वन संरक्षण अधिनियम में बदलाव, केंद्र वनवासियों की सहमति बिना पेड़ काटने की दे सकता है मंज़ूरी

वन संरक्षण अधिनियम-2022 के तहत लागू नए नियम बुनियादी ढांचे और विकास परियोजनाओं के लिए वन भूमि को डाइवर्ट करने की प्रक्रिया को सरल और संक्षिप्त बनाएंगे. इन नियमों के तहत जंगल काटने से पहले अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासी समुदायों से सहमति प्राप्त करने की ज़िम्मेदारी अब राज्य सरकार की होगी, जो कि पहले केंद्र सरकार के लिए अनिवार्य थी.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

वन संरक्षण अधिनियम-2022 के तहत लागू नए नियम बुनियादी ढांचे और विकास परियोजनाओं के लिए वन भूमि को डाइवर्ट करने की प्रक्रिया को सरल और संक्षिप्त बनाएंगे. इन नियमों के तहत जंगल काटने से पहले अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासी समुदायों से सहमति प्राप्त करने की ज़िम्मेदारी अब राज्य सरकार की होगी, जो कि पहले केंद्र सरकार के लिए अनिवार्य थी.

प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: केंद्र सरकार द्वारा जंगलों को काटने के संबंध में नए नियम अधिसूचित किए गए हैं, जो निजी डेवलपर्स को बिना वनवासियों की सहमति लिए जंगल काटने की अनुमति देते हैं. यह एक ऐसा बदलाव है, जो वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करता है.

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने बीते 28 जून को 2003 में लाए गए वन संरक्षण अधिनियम की जगह वन संरक्षण अधिनियम 2022 को अधिसूचित किया है.

जैसा कि रिपोर्टों में उल्लेख किया गया है, नए नियम बुनियादी ढांचे और विकास परियोजनाओं के लिए वन भूमि को डाइवर्ट करने की प्रक्रिया को सरल और संक्षिप्त बनाएंगे तथा क्षतिपूरक वनीकरण (Compensatory Afforestation) के लिए भूमि की उपलब्धता को आसान बनाएंगे.

अब समाचार वेबसाइट न्यूजलॉन्ड्री ने एक और महत्वपूर्ण बदलाव पर रिपोर्ट की है, जिसे नियम प्रभावित करेंगे. नियमों के तहत जंगल काटने से पहले अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासी समुदायों से सहमति प्राप्त करने की जिम्मेदारी अब राज्य सरकार की होगी, जो कि पहले केंद्र सरकार के लिए अनिवार्य थी.

पुराने नियमों के तहत वन भूमि को निजी परियोजनाओं के लिए सौंपे जाने की मंजूरी देने से पहले केंद्र सरकार को वनवासी समुदायों की सहमति को सत्यापित करने की जरूरत होती थी.

लेकिन अब, पहले जंगल को सौंपने की मंजूरी दी जा सकती है और क्षतिपूरक वनीकरण के लिए निजी डेवलपर्स से भुगतान ले सकते हैं. यह सब राज्य सरकार द्वारा वनवासियों के अधिकारों का निपटान करने और परियोजना के लिए उनकी स्वीकृति सुनिश्चित करने से पहले ही हो जाएगा.

नियमों के मुताबिक, किसी परियोजना के लिए अनुपालन रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद केंद्र सरकार वन संरक्षण अधिनियम की धारा 2 के तहत अंतिम मंजूरी दे सकती है. इसके बाद यह राज्य सरकार या केंद्रशासित प्रदेश के प्रशासन को निर्णय के बारे में बताएगी.

तब राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन को यह सुनिश्चित करना होगा कि परियोजना वन अधिकार अधिनियम समेत अन्य सभी अधिनियमों और नियमों के प्रावधानों को पूरा करती है और उनका अनुपालन करती है, मतलब कि वन अधिकारों का निपटान और पुनर्वास करती है. इसके बाद डाइवर्जन, लीज समझौते या वनभूमि को अनारक्षित करने के आदेश होंगे.

न्यूजलॉन्ड्री के मुताबिक, यह बदलाव वन अधिकार कानून का उल्लंघन करता है, जिसके तहत सरकारों को वनवासियों की पारंपरिक भूमि पर परियोजना की मंजूरी देने से पहले उनकी सहमति लेनी होती थी.

रिपोर्ट कहती है कि वेदांता केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी इसी प्रक्रिया का समर्थन करता है.

वन अधिकार अधिनियम की देख-रेख करने वाले आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने दिसंबर 2015 में सुझाव दिया था कि अंतिम मंजूरी जारी करने से पहले वनवासी समुदायों की सहमति को ध्यान में रखा जाना चाहिए.

न्यूज़लॉन्ड्री के अनुसार, आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने कहा था, ‘यह भी महत्वपूर्ण है कि वन अधिकार अधिनियम के तहत दावों के समर्थन में मौजूदा सबूतों के संभावित तौर पर नष्ट होने या उनके साथ छेड़छाड़ को रोकने के लिए (अंतिम) मंजूरी से पहले अधिकारों की पहचान पूरी की जाए.’

मंत्रालय ने तर्क दिया था कि अगर अंतिम मंजूरी देने के बाद ग्राम सभा से संपर्क किया जाता है तो यह ग्राम सभा की भूमिका को अप्रासंगिक बना देगा, क्योंकि मंजूरी तो पहले ही मिल चुकी होगी.

बहरहाल, केंद्र सरकार ने पर्यावरण संरक्षण से संबंधित तीन और कानूनों में भी संशोधन किया है, जो पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1986, जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम-1974 और वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम-1981 हैं.

संशोधन अपराधों को ‘साधारण उल्लंघनों के लिए कारावास के डर को दूर करने’ का करेगा. इन कानूनों के साधारण उल्लंघन पर अब जेल जाने का डर नहीं होगा, बस मोटा जुर्माना लगेगा. कानून और नीति विशेषज्ञों का मानना है कि ये संशोधन ‘प्रदूषण करो और भुगतान भरो’ वाली सोच को बढ़ावा देंगे.

नए वन संरक्षण अधिनियम, 2022 समय-सीमा भी निर्धारित करता है, जिसके भीतर एक परियोजना स्क्रीनिंग समिति द्वारा विभिन्न परियोजनाओं की समीक्षा की जानी चाहिए.

इसके अनुसार, सभी गैर-खनन परियोजनाओं, जिसका उद्देश्य 5 से 40 हेक्टेयर भूमि को डायवर्ट करना है, की समीक्षा 60 दिनों के भीतर की जानी चाहिए, जबकि खनन परियोजनाओं की 75 दिनों के भीतर समीक्षा की जानी चाहिए. 40 से 100 हेक्टेयर के बीच डायवर्ट करने वाली गैर-खनन परियोजनाओं की समीक्षा 75 दिनों के भीतर और खनन परियोजनाओं की 90 दिनों के भीतर समीक्षा की जानी चाहिए.

इसके अलावा समिति को गैर-खनन परियोजनाओं के लिए 120 दिनों के भीतर और खनन परियोजनाओं के लिए 150 दिनों के भीतर 100 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि को डायवर्ट करने वाली परियोजनाओं की समीक्षा करनी चाहिए.

नियम यह भी कहते हैं कि यदि वन भूमि ऐसे पहाड़ी या पहाड़ी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश में डाइवर्ट की जानी है, जहां इसके भौगोलिक क्षेत्र का दो-तिहाई से अधिक जंगल है, तो क्षतिपूरक वनीकरण किसी और ऐसे राज्य या केंद्रशासित प्रदेश में किया जा सकता है, जहां उसके कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20 फीसदी से कम जंगल हो.

यदि संबंधित राज्य सरकारें या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन सहमति देते हैं तो यह उन राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों की उन परियोजनाओं पर भी लागू होगा, जिनके पास अपने भौगोलिक क्षेत्र के एक तिहाई से अधिक वन क्षेत्र हैं.

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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