसके दिल पर राजनीति का मैल ज्यादा नहीं चढ़ा था, इसलिए टिकट मिलते ही उसने जीतने के बाद ताबड़तोड़ कई बदलावों के सपने देख डाले. लेकिन, जब प्रचार करने निकला और दूरदराज के एक गांव में पहुंचा तो उसके अरमानों पर बिजली गिर पड़ी. मतदाता उसके पास आए और पूछने लगे कि वह उनके लिए क्या-क्या लाया है?

कई बुजुर्ग तो आगे बढ़कर उसकी जेबें वगैरह भी टटोलने लगे. उसने कहा कि लाया तो मैं कुछ नहीं हूं, वोट मांगने आया हूं. हां, वादा करता हूं कि आपने मुझे वोट दिया तो आपको धोखा नहीं होगा. जी-जान से आपकी सेवा करूंगा.

लेकिन, मतदाता संतुष्ट नहीं हुए. पूछने लगे कि कुछ लाया ही नहीं है तो वोट कैसे पायेगा, जीतेगा कैसे? मुफ्त में तो हम वोट देने से रहे. आज तक कभी किसी को नहीं दिया.

बात दरअसल यह थी कि उस दिन तक उस गांव में जो भी प्रत्याशी गया, उसने ग्रामीणों को उनके वोट के बदले कुछ न कुछ नकद-नारायण दिया था. इसके चलते ग्रामीणों ने नियम बना लिया था कि जब भी वोट का मौसम आए, तो जो प्रत्याशी सबसे पहले आकर उनके वोट की कीमत अदा कर जाए, मतदान केंद्र पर जाकर उसे ही वोट दिया जाए.

उनको इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता था और उनके लिए चुनाव पांच सालों में एक बार आने वाले त्योहार में बदल गया था. बताने की जरूरत नहीं कि इसके बाद उस नौजवान प्रत्याशी के बदलाव के अरमानों के होश किस तरह ठिकाने आ गए.

आखिर में 1962 के आम चुनाव का एक ऐसा किस्सा, जो किस्सा कम वाकया ज्यादा है.

इसकी नजीर भी कि किस तरह कई बार चुनावों के नतीजे मतदाताओं की अशिक्षा, अपरिपक्वता और अज्ञान द्वारा निर्धारित हो जाते हैं. उस चुनाव में भारतीय जनसंघ के तत्कालीन युवा नेता अटलबिहारी वाजपेयी बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से मैदान में उतरे तो कांग्रेस की महिला प्रत्याशी सुभद्रा जोशी से दो हजार वोटों के मामूली अंतर से हार गए थे.

इस हार के पीछे उनकी लोकसभा सीट के गैसड़ी विधानसभा क्षेत्र के थारू जनजाति के मतदाताओं के अज्ञान ने बड़ी भूमिका निभाई थी. दरअससल, तब लोकसभा व विधानसभा चुनाव साथ-साथ होते थे. मत पत्रों की मार्फत और मतदाताओं को अलग-अलग दो मतपत्रों पर मोहरें लगानी पड़ती थी. दोनों मतपत्रों के रंग तो अलग होते ही थे, प्रत्याशियों की संख्या के अनुसार उनके आकार अलग-अलग होते थे.

उस चुनाव में बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से अटल बिहारी वाजपेयी और सुभद्रा जोशी कुल दो ही प्रत्याशी थे, जिस कारण उसका मतपत्र बहुत छोटा था, जबकि उसी के अंतर्गत आने वाले गैसड़ी विधानसभा क्षेत्र में प्रत्याशियों की बहुतायत के कारण मतपत्र का आकार अपेक्षाकृत बहुत बड़ा था.

इस विधानसभा क्षेत्र में थारू जनजाति के मतदाताओं की बहुतायत है. वे मतदान करने आए तो यह स्वीकार ही नहीं कर पाए कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे तेज तर्रार युवा नेता का मतपत्र छोटा और दूसरे किसी नेता का उनसे बड़ा हो सकता है.

इस कारण उन्होंने गैसड़ी विधानसभा क्षेत्र के बड़े मतपत्र को अटल का मतपत्र समझा और उसमें जनसंघ के दीपक निशान पर खूब मोहरें लगाईं, जबकि बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र के छोटे मत पत्र को तवज्जो ही नहीं दी. किसी ने बताना भी कि चाहा कि अटल का मतपत्र छोटा वाला है तो समझा कि वह उन्हें बहका रहा है.

फल यह हुआ कि गैसड़ी विधानसभा क्षेत्र के जनसंघ के प्रत्याशी सरदार बलदेव सिंह अपने कांग्रेसी प्रतिद्वंद्वी से भारी अंतर से जीत गए, जबकि उनके क्षेत्र में अटल बिहारी वाजपेयी को इतने कम वोट मिले कि उन्हें दूसरे विधानसभा क्षेत्रों में मिली बढ़त भी कुछ काम नहीं आई. वे कुल मिलाकर 2000 वोटों से हार गए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)