नई दिल्ली: साकेत जिला न्यायालय ने मंगलवार को एक दीवानी न्यायाधीश के आदेश के खिलाफ अपील पर अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया, जिसमें कुतुब मीनार परिसर में कथित तौर पर मौजूद एक मंदिर को बहाल करने की मांग को खारिज कर दिया गया था.
इस याचिका में दावा किया गया है कि क़ुतुब कॉम्प्लेक्स के अंदर स्थित कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद उस जगह पर बनाई गई, जो कभी मंदिर परिसर हुआ करता था.
लाइव लॉ के अनुसार, अतिरिक्त जिला जज निखिल चोपड़ा ने मामले में जिरह खत्म करते हुए कहा कि आदेश नौ जून को दिया जाएगा.
मूल मुकदमे में याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि 1187 में लगभग 27 जैन और हिंदू मंदिरों को मस्जिद, जो अब कुतुब मीनार परिसर में है, के लिए रास्ता बनाने के लिए हटा दिया गया था .
दीवानी न्यायाधीश ने यह कहते हुए इस मामले को खारिज कर दिया था कि यह याचिका उपासना स्थल अधिनियम, 1991 के खिलाफ थी. अधिनियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में सभी धार्मिक स्थलों की प्रकृति वही बनी रहनी चाहिए जो 15 अगस्त, 1947 को थी.
अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने पहले याचिकाकर्ताओं से सवाल किया था कि उन्हें अब इस स्थान पर पूजा करने का अधिकार कैसे मिला. लाइव लॉ के अनुसार, उन्होंने कहा:
‘सवाल यह है कि क्या पूजा का अधिकार एक स्थापित अधिकार है, क्या यह संवैधानिक या कोई अन्य अधिकार है? एकमात्र सवाल यह है कि क्या अपीलकर्ता को किसी कानूनी अधिकार से वंचित किया गया है? और इस अधिकार के संबंध में यदि कोई उपाय उपलब्ध हैं तो वह क्या हैं?’
यदि यह मान भी लिया जाए कि इसे गिरा दिया गया था, और एक ढांचा खड़ा कर दिया गया, यह भी मान लें कि इसे मुसलमानों ने मस्जिद के रूप में इस्तेमाल नहीं किया, तब भी जो सवाल अधिक महत्वपूर्ण है, वो यह है कि क्या अब आप इसे किस आधार पर बहाल करने का दावा कर सकते हैं?
अब आप चाहते हैं कि इस स्मारक को रेस्टोरेशन (जीर्णोद्धार) कहकर मंदिर में तब्दील कर दिया जाए, मेरा सवाल यह है कि आप यह कैसे दावा करेंगे कि वादी को यह मानने का कानूनी अधिकार है कि यह लगभग 800 साल पहले मौजूद था? हल्के अंदाज़ में कहूं तो देवता पिछले 800 वर्षों से बिना पूजा के जीवित हैं. उन्हें ऐसे ही जीने दें.’
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने भी मंगलवार को अदालत को बताया कि भले ही यह सच है कि कुतुब मीनार परिसर के निर्माण में हिंदू और जैन देवताओं की स्थापत्य छवियों (architectural images) का इस्तेमाल किया गया था, वहां पूजा बहाल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि ‘स्मारक के संरक्षण के समय ऐसा नहीं किया जाता था’ और ‘जमीन की स्थिति को लेकर उल्लंघन कर मौलिक अधिकार का लाभ नहीं उठाया जा सकता.’
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, एएसआई द्वारा दाखिल जवाब में कहा गया, ‘जमीन की स्थिति संबंधी उल्लंघन कर मौलिक अधिकार का लाभ नहीं लिया जा सकता है. संरक्षण का मूल सिद्धांत प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत घोषित और संरक्षित स्मारक में किसी भी नई प्रथा को शुरू करने की अनुमति नहीं देना है. पूजा बहाल करने की अनुमति नहीं है अगर स्मारक को संरक्षित करते समय ऐसा नहीं हो रहा था.’
एएसआई ने आगे कहा, ‘प्रतिवादी या इस संरक्षित स्मारक में पूजा करने के मौलिक अधिकार का दावा करने वाले किसी अन्य व्यक्ति के तर्क से सहमत होना प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के प्रावधानों के विपरीत होगा.’
उल्लेखनीय है कि इससे पहले पिछले महीने दिल्ली की ही एक अदालत ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को अगले आदेश तक कुतुब मीनार परिसर से भगवान गणेश की दो मूर्तियों को नहीं हटाने के आदेश दिए थे.
एक याचिका में कहा गया था कि प्राचीन काल से परिसर में भगवान गणेश की दो मूर्तियां हैं और उन्हें आशंका है कि एएसआई उन्हें केवल कलाकृतियां मानते हुए किसी राष्ट्रीय संग्रहालय में भेज सकता है.
अप्रैल महीने में ही विश्व हिंदू परिषद ने मांग की थी कि सरकार कुतुब मीनार परिसर में सभी 27 हिंदू मंदिरों का पुनर्निर्माण कराए और हिंदू अनुष्ठानों को फिर से शुरू करने की अनुमति दे.
इसके बाद एएसआई के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक बीआर मणि ने परिषद के इस दावे को ‘कपोल कल्पना’ करार दिया था कि कुतुब मीनार मूल रूप से एक ‘विष्णु स्तंभ’ था.
उन्होंने यह भी कहा था कि परिसर में संरचनाओं के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ के परिणामस्वरूप 1993 में यूनेस्को द्वारा मिला विश्व धरोहर का दर्जा रद्द कर दिया जाएगा.