आज भी ‘ज़ह्हाक’ की सल्तनत में सवाल जुर्म हैं…

मोहम्मद हसन के नाटक ‘ज़ह्हाक’ में सत्ता के उस स्वरूप का खुला विरोध है जिसमें सेना, कलाकार, लेखक, पत्रकार, अदालतें और तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं सरकार की हिमायती हो जाया करती हैं. नाटक का सबसे बड़ा सवाल यही है कि मुल्क की मौजूदा सत्ता में ‘ज़ह्हाक’ कौन है? क्या हमें आज भी जवाब मालूम है?

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

मोहम्मद हसन के नाटक ‘ज़ह्हाक’ में सत्ता के उस स्वरूप का खुला विरोध है जिसमें सेना, कलाकार, लेखक, पत्रकार, अदालतें और तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं सरकार की हिमायती हो जाया करती हैं. नाटक का सबसे बड़ा सवाल यही है कि मुल्क की मौजूदा सत्ता में ‘ज़ह्हाक’ कौन है? क्या हमें आज भी जवाब मालूम है?

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

पेगासस जैसे ख़ुफ़िया सरकारी हथकंडों के दौर में अगर ‘जाम-ए-जम’ अर्थात ‘जाम-ए-जमशेद’ की चर्चा की जाए तो जाने लोग-बाग क्या अर्थ निकालें.

इसके बावजूद कि साहित्य की अभिव्यक्ति अपने समय की सियासत को कई तरह से आत्मसात करती है.

बहरहाल, मुमकिन है कई लोग ‘जाम-ए-जम’ से अनजान हों तो उनके लिए दोहरा दूं कि जैसे भारतीय पौराणिक कथाओं में अविश्वसनीय चीज़ों का वर्णन मिलता है ठीक वैसे ही ये ईरान के राजा ‘जमशेद’ का क़िस्सा है कि उसके पास एक जादुई प्याला था जिसमें वो अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ हर चीज़ का नज़ारा कर सकता था.

एक तरह से ‘जाम-ए-जम’ की शक्ल में जमशेद के पास अपनी सत्ता को ‘सुरक्षित’ रखने का हथियार था. बताया जाता है कि उसके राज्य में ख़ुशहाली थी, लेकिन एक समय आया कि उसके घमंड और अहंकार ने ‘मैं ही ख़ुदा हूं’ के अंदाज़ में ऐलान कर दिया कि दुनिया में उसके सिवा कोई राजा नहीं है.

ऐसे में अवाम उसके ख़िलाफ़ होती चली गई, फिर इसका लाभ उठाकर उसी ज़माने के एक ज़ालिम बादशाह ‘ज़ह्हाक’ ने उसके राज्य पर हमला कर दिया और उसे आरे से कटवा दिया.

इस दौरान ‘ज़ह्हाक’ के कुछ शैतानी शक्तियों के जाल में आने की वजह से उसके दोनों कंधों पर सांप उग आए, अब उसकी मुसीबत ये थी कि उन सांपों को रोज़ाना इंसानों का मग़्ज़ (भेजा) खिलाना पड़ता था वर्ना उसका चैन से रहना दूभर था.

इसी ‘ज़ह्हाक’ के बारे में बयान किया गया है कि उसने ‘जाम-ए-जम’ जैसे जादुई प्याले से भी ज़्यादा कोई तिलस्मी ‘आईना-ख़ाना’ बना लिया था, जिसकी बदौलत दूर-दूर तक कोई उसकी नज़रों से बच नहीं सकता था.

यहां शायद लगे कि ये मैं क्या बेसिर-पैर का क़िस्सा लेकर बैठ गया.

तो अर्ज़ करूं कि ये कथा मानव सभ्यता में पहले से थी और आज भी दुनिया भर की सत्ता में इसको चरितार्थ करने वाले किरदार मौजूद हैं, ये और बात है कि हम पहली बार फ़िरदौसी की कालजयी रचना ‘शाहनामा’ में इससे रूबरू होते हैं.

यहां उसी फ़िरदौसी की बात हो रही है, जिसकी कुछ कहानियां जैसे ‘रुस्तम और सोहराब’ के क़िस्से हमें स्कूल के दिनों में फ़ारसी के पाठ्यक्रम में पढ़ाए गए. बाद में इसकी और कहानियां हमने उर्दू अनुवाद के माध्यम से भी पढ़ीं, और इस तरह प्रेम, विद्रोह, विरोध, क्रूरता, वीरता, दुष्टता और मानवता के कई अद्भुत पाठ हमारी हैरानी का हिस्सा बने.

लेकिन सवाल अब भी क़ायम है कि मैं इस क़िस्से को क्यों याद कर रहा हूं. पहली बात तो ये है कि ‘ज़ह्हाक’ जो हमेशा से है आज भी उसकी सल्तनत में सवाल जुर्म है.

और उसके कंधे पर वही काले सांप हैं, जिसे हर दिन (इंसानी मग़्ज़, समकालीन संदर्भ में कहें तो सरकार से अलग राय रखने वालों शहरियों की) गिरफ़्तारियों और एफआईआर की ख़बरों से अपने ‘सुरक्षित’ होने का एहसास होता है.

और ‘ज़ह्हाक’ की तरह ही इस सत्ता की आंखें हम पर जमी हुई हैं.

दूसरी वजह भी यही है कि फ़िरदौसी की इस अमर कृति से समय-समय पर दुनिया भर के साहित्य में सत्ता के ख़िलाफ़ न सिर्फ़ अर्थ बरामद किए गए, बल्कि इसके कथावस्तु को विस्तार देते हुए एक नई रचना के माध्यम से विरोध और विद्रोह के स्वर को और भी धारदार बनाया गया.

ऐसे में नागरिक अधिकारों के हनन, मीडिया की जी-हुज़ूरी और न्यायपालिका को लेकर उठते ढेरों सवाल और अंदेशों के बीच उर्दू के प्रगतिशील लेखक मोहम्मद हसन के नाटक ‘ज़ह्हाक’ की चर्चा होनी ही चाहिए.

हसन साहब ने शुरूआती हिस्सों के अलावा पूरा नाटक आपातकाल के दौरान लिखा था, और हम उन चंद ख़ुशनसीबों में हैं जिसने इसे जेएनयू में एमए के पाठ्यक्रम में पढ़ा और यहीं उनके शागिर्दों और अपने शिक्षकों की ज़बानी इसके बारे में कई प्रसंग सुने.

हसन साहब को एक दुनिया जानती है, वो प्रगतिशील लेखकों की अगली सफ़ के आलोचक और साहित्यकार तो थे ही, साथ ही जेएनयू के ‘भारतीय भाषा केंद्र’ को बनाने और संवारने में भी उनका बड़ा योगदान था. बस इन दो इशारों से समझा जा सकता है कि हसन साहब ने इसमें आपातकाल की परतें किस तरह खोली होंगी और फ़िरदौसी के क़िस्से से किस-किस तरह के अर्थ निकाले होंगे. और आज इस पाठ की क्या अहमियत हो सकती है.

फ़िलहाल ये प्रसंग सुन लीजिए कि उस समय जेएनयू में उनके सहयोगी और हमारे दौर के विद्वान आलोचक सिद्दीकु़र्रहमान क़िदवाई ने सिर्फ़ एक एक्ट सुनने के बाद राय दी थी कि इसको लोगों के सामने पेश करना ख़तरनाक हो सकता है.

इसलिए इसका मंचन तो क्या होता यूनिवर्सिटी के ही एक बंद कमरे में इसका पाठ किया गया. उस समय कुछ लोगों की राय ये भी थी कि इसको किसी दूसरे मुल्क से काल्पनिक लेखक के नाम से छपवा दिया जाए.

आख़िर आपातकाल की ये कैसी दहशत थी, जो उस ज़माने के जेएनयू में भी एक बंद कमरे में इस नाटक को ‘दफ़न’ करने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस सिलसिले में हसन साहब की मानें तो उस समय ‘ज़बान-बंदी’ थी. अख़बार हाथ में लेते हुए ज़िल्लत का एहसास होता था, क्योंकि अख़बार झूठ का पुलिंदा होते थे.

लिखते हैं, ‘लफ़्ज़ों के अर्थ बदल गए थे. जो घटना अपनी आंखों से देखे हुए थे वो भी या तो सिरे से अख़बार में जगह ही न पाते थे या कुछ के कुछ हो जाते थे.’

हाल ये था कि उनकी साहित्यिक पत्रिका ‘असरी अदब’ तक का एक-एक लफ़्ज़ सेंसर हो रहा था.वजह शायद ये भी रही हो कि वो अपनी पत्रिका में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की खुलकर आलोचना कर चुके थे.

बहरहाल वो कहते हैं, ‘पड़ोस में रात के पिछले पहर किसी दरवाज़े पर दस्तक होती और फिर वो शख़्स कहीं नज़र न आता. कभी मालूम होता जेल चला गया. कभी मालूम होता लापता हो गया.’

एक जगह लिखते हैं; ‘ड्राइंग रूम में, बस में, सड़क पर लोग सांस रोके हुए गुज़र रहे थे कि पता नहीं कौन जासूस हो.’

ऐसे में क़िदवाई साहब ने शायद ठीक ही कहा हो कि एक ऐसे नाटक को पेश करना जोखिम भरा काम हो सकता है, जिसके कई एक्ट में सीधे-सीधे सत्ता के ख़िलाफ़ विरोध की आवाज़ें आज भी साफ़ सुनाई पड़ती हैं.

हालांकि उसी दौरान नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के कुछ पूर्व छात्र जिन्होंने ‘हम’ नाम से एक ग्रुप बनाया था, इसे स्टेज करना चाहते थे. इसलिए नाटक पर काम शुरू हुआ और उर्दू से हिंदी में लिप्यान्तरण की तैयारी भी होने लगी.

और उसी समय जेएनयू के कुछ छात्रों के एक ग्रुप ने भी विजय शंकर चौधरी की निगरानी में इसे स्टेज करने का इरादा किया. लेकिन बात फिर उस समय की ‘ज़बान-बंदी’ पर आकर ठहर गई.

उस समय की दहशत अपनी जगह, लेकिन ये तो कमाल है ही कि हसन साहब ने उस सत्ता और सरकारी तंत्र के रूपक को एक ऐसे शहंशाह की कहानी में तलाश किया जो इंसानी भेजों पर ज़िंदा था.

साफ़ शब्दों में कहें, तो उन्होंने उस समय की प्रधानमंत्री को ‘ज़ह्हाक’ जैसे ज़ालिम बादशाह की उपमा दे दी. ये कहानी उस समय प्रसांगिक थी, लेकिन आज इसकी प्रासंगिकता पहले से कहीं ज़्यादा समझ में आती है.

हसन साहब के मुताबिक़, उस समय ज़बान-बंदी का आलम ये था कि सरकार से मंज़ूरी हासिल करनी पड़ती थी और इब्राहीम अल्काज़ी जैसे दिग्गज द्वारा ‘Danton’s Death’ के मंचन पर भी सरकार को इसलिए आपत्ति थी कि फ्रांसीसी क्रांति के इसी नाम के किरदार पर आधारित इस नाटक से उस समय के सच का चेहरा खुलता हुआ महसूस होता था.

इस तरह की ख़बरें और बातें आज भी सुनाई पड़ती हैं. ख़ैर, नतीजे के तौर पर ‘ज़ह्हाक’ उस समय छपा और न ही स्टेज हो पाया.

और जब आपातकाल का ज़ोर ज़रा ठंडा हुआ तो 1977 के आसपास विजय शंकर चौधरी ने इसे दिल्ली के श्रीराम सेंटर में स्टेज करने का हौसला किया.

स्टेज पर इसकी भव्यता क्या रही होगी, ये तो हम नहीं जानते लेकिन इस राजनीतिक रूपक (Political Allegory) को पढ़ते हुए लगता है जैसे हम अपने समय के सियासी परिदृश्य से गुज़र रहे हों.

दरअसल, इसमें सत्ता के उस स्वरूप के ख़िलाफ़ खुला प्रोटेस्ट है जिसमें सेना, कलाकार, लेखक, पत्रकार, अदालतें और तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं सरकार की हिमायती हो जाया करती हैं.

शायद ये संयोग हो कि आपातकाल के दौरान उर्दू के कई कथाकारों ने ‘सांपों के इंसानी खोपड़ी खाने’ को विषय बनाकर सत्ता की तानाशाही के सामने अपने विरोध को दर्ज किया.

यहां शायद कहने की ज़रूरत नहीं कि इंसानी खोपड़ी और विषधारी सांपों के रूपक में सत्ताधारियों के उस दमन को इंगित किया गया जो अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने के लिए आज भी प्रयोग में लाए जाते हैं.

नवल किशोर प्रेस से 1872 में छपे शाहनामा उर्दू में शामिल ज़ह्हाक की तस्वीर.

इसके कथावस्तु की तरफ़ आएं, तो ‘ज़ह्हाक’ की सत्ता में गिद्ध की पूजा होती है, और अगर कोई उसके कंधे पर बैठे सांप की बात भी करता है तो उसका भेजा निकाल लिया जाता है.

अब सांप और इंसानी भेजों की बात को ज़ेहन में रखकर कुछ संवाद देखिए;

जज:  हमारे क़ैदखाने क़ैदियों से भरे हुए हैं और उनमें ऐसे भी हैं जिन्हें मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी है.

वज़ीर: हमें मालूम है मगर उनके भेजों से कितने दिन काम चल सकता है…

जज: अदालत आपकी ग़ुलाम है.

वज़ीर: नहीं, हम क़ानून को अपने हाथ में लेना नहीं चाहते हैं. हम क़ानून की इज्ज़त करते हैं. क़ानून इक्तिदार (सत्ता) के हाथ का खिलौना नहीं है. क़ानून से कोई भी बुलंद नहीं है सिर्फ़ मुल्क क़ानून से बुलंद है. और एक मुल्क की इज्ज़त की खातिर…

जज: हम ज़्यादा से ज़्यादा इंसानों को फांसी की सज़ा देंगे ताकि मुल्क के मफ़ादात महफूज़ रहें…

वज़ीर: अगर आप रोज़ चार शहरियों को फांसी देंगे तो शहर गुस्से और नफ़रत से उबल पड़ेगा. सिर्फ़ आपके जल्लाद आपके फांसी घर से हमें चार भेजे फ़राहम नहीं कर सकते कोई और तदबीर सोचनी होगी…

वज़ीर: इस काम के लिए मुल्क की पूरी फ़िज़ा बदलनी होगी, क़ानून बदलना होगा, लोगों की ज़हनियत बदलनी होगी, समाज का ढांचा बदलना होगा…

चरित्रों के इस मौखिक विनिमय पर शायद अलग से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है कि अघोषित आपातकाल में भी ये कोई कपोल-कल्पना नहीं है. इसलिए बिला तब्सिरा कुछ और संवाद पेश करता हूं;

‘पूछने वालों की ज़बानें गुद्दी से खींच लो. शक करने वाले दिल उनके सीने से चीरकर निकाल लो. हमारी ममलिकत में सवाल जुर्म है. जिसकी सज़ा मिलनी चाहिए.’

‘फौजी अफ़सर: वज़ीर-ए-आज़म मेरी तजवीज़ है कि ग़ैरज़रूरी लफ़्ज़ों के इस्तेमाल पर पाबंदी होनी चाहिए.’

‘वज़ीर-ए-आज़म: ज़माने के सभी लफ़्ज़ों के मानी बदलने पड़ेंगे ताकि मेरे मोहसिन शहंशाह को क़ातिल न कहा जाए.’

‘मुझे सवालों से कोई दिलचस्पी नहीं है.’

‘वो आंखें हमें देख रही हैं वो कान हमें सुन रहे हैं.’

‘क़ानून-दां जिस तरह के क़ानून बनाएंगे हम उसी क़िस्म के फ़ैसले देंगे.’

‘रक्कासा: जिस तरह की धुन होगी उसी क़िस्म का नाच होगा.’

‘सिर मत उठाओ, रेंगेने में आफ़ियत है.’

ये सामने की चंद मिसालें हैं, जिसको हम इस नाटक से इतर आज की ख़बरों में भी पढ़ने के आदी हो चुके हैं.

दरअसल हसन साहब ने अपने समय के सियासी सरोकारों के साथ इसमें तमाम बुनियादी सवालों को पेश कर दिया है, जो हमारे समय के गर्भ से भी पैदा हो रहा है.

अब यहां सत्ता के जिन हिमायतियों की बात की गई है, एक मौक़े पर उनका ज़मीर उन्हें गाली देता है तो वो अपनी ज़मीर-फ़रोशी का मातम करते हैं. लेकिन कोई ख़ुफ़िया तंत्र है जो ये सब देख रहा है, ऐसे में उन्हें गिरफ़्तार करके जल्लाद के सामने पेश किया जाता है और बताया जाता है कि;

‘तुम में से किसी का भी क़द तलवार से लंबा नहीं है.’

कमाल ये है कि इस तरह की दमनकारी व्यवस्था को आईना दिखाते हुए हसन साहब ने इसमें दो बेबस और मेहनतकश इंसानों की आवाज़ को संघर्ष का नारा बना दिया है.

इस तरह जहां लोकतांत्रिक संस्थाओं, अदालतों, क़ानून, कला, धर्म सबको अपने उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने वाली सत्ता के ख़िलाफ़ इसकी स्याही गाढ़ी है वहीं वर्ग-संघर्ष, औद्योगिक विकास और मशीनों की ग़ुलामी में फंसे इंसानों पर भी एक प्रगतिशील लेखक का नज़रिया सामने आता है.

इस तरह ‘ज़ह्हाक’ जैसे ज़ालिम बादशाह की इस कहानी में हसन साहब के ‘आम आदमी’ का सबसे बड़ा नारा यही है कि;

‘मैं इस तरह मरना चाहता हूं कि मेरे होंठों पर इनकार ज़िंदा रहे.’

शायद इसलिए ज्ञानचंद जैन जैसे आलोचक को कहना पड़ा कि ‘उर्दू साहित्य में आपातकाल के ख़िलाफ़ इतना पुरज़ोर, इतना शदीद, इतना रचा हुआ और सारी फ़िज़ा पर छाया हुआ एहतिजाज (विरोध) और कहीं नहीं मिलता.’

और अब भी शायद इस नाटक का सबसे बड़ा सवाल यही है कि मुल्क की मौजूदा सत्ता में ‘ज़ह्हाक’ कौन है? कोई एक शख़्स, इस सरकारी तंत्र को चलाने वाली विचारधारा या इसकी लोकतांत्रिक संस्थाएं? क्योंकि;

‘जहां भी ज़ह्हाक सिर उठाएगा फ़रीदूं का या उसके किसी मज़लूम भाई-बहन का हाथ भी ज़रूर उठेगा. इन लोगों के टांके काट दो आओ हम नए ज़ह्हाक की तलाश में चलें.’

और नाटक में यहां पर्दा गिर जाता है, मगर…