मोहन भागवत की जनसंख्या असंतुलन की चिंता में समुदाय का नाम सामने न होकर भी मौजूद है

मोहन भागवत ने किसी समुदाय का नाम लिए बिना देश में समुदायों के बीच जनसंख्या के बढ़ते असंतुलन पर चिंता जताई. संघ शुरू से इशारों में ही बात करता रहा है. इससे वह क़ानून से बचा रहता है. साथ ही संकेत भाषा के कारण बुद्धिजीवी भी उनके बचाव में कूद पड़ते हैं, जैसे अभी पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कर रहे हैं.

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2022 के विजयादशमी समारोह में सरसंघचालक मोहन भागवत. (फोटो साभार: फेसबुक/@RSSOrg)

मोहन भागवत ने किसी समुदाय का नाम लिए बिना देश में समुदायों के बीच जनसंख्या के बढ़ते असंतुलन पर चिंता जताई. संघ शुरू से इशारों में ही बात करता रहा है. इससे वह क़ानून से बचा रहता है. साथ ही संकेत भाषा के कारण बुद्धिजीवी भी उनके बचाव में कूद पड़ते हैं, जैसे अभी पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कर रहे हैं.

2022 के विजयादशमी समारोह में सरसंघचालक मोहन भागवत. (फोटो साभार: फेसबुक/@RSSOrg)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख ने विजयादशमी के पवित्र अवसर पर एक बार फिर असत्य, अर्धसत्य और कपट का सहारा लेकर हिंदुओं में दूसरे समुदायों के प्रति संदेह, घृणा और हिंसा के अशुभ भावों को उत्तेजित करने की कोशिश की है. इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि संघ का प्रभाव हिंदुओं की बड़ी आबादी पर है. उसके लिए संघ प्रमुख के शब्दों का महत्त्व होना चाहिए.

अगर उनसे प्रभावित होकर दूसरे समुदायों के प्रति उनमें पहले से मौजूद विद्वेष बढ़ता है तो यह भारत के सामाजिक जीवन में तनाव और हिंसा को और बढ़ाएगा. इसी वजह से आजकल उनमें इस आबादी के बाहर भी काफ़ी उत्सुकता बढ़ गई है. मुसलमान या ईसाई भी इसे सुनते हैं क्योंकि उनके प्रति संघ किस रवैये की वकालत कर रहा है, यह जानना उनकी अपनी हिफ़ाज़त के लिए ज़रूरी है.

संघ का विचार सिर्फ़ उस तक महदूद नहीं है. एक प्रकार से अपनी राजनीतिक शाखा, भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से संघ भारत के बड़े हिस्से पर राज कर रहा है. भारत की नौकरशाही, पुलिस पर भी उनका प्रभाव बढ़ता गया है. मीडिया उनके छोटे बड़े बयान पर ध्यान देता है.

प्रधानमंत्री भी पहले स्वयंसेवक ही हैं. यह तो अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कहा था. उनके समय के मुक़ाबले आज संघ का प्रभाव राज्य तंत्र पर, यहां तक कि फ़ौज पर भी कहीं अधिक दिखता है. कहना गलत न होगा कि संघ की नीति ही अब राज्य की नीति है. इसलिए संघ प्रमुख जो भी कहते हैं, उस पर ध्यान देने और उसकी जांच करने की ज़रूरत बनी रहती है.

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भारत में समुदायों के बीच जनसंख्या के बढ़ते असंतुलन की चर्चा की और उस पर चिंता जाहिर की. उन्होंने किसी समुदाय का नाम नहीं लिया. लेकिन संघ के समझदारों को इशारा ही काफी है.

संघ शुरू से इशारों में ही बात करता रहा है. इससे वह कानून से बचा रहता है. इसके अलावा इस संकेत भाषा के कारण मीडिया और बुद्धिजीवी भी उसका बचाव करने मैदान में कूद पड़ते हैं. जैसे अभी पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कर रहे हैं. लेकिन यह प्रयास हास्यास्पद रूप से दयनीय है क्योंकि संघ को यकीन है कि उसके हिंदू उसकी कूटभाषा में दीक्षित हैं.

भारत में जब समुदायों का जिक्र संघ की तरफ से हो तो उसका अर्थ हिंदू और मुसलमान और ईसाई समुदाय होता है. ब्राह्मण, आदिवासी या दलित नहीं. कुरैशी साहब यह कह रहे हैं कि भागवत ने किसी समुदाय का नाम नहीं लिया. लेकिन भागवत ने इसे अस्पष्ट भी नहीं छोड़ा.

जब मोहन भागवत ने कहा कि भारत में समुदायों के बीच जनसंख्या का संतुलन बिगड़ रहा है तो वे कह रहे थे कि यह असंतुलन हिंदुओं और मुसलमानों तथा ईसाइयों के बीच बढ़ रहा है. यह असंतुलन किस प्रकार हो रहा है, यह भी उन्होंने स्पष्ट किया. उनके मुताबिक़ जन्म दर में असंतुलन से जनसंख्या में असंतुलन बढ़ता है और जबरन धर्म परिवर्तन आदि से भी. इसके बाद क्या कहने की ज़रूरत रह जाती है कि भागवत के संतुलित वक्तव्य में समुदायों का अर्थ क्या है.

भागवत ने पहली बार जनसंख्या में असंतुलन के खतरे की तरफ इशारा नहीं किया है. इसके पहले तो वे इसे दूर करने के लिए हिंदुओं का आह्वान कर चुके हैं कि वे अधिक बच्चे पैदा करें ताकि मुसलमान या ईसाई कहीं उनसे संख्या में बढ़ न जाएं.

भागवत जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं. जन्म दर में हर समुदाय में तेजी से गिरावट आ रही है. सापेक्षिक रूप से मुसलमानों में हिंदुओं के मुकाबले जन्म दर कहीं कम हो गई है. जनसंख्या में संतुलन किसी लिहाज से बिगड़ नहीं रहा. बल्कि अब वह स्थिर होता जा रहा है और सारे समुदायों में जन्म दर लगभग समान होती जा रही है.

मुसलमान बच्चे ज़्यादा पैदा करते हैं और उनकी आबादी हिंदुओं की तुलना में ज़्यादा हो जाएगी, यह भ्रम तकरीबन 100 साल से फैलाया जा रहा है. यह अब तक नहीं हुआ है. और किसी भी प्रकार यह संभव नहीं है कि मुसलमान आबादी के मामले में हिंदुओं के आसपास भी आ सकें, यह बात कुरैशी साहब ने अपनी हाल की मुलाक़ात में आंकड़ों के सहारे भागवत को समझाई थी. उन्हें ऐसा लगा था कि उन्होंने उनकी बात समझी ली है. उन्होंने इस प्रसंग पर लिखी अपनी शोधपूर्ण पुस्तक भी उन्हें भेंट की थी.  इस पर भागवत उदारतापूर्वक हंसे भी थे. तो क्या उन्होंने वह किताब नहीं पढ़ी?

किताब पढ़ने की ज़रूरत नहीं क्योंकि वास्तव में भागवत जानते हैं कि वे जनसंख्या के मामले में असत्य का प्रचार कर रहे हैं. यह इतना बड़ा असत्य है कि जो मांग वे अभी कर रहे हैं यानी जनसंख्या नियंत्रण की नीति की, उसके बारे में उन्हीं की सरकार को भी कहना पड़ा है कि उसकी आवश्यकता नहीं है. भागवत जान बूझकर ऐसा कर रहे हैं. उन्होंने यह भी डर दिखलाया कि जनसंख्या में अंसतुलन से भौगोलिक सीमाएं भी बदल सकती हैं. इसका मतलब भी साफ़ है.

भागवत विजयादशमी के अवसर का इस्तेमाल एक असत्य और दुष्प्रचार के लिए कर रहे थे. हिंदुओं के भीतर मुसलमानों और ईसाइयों से भय बैठाना क्या शुभ है? कुरैशी साहब को भाषण संतुलित लग रहा है और वे भागवत की तारीफ कर रहे हैं. लेकिन भाजपा के एक प्रभावशाली नेता ने संघ प्रमुख को ठीक ठीक सुना और समझा.

संगीत सोम ने क्षत्रियों को हथियार उठाने का आह्वान किया ताकि जनसंख्या में संतुलन लाया जा सके. क्या सोम साहब संघ की गुमराह संतान हैं? क्या कुरैशी साहब संगीत सोम को सलाह देंगे कि वे उनकी किताब पढ़ें और भागवत को सही तरीके से सुनें?

भागवत के वक्तव्य में छल भी था. वे पिछले समय से कह रहे हैं कि उपासना पद्धति कुछ भी हो, भारत में रहने वाले सब हिंदू हैं. अगर सब हिंदू हैं तो किसी उपासना पद्धति वाले की तादाद बढ़ने से क्यों चिंतित होना चाहिए? आखिर संख्या तो ‘हिंदुओं’ की ही बढ़ रही है.

लेकिन ऐसा कहने का आशय भी सबको पता है. वे एक तरफ मुसलमानों और ईसाइयों के स्वतंत्र अस्तित्व से इनकार करते हैं दूसरी तरफ उन्हीं को हिंदुओं से भिन्न ही नहीं, बल्कि उनका शत्रु बतलाकर हिंदुओं को उनसे डराते हैं.

इसके बाद मोहन भागवत ने समाज में हिंसा पर चिंता जाहिर की. वे दशमी के दिन बोल रहे थे और उनके प्रवचन के पहले गुजरात, मध्य प्रदेश और दूसरी जगहों से बजरंग दल के लोगों के द्वारा मुसलमानों पर हमले की खबरें आ रहीं थी. बजरंग दल संघ से जुड़ा हुआ है. होना यह चाहिए था कि भागवत यह कहते कि हिंदुओं के द्वारा इस प्रकार की हिंसा अस्वीकार्य है. अपने धार्मिक उत्सव में हर किसी का स्वागत होना चाहिए, न कि उन्हें मारा पीटा जाए. लेकिन भागवत ने ऐसा कुछ नहीं कहा. जैसे यह हिंसा हुई ही नहीं.

भागवत ने उदयपुर और अमरावती में मुसलमानों के द्वारा की गई हिंसा, हत्या का जिक्र किया. यह कहा कि यह ठीक है कि कुछ मुसलमानों ने इस हिंसा का विरोध किया है, लेकिन यह विरोध और व्यापक होना चाहिए. उन्होंने कहा कि हिंदुओं की तरफ से जब हिंसा होती है तो सभी हिंदू उसका विरोध करते हैं. इससे बड़ा मज़ाक क्या हो सकता है?

हिंदुओं की तरफ़ से उनके नाम पर जो हिंसा भारत में लगातार बढ़ती जा रही है, खुद संघ ने कभी उसकी निंदा नहीं की है, बाकी हिंदुओं की बात तो रहने ही दीजिए.

बल्कि हिंसा के अभियुक्तों को भारतीय जनता पार्टी और संघ से जुड़े संगठनों के लोग माला पहनाकर उनका अभिनंदन करते हैं. एक कदम आगे जाकर वे इस तरह की किसी हिंसा से ही इंकार करते हैं.  बल्कि कई बार वे मुसलमानों पर हुई हिंसा के लिए उन्हीं को जिम्मेवार ठहरा देते हैं. ऐसे लोगों को संघ की संस्था यानी भाजपा चुनाव में टिकट देती है और मंत्री तक बनाती है.

इसके बाद मोहन भागवत ने सरकार की प्रशंसा की. उनके भाषण का आशय यह था कि भारतीयों का काम सरकार का सहयोग करना है. उससे नौकरी वगैरह मांगकर उसे तंग करना ठीक नहीं है. वे विश्लेषक इस भाषण को सुनकर उलझन में पड़ गए क्योंकि अभी कुछ रोज़ पहले ही संघ एक एक दूसरे बड़े पदाधिकारी ने बढ़ती बेरोज़गारी और महंगाई पर चिंता जाहिर की थी.

लेकिन जो संघ को जानते हैं उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि संघ दस मुंह से बोलता है ताकि सुनने वाले सुविधानुसार अर्थ निकालते रहें. सबसे बेपरवाह संघ को जो काम करना है, वह करता रहेगा. वही काम जो इस बार मोहन भागवत ने किया: हिंदुओं में असुरक्षा, दूसरे समुदायों के प्रति संदेह, घृणा और अलगाव का प्रचार.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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