आम नागरिकों का नफ़रत के ख़िलाफ़ खड़े होना आश्वस्त करता है कि घृणा हारेगी

देश में जहां एक तरफ नफ़रत के पैरोकार सांप्रदायिकता की खाई गहरी करने के फेर में हैं, वहीं उनकी भड़काने और उकसाने की तमाम कोशिशों के बावजूद आम देशवासी सांप्रदायिक आधार पर एक दूजे के खून के प्यासे नहीं हो रहे, बल्कि उनके मंसूबों को समझकर जीवन के नए समतल तलाशने की ओर बढ़ने लगे हैं.

/
जहांगीरपुरी में निकली तिरंगा यात्रा. (फोटो: पीटीआई)

देश में जहां एक तरफ नफ़रत के पैरोकार सांप्रदायिकता की खाई गहरी करने के फेर में हैं, वहीं उनकी भड़काने और उकसाने की तमाम कोशिशों के बावजूद आम देशवासी सांप्रदायिक आधार पर एक दूजे के खून के प्यासे नहीं हो रहे, बल्कि उनके मंसूबों को समझकर जीवन के नए समतल तलाशने की ओर बढ़ने लगे हैं.

जहांगीरपुरी में निकली तिरंगा यात्रा. (फोटो: पीटीआई)

क्या नाना प्रकार के नफरत के खेलों से त्रस्त इस देश के मुस्कुराने के दिन आने वाले हैं? उम्मीद तो जाग रही है. क्योंकि एक ओर नफरत के पैरोकार लाल किले तक को नफरत का प्रतीक बनाने पर आमादा हैं तो दूसरी ओर देशवासियों ने न सिर्फ अपने धैर्य को असीम कर लिया है बल्कि उनके खिलाफ आवाज उठाना और उनके मंसूबों को पानी पिलाना भी शुरू कर दिया है.

निस्संदेह, हमें इन प्रतिरोधी आवाजों को ठीक से समझने, उम्मीद के साथ देखने और उनके सुर में सुर मिलाने की जरूरत है.

इस देश के पास लाल किले को याद करने की प्रेरणास्पद वजहों की कभी कोई कमी नहीं रही. मुगल बादशाह शाहजहां के वक्त 1638 से 1649 के बीच 254. 67 एकड़ भूमि में निर्मित यह किला जहां कई विदेशी आक्रमणों का, वहीं हमारे स्वतंत्रता संग्राम का भी साक्षी रहा है. हां, 1739 की उस काली घड़ी का भी, जब बर्बर हमलावर नादिरशाह भीषण कत्लोगारत के बीच उसका कोहनूर जड़ा तख्त-ए-ताऊस लूटकर उसे श्रीहीन कर गया था.

1857 के उस अमर पल का भी, जब मेरठ से आए बागी सैनिकों की इल्तिजा पर आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने पहले स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व स्वीकार किया था. वह संग्राम विफल हुआ तो अभागे जफर रंगून निर्वासित होने तक इसी किले में कैद भी रहे. लेकिन जफर तो जफर, खुद अंग्रेज इस किले को भारतीय राष्ट्रीय अस्मिता का ऐसा प्रतीक मानते थे कि जब तक इस पर यूनियन जैक नहीं फहरा, वे खुद को भारत का शासक नहीं मान पाए थे.

1945 में उन्होंने नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सेनानियों व सैनिकों के खिलाफ इस किले में ही मुकदमा चलाया, जो अंततः ‘लाल किले से आई आवाज-सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज’ जैसे नारे तक जा पहुंचा था.

पंद्रह अगस्त, 1947 को आजादी हासिल हुई और अगले दिन पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस किले की प्राचीर पर पहला तिरंगा फहराया तो देश के हर्ष का पारावार नहीं रहा था. तब से हर 15 अगस्त को प्रधानमंत्रियों द्वारा इस पर तिरंगा फहराने की परंपरा अब तक अटूट है.

लेकिन अब सत्ताधीशों की खुल्लमखुल्ला शह प्राप्त नफरत के पैरोकारों को ये यादें अपने खेलों के लिए मुफीद नहीं लग रहीं. वैसे भी नफरत के सफर को दुश्मनी की याद दिलातीं और बदला लेने के लिए उकसाती यादें ही खुशगवार बनाती हैं. इसलिए वे यह याद दिलाने पर उतर आए हैं कि यह वह किला है, जहां मुगल बादशाह औरंगजेब ने 1675 में सिखों के नवें गुरु- गुरु तेगबहादुर के विरुद्ध ‘फरमान’ जारी किया था, खूब सताए जाने के बाद जिनका सिर उनके धड़ से अलग कर दिया गया था.

यही याद दिलाने के लिए पिछले दिनों केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय द्वारा दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के साथ किले के लाॅन में गुरु तेगबहादुर का 400वां प्रकाशपर्व आयोजित करके धार्मिक कार्यक्रमों के लिए उसके इस्तेमाल की परंपरा डाल दी गई.

हालांकि किले के पास ही चांदनी चौक स्थित गुरुद्वारा सीसगंज साहिब इस आयोजन के लिए ज्यादा मौजूं था, जहां गुरु का सिर काटा गया था. लेकिन कहते हैं कि संस्कृति मंत्रालय समझता था कि वहां समारोह हुआ तो उसका यह ‘अभीष्ट’ पूरा नहीं होगा कि लाल किले को सिख-मुगल दुश्मनी से जोड़कर स्वतंत्रता संघर्ष के साझा मूल्यों के प्रतीक वाली उसकी पहचान बदल या धूमिल कर दी जाए!

कौन कह सकता है कि राजशाहियां या बादशाहियां, वे किसी भी धर्म या संप्रदाय की क्यों न रही हों, अपने दौर में अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए क्रूरता पर नहीं उतरती थीं या कत्लोगारत, अन्याय, अत्याचार, शोषण और दमन से परहेज रखती थीं. परहेज रखतीं तो हमारे इतिहास में सिर काटने और तलवारें भोंकने के वाकये होते ही नहीं.

पर इसी के साथ यह भी कौन कह सकता है कि आज, जब हमने उन राजशाहियों व बादशाहियों को इतिहास में दफन कर दिया है, उनके किसी भी कृत्य को दो समुदायों की दुश्मनी के तौर पर याद करके उनके वर्तमान से बदला चुकाने की इजाजत दी जानी चाहिए?

लेकिन हम खुश हो सकते हैं कि जब नफरत के पैरोकार ऐसी सारी समझदारियों को दरकिनार करने के फेर में हैं, उनकी भड़काने, भरमाने और उकसाने की तमाम कोशिशों के बावजूद आम देशवासी धार्मिक या सांप्रदायिक आधार पर एक दूजे के खून के प्यासे नहीं हो रहे, बल्कि उनके मंसूबों को समझकर जीवन के नए समतल तलाशने की ओर बढ़ने लगे हैं.

उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा कि खुद को धर्माधीश कहने वाले कुछ महानुभाव किसी धार्मिक समुदाय के नरसंहार के आह्वान तक जा पहुंचे हैं, जबकि बुलडोजरों की संस्कृति देश के लोकतंत्र को नए सिरे से परिभाषित करने लगी है.

फिलहाल, इस सिलसिले में सबसे अच्छी खबरें गत हनुमान जयंती पर सांप्रदायिक हिंसा और उसके बाद सरकारी बुलडोजरों के दो पाटों के बीच पिसने को मजबूर दी गई राजधानी दिल्ली की जहांगीरपुरी से ही आ रही हैं.

वहां के हिंदू, मुसलमानों ने सद्भावना बैठक करके न सिर्फ अपने गिले-शिकवे दूर कर लिए हैं बल्कि संकल्प लिया है कि जैसे हनुमान जयंती के बवाल से पहले कंधे से कंधा मिलाकर रहते थे, आगे भी वैसे ही रहेंगे. गत रविवार की साझा तिरंगा यात्रा में भी उन्होंने अपने इस संकल्प को मजबूत किया.

दूसरी ओर कर्नाटक में परंपरागत सद्भाव कायम रखने के धार्मिक संगठनों व आम लोगों के प्रयास यों रंग ला रहे हैं कि मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने को लेकर फैलाए गए वितंडे और मंदिरों के मेलों में मुस्लिमों के कारोबार पर रोक के ‘आह्वानों’ की हवा-सी निकल गई है.

बेल्लूर और बेंगलुरु आदि के सैकड़ों साल पुराने मंदिरों के रिवाजों, रस्मों व मेलों में हिंदू-मुसलमान पहले की ही तरह अपनी परंपराओं के उत्सव मना रहे हैं.

पिछले दिनों बेल्लूर के चेन्नाकेशव मंदिर में भगवान विष्णु की रथयात्रा निकली तो हासन जिले की दोड्डामेदुर मस्जिद के मौलवी सैयद सज्जाद काजी हरे रंग की पगड़ी बांधे रथ के पहियों के बगल में ही एक चौकी पर खड़े कुरान की आयतें पढ़ते रहे.

कोरोना के कारण दो साल टलने के बाद हुए करगा उत्सव में भी राज्य में ऐसे ही गंगा-जमुनी नजारे दिखे. परंपरा के अनुसार श्रद्धालुओं ने इस बार भी हजरत तवक्कल मस्तान बाबा की दरगाह पर रुककर अपना करगा कुछ समय के लिए वहां रखा. पुजारियों का एक दल दरगाह के मौलवियों के निमंत्रण पर पहले ही वहां जा पहुंचा था और दोनों समुदायों के लोग एक-दूसरे को शुभकामनाएं दे और प्रार्थनाएं कर रहे थे.

हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं की दरगाह के पड़ाव पर करगा न रखने की अपील को कान देने वाला तो कोई था ही नहीं. इसकी खुशी इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि धार्मिक आधार पर नफरत बरतने की शातिर अपीलों की अवज्ञा का जोखिम आम लोग ही नहीं उठा रहे.

पिछले दिनों महिला व्यवसायी और बायोकॉन की संस्थापक किरण मजूमदार शॉ ने यह जोखिम उठाकर सत्ताधीशों को चेताया था कि देश का टेक्नोलॉजी सेक्टर भी उस ‘धार्मिक बंटवारे’ का शिकार हुआ, जिसे वे शह दे रहे हैं, तो सेक्टर में देश की वैश्विक लीडरशिप ध्वस्त हो जाएगी.

अब इस सिलसिले में पई कड़ी जोड़ते हुए फर्नीचर डिजाइनर कुणाल मर्चेंट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए मेज डिजाइन करने के सरकारी प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया है कि आगामी इतिहास में वे उस तरह नहीं देखे जाना चाहते, जिस तरह आज हिटलर के वक्त उसका समर्थन अथवा नाजी के तौर पर उसके लिए काम करने वालों को देखा जाता है.

कुणाल ने अपने जवाब में लिखा है: जो पूर्वाग्रही, नफरती, अनन्य और नस्लवादी भारत आप बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह अतीत में कभी अस्तित्व में नहीं था….मेरा भारत धर्मनिरपेक्ष, सबको साथ लेकर चलने वाला, समावेशी, सहनशील और एक सभ्यतागत शक्ति है, जिसका 7000 साल का बाहर से आने वाले लोगों को स्वीकारने और खुद में समाहित करने का रिकॉर्ड रहा है….मैं ऐसी सरकार के मुखिया के लिए एक ऐसी मेज की डिजाइन तैयार करने में खुद को नैतिक रूप से अक्षम पा रहा हूं, जिस पर अल्पसंख्यकों को और भी अलग-थलग करने और अधिकारों से वंचित करने के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कानूनों और नीतियों को तैयार किया जाएगा.

उन्होंने यह भी लिखा है कि ऐसे में पीएमओ के लिए मेज का निर्माण मेरी ओर से अपने दोस्तों, परिवार और कर्मचारियों को धोखा देने व अपमानित करने जैसा होगा, जो कमजोर पृष्ठभूमि से आते हैं, अल्पसंख्यक हैं, एलजीबीटीक्यू समुदाय का हिस्सा हैं, या दलित हैं और अनुसूचित जातियों से आते हैं.

यह कहना कठिन है कि कुणाल के इस जवाब से किसी भी स्तर पर कोई सीख ली जाएगी या नहीं, लेकिन कर्नाटक समेत देश के कई भागों में उनके व किरण मजूमदार शाॅ जैसे कारोबारियों और आम नागरिकों द्वारा नफरत की काली आंधी का यह प्रतिरोध आश्वस्त करता है कि अंततः वह हारेगी और सद्भाव की हवाएं देश के भविष्य का मौसम निर्धारित करेंगी.

फैज अहमद फैज ये शब्द यों ही नहीं लिख गए हैं: यूं ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्क, न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई. यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल, न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq bandarqq dominoqq pkv games slot pulsa pkv games pkv games bandarqq bandarqq dominoqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq