आरोप था कि नवंबर 2021 में सुरक्षा बलों द्वारा हिजबुल मुज़ाहिदीन के एक आतंकवादी मुदासिर जमाल वागे को मारने के बाद एक शख़्स ने कुलगाम में ग्रामीणों को जनाज़े की नमाज़ के लिए उकसाया था. इसे लेकर 10 लोगों पर केस दर्ज हुआ था और दो पर यूएपीए के तहत आरोप लगाए गए थे.
नई दिल्ली: जम्मू कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने बीते एक सितंबर को सुनाए अपने एक फैसले में कहा है कि मारे गए आतंकवादी के लिए जनता द्वारा जनाजे की नमाज अदा करना ‘राष्ट्रविरोधी’ गतिविधि में शुमार नहीं होता है.
लाइव लॉ की रिपोर्ट की मुताबिक, गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) की एक विशेष अदालत द्वारा दो याचिकाकर्ताओं को मिली जमानत के खिलाफ सरकार ने हाईकोर्ट में दो याचिकाएं लगाई थीं, जिन पर सुनवाई के दौरान अदालत ने यह टिप्पणी की.
यह आदेश ऐसे समय में आया है जब जम्मू कश्मीर सरकार ने सशस्त्र आतंकियों के शव उनके परिजनों को सौंपना बंद कर दिया है और कोविड-19 का हवाला देते हुए उन्हें दूरदराज के इलाकों में दफनाया जा रहा है.
द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 में करीब 140 आतंकियों को ऐसे स्थानों पर दफनाया गया था, जिनमें से ज्यादातर उत्तरी कश्मीर में थे.
2020 में द वायर की एक रिपोर्ट में गंतामुल्ला के ग्रामीणों के हवाले से बताया गया था कि उन्होंने एक कब्रिस्तान में 100 से अधिक आतंकवादियों को ऐसे कब्रिस्तान में ‘चुपचाप दफन’ कर दिया था, जो केवल अज्ञात और गैर स्थानीय आतंवादियों के लिए था. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि सुरक्षा बलों को लगता था कि कश्मीर के आबादी वाले क्षेत्रों में उनके अंतिम संस्कार से कानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है.
ऐसे भी उदाहरण सामने आए हैं जहां पुलिस ने घाटी में आतंकवादियों के अंतिम संस्कार में शामिल होने वाले लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किए हैं.
मामले की पृष्ठभूमि
पिछले साल नवंबर में सुरक्षा बलों द्वारा हिजबुल मुजाहिदीन के एक स्थानीय आतंकवादी मुदासिर जमाल वागे की मौत के बाद, मोहम्मद यूसुफ गनई नामक व्यक्ति ने कुलगाम गांव में कथित तौर पर मारे गए आतंकवादी के लिए ‘गैबाना नमाज-जिनाजा’ (अनुपस्थिति में अंतिम संस्कार प्रार्थना) करने के लिए ग्रामीणों को उकसाया था.
इस ‘उकसावे’ पर मस्जिद शरीफ के इमाम जावेद अहमद शाह ने जनाज़े की नमाज अदा की. ऐसे आरोप लगाए जाते हैं कि जनाजे के दौरान वहां जुटे लोगों की भावनाएं ‘आजादी तक संघर्ष जारी रखें’ का आग्रह कर भड़काई गईं.
इसी कड़ी में 10 लोगों के खिलाफ देवसर पुलिस थाने में एक एफआईआर दर्ज की गई, जिनमें दो प्रतिवादी शामिल थे और उनके खिलाफ यूएपीए की धारा 13 के तहत आरोप लगाए गए थे.
अनंतनाग के विशेष न्यायाधीश ने दो अलग-अलग आवेदकों को इस साल क्रमश: 11 और 26 फरवरी को जमानत दे दी थी.
सरकार-अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि जमानत देते समय यूएपीए अदालत ने इस बात पर विचार नहीं किया था कि सभी आरोपियों (मामले में प्रतिवादी समेत) को अपराध से जोड़ने के लिए पर्याप्त सबूत हैं.
इसके अलावा सरकार ने तर्क दिया कि पुलिस की केस डायरी में आपत्तिजनक सामग्री, प्रथमदृष्टया स्पष्ट रूप से अपराध करने में आरोपियों की संलिप्तता दिखाती है.
अंत में, सरकार के वकील ने कहा कि यूएपीए की धारा 43डी आरोपियों को इस स्थिति में जमानत देने पर रोक लगाती है जब यह मानने का पर्याप्त कारण हो कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप प्रथमदृष्टया सही हैं.
हालांकि, अदालत ने कहा कि यूएपीए के खंड 4 और 5 में आतंकी गतिविधियों के आरोपों के संबंध में बात की गई है, न कि अंतिम संस्कार न करने को लेकर. इसके बाद, जस्टिस अली मोहम्मद माग्रे और एमडी अकरम चौधरी की पीठ ने कहा कि दोनों आरोपियों को निचली अदालत द्वारा जमानत देना सही था और संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता संविधान के तहत गांरटीकृत सबसे कीमती अधिकार है.
अदालत ने कहा कि जांच के दौरान प्रतिवादियों के खिलाफ कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया गया है, जिससे उन्हें जमानत देने से इनकार किया जा सके. अदालत ने यह भी कहा कि यूएपीए की धारा 43डी के तहत जमानत पर रोक इस मामले में लागू नहीं होती है.
यह टिप्पणी करते हुए कि उसे अनंतनाग के विशेष न्यायाधीश के फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं दिखाई देता, हाईकोर्ट ने सरकारी की दोनों अपीलों को खारिज कर दिया.
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