उत्तराखंड के पर्यावरणीय ख़तरे समूचे हिमालय के लिए बड़ी चुनौती बन सकते हैं

उत्तराखंड में हाल ही में घटी लगातार आपदाएं हिमालयी जनजीवन के अस्तित्व पर आगामी सदियों के ख़तरों की आहट दे रही हैं. सरकार व नौकरशाही के कामचलाऊ रुख़ से जलवायु परिवर्तन समेत मानव निर्मित गंभीर विषम स्थितियों का सामना करना दुष्कर हो चला है.

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बीते सप्ताह उत्तरकाशी जिले में द्रौपदी के डंडा -2 पर्वत शिखर पर हिमस्खलन के बाद नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के पर्वतारोहियों के लापता होने के बाद 9 अक्टूबर, 2022 को जारी रेस्क्यू ऑपरेशन. (फोटो: पीटीआई)

उत्तराखंड में हाल ही में घटी लगातार आपदाएं हिमालयी जनजीवन के अस्तित्व पर आगामी सदियों के ख़तरों की आहट दे रही हैं. सरकार व नौकरशाही के कामचलाऊ रुख़ से जलवायु परिवर्तन समेत मानव निर्मित गंभीर विषम स्थितियों का सामना करना दुष्कर हो चला है.

बीते सप्ताह उत्तरकाशी जिले में द्रौपदी के डंडा -2 पर्वत शिखर पर हिमस्खलन के बाद नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के पर्वतारोहियों के लापता होने के बाद 9 अक्टूबर, 2022 को जारी रेस्क्यू ऑपरेशन. (फोटो: पीटीआई)

अपनी स्थापना के 22 वर्ष बाद मध्य हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड कठिनतम पारिस्थितीकीय चुनौतियों से जूझ रहा है. सरकार व नौकरशाही के कामचलाऊ रुख से जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) समेत मानव निर्मित इन गंभीर विषम स्थितियों का सामना करना दुष्कर हो रहा है. हाल ही में घटी ताबड़तोड़ आपदाएं हिमालयी जनजीवन के अस्तित्व पर आगामी सदियों के खतरों की आहट दे रही हैं.

सबसे बड़ा और विकट संकट हिमालय के भीतर और बाहर मानव जीवन के अस्तित्व के लिए पनप रही चुनौतियां हैं. 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद बड़े पैमाने पर भूस्खलन और हिमशिखरों में अकस्मात आ रहे तूफानों, बादल फटने से बाढ़ और गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियों की अविरल धाराओं पर मंडरा रहा खतरा है. असल में बादल फटने की घटनाओं को विषय की गहराई में जाने से बचने के लिए अचूक हथियार मान लिया गया है.

मैदानों में प्रदूषित बसाहटों और आबादी के बोझ से दब रहे शहरों की मांग विशाल है और दौलत का शिकंजा इन सभी दखल के कारण तेज हो रहा है.

उत्तराखंड की नैसर्गिक चट्टानों को चीरकर बनाई जाने वाली चौड़ी सड़कें जिस अवैज्ञानिक और अदूरदर्शी तरीके से निर्मित करने की प्रक्रिया शुरू की गई वे न केवल इस नाजुक हिमालयी क्षेत्र के लिए आत्मघाती हैं बल्कि यहां की वन संपदाओं और दुर्लभ समूचे वन्य जनजीवन के लिए भी नए तरह के अभिशाप के बीज बो रहे हैं.

हिमालय की ये चोटियां और बर्फ से ढके पहाड़ और जंगलों और वनस्पति से ढकी हुई प्रकृति अभी अपनी शैशवावस्था में है. वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय उसकी आगे बढ़ने की इस प्रक्रिया के बीच ही उसके दोहन और शोषण की दोहरी मार ने उसके मजबूत होने की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर दिया है.

इन समस्त उलटबांसियों का दुष्प्रभाव सुदूर पहाड़ों के रहने वालों के जनजीवन पर पड़ा है. बदलते दौर की ज़रूरतों और सरकारी तंत्र की उपेक्षाओं से वे बड़े पैमाने पर पलायन को विवश होते गए. भले ही इससे उनका जीवन स्तर ऊपर नहीं उठ सका, लेकिन अपना घर-बार छोड़कर शहरों की ओर रुख करने को ही उन्होंने अपनी नियति मान लिया.

हिमालय के मूल बाशिंदों के पलायन का सीधा असर सुदूर क्षेत्रों में परंपरागत खेतीबाड़ी और सिंचित क्षेत्र पर पड़ा. लोगों ने जंगली मृगों से परेशान होकर खेती करना छोड़ दिया. उनकी निर्भरता सरकारी रहमोकरम से चलने वाली राशन की दुकानों पर बढ़ गई. पहाड़ों में मात्र तीन प्रतिशत जमीन पर ही खेती होती रही है. वह भी वर्षा पर आधारित खेती, जिससे अब ज़्यादातर लोग लगातार तौबा कर रहे हैं.

यूनाइटेड नेशंस एनवॉयरमेंटल प्रोग्राम व वर्ल्ड कंसर्टिव मॉनिटरिंग सेंटर (UNEP-WCM) की 2002 से 2008 की रिपोर्ट बताती है कि सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक उपेक्षा के कारण हिमालयी क्षेत्रों में आम लोगों की समस्याएं कई गुना बढ़ रही हैं.

संयुक्त राष्ट्र की शोध रिपोर्ट्स में इन चिंताओं का भी प्रमुखता से उल्लेख किया जा चुका है कि हिमालय में पर्यटन, विकास की नीतियों, वनों के कटान, मौसमी बदलावों, भूस्खलनों से नष्ट होती पहाड़ों की ज़मीनों व चट्टानों के गंभीर दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं. इसी के बुरे नतीजों के कारण सुदूर क्षेत्रों में जल संकट, मानवीय संघर्ष, जंगलों में भयावह आगजनी, तेज हवाएं चलने, गंगा और बाकी नदियों की विविधता नष्ट हो रही है. ऊंचे पहाड़ों में भी पर्यावरण प्रदूषण, तापमान बढ़ने और रेडिएशन के खतरे बढ़ रहे हैं.

पौड़ी गढ़वाल जिले में तीन साल के अंतराल में दो बड़ी बस दुर्घटनाओं में करीब 90 से ज़्यादा लोग मारे गए. कोटद्वार-सिमड़ी बस दुर्घटना से बचा जा सकता था. विडंबना यह है कि पिछले हादसों से कोई सबक नहीं सीखा गया. एक हादसे के बाद दूसरे हादसे की इंतजार में वक्त कट रहा है.

जून 2022 का उत्तराखंड सरकार का अपना डेटा बताता है कि विगत 5 वर्षों में 5,000 लोग उत्तराखंड में विभिन्न मोटर दुर्घटनाओं में जान गंवा चुके हैं. उसके चार महीनों की दुर्घटनाओं में मारे गए लोगों का आंकड़ा और भी ज्यादा है. मात्र पांच वर्षों में 7,000 से ज्यादा दुर्घटनाओं का सरकार के पास अपना आंकड़ा है. चारधाम यात्रा दुर्घटनाओं ने भी इस साल पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.

पहली बार चारधाम यात्रा के दौरान सरकार ने इस बार भारी तादाद में यात्रियों के आने पर पीठ थपथपाई हो. लेकिन 46 यात्रियों की केवल हृदय गति रुकने से मृत्यु होने जैसे समाचारों ने यात्रा रूट पर आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल खोल दी. दुर्घटनाओं में भी बड़ी तादाद में यात्रियों की मौतें पिछले वर्षों के मुकाबले बढ़ी हैं.

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियरों के पीछे खिसकने, लुप्त होने और कई बार ऊपरी चोटियों पर विशाल झीलें बनने की प्रक्रिया भी तबाही की बड़ी वजहें बन रही हैं. उत्तरकाशी के द्रौपदी डांडा-2 में हिमस्खलन की चपेट में आने से करीब 30 पर्वतारोहियों की दुखद मौत के बाद विशेषज्ञों का मानना है कि ग्लेशियरों के गिरने और पिघलने की प्रक्रिया और बढ़ेगी. आने वाले दौर में पर्वतारोहण जैसे साहसिक कार्यों में नई पीढ़ी जाने से कतराएगी.

मैग्सेसे पुरस्कार पाने वाले चिपको आंदोलन के संस्थापक चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं कि वक्त के साथ ही शांत हिमालयी क्षेत्रों में आपदाओं और ग्लेशियारों के लुप्त होने या खिसकने की कई वजहें हैं. हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में लगातार बढ़ती इंसानी हलचलों और प्रकृति से छेड़छाड़ इन अकस्मात् आने वाली आपदाओं का सबसे बड़ा कारण है. ये हिम शिखर इतने संवेदनशील हैं कि वहां ऊंची आवाज में गाने-बाजे बजाना भी किसी जमाने में जोखिम भरा माना जाता था.

भट्ट का कहना है कि केदारनाथ क्षेत्र में दर्जनों हेलिकॉप्टर यात्रा सीज़न हर दिन उड़ानें भरते रहते हैं. दुर्लभ तरह के जीव-जंतु हेलिकॉप्टर की तेज आवाज से भयभीत होते हैं. उन्हें अपना अस्तित्व खतरे में लगता है. इसी साल कुछ ही सप्ताह के भीतर केदारनाथ क्षेत्र में तीन-तीन हिमस्खलनों और भूस्खलनों को इस चेतावनी के तौर पर लिया जाना चाहिए कि अब इस तरह की तबाहियां रुकने वाली नहीं हैं.

हिमालयी क्षेत्रों में सड़कों के निर्माण के साथ ही भूस्खलन से निकलने वाली रेत व मिट्टी को गंगा और उसकी सहायक नदियां-नाले बहाकर ले जा रहे हैं. ऋषिकेश व हरिद्वार से लेकर बनारस तक गंगा का बहाव तटबंधों से ऊपर उठ रहा है. नदियों के आसपास बसी कॉलोनियों, बस्तियों और होटलों के साथ ही ग़रीबों की बसाहटों और खेतीबाड़ी को भी भारी नुकसान होगा.

नदियों के मुहानों पर गाद भर जाने के बाद नदियों का जलस्तर बढ़ने से होने वाली बाढ़ की तबाहियां पहाड़ों से मैदान तक नए अभिशाप को लेकर आएंगी. इस तरह शहर और नदियों के किनारे बड़ी आबादी पर तो खतरा मंडराएगा ही हजारों-लाखों लोगों की रोजी रोटी भी खतरे में पड़ेगी.

वृहद हिमालयी क्षेत्र को दुनिया की छत भी माना जाता है. यह पूरा क्षेत्र एशिया से मिलने वाली नदियों का उद्गम स्थल है. इन सभी नदियों की तलहटी में 1.3 बिलियन आबादी निवास करती है. इनमें चीन व तिब्बत से निकलकर आने वाली नदियां शामिल हैं, जिनमें अमो दरिया, ब्रह्मपुत्र, जैसी नदियां हैं तो कश्मीर से होकर निकलने वाली इंदु नदी भी है.

हिमालय में विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग तरह का मानसून रहता है. यह गर्मियों और सर्दी के मौसम में अपना मिजाज बदलता रहता है. काफी कुछ चीज़ें वर्षा होने या सूखे के असर से भी बदलती हैं. जाहिर तौर पर वृहद हिमालय के मौसमी बदलावों के दुष्प्रभावों का असर मात्र उस क्षेत्र में ही नहीं बल्कि बाकी क्षेत्रों में भी पड़ता है.

विशेषज्ञों का मानना है कि यह लगभग उसी प्रकार होता है जैसे कि सर्दियों के मौसम में पाकिस्तान से भारत के पंजाब और हरियाणा से होते राजधानी दिल्ली और यूपी तक पराली का धुआं आसमान को अपने आगोश में ले लेता है और इससे स्वास्थ्य विशेषज्ञों, राज्य सरकारों और सरकारी तंत्र के बीच बहस तीखी हो जाती है.

विशेषज्ञों की नजर में वृहद हिमालय के संरक्षण की व्यापक चिंता और क्लाइमेट चेंज के सवालों पर भारत व एशियाई मुल्कों को इस बाबत और जमीनी विचार-विमर्श की जरूरत है.

2020 में उत्तराखंड सरकार द्वारा राज्य में मानव विकास रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि पर्वतीय जिलों और मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या का अनुपात लगभग एक समान है. लेकिन बेहतर जीवन स्तर, जैसे कि शिक्षा स्वास्थ्य, रोज़गार, सड़कें, ट्रांसपोर्ट और सड़कों की गुणवत्ता शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है.

राज्य बनने के बाद विकास की गतिविधियां शहरी क्षेत्रों तक ज्यादा सिमट गई हैं, जबकि हिमालयी क्षेत्रों के घने जंगल ही पहाड़ों के तराई क्षेत्र और यूपी, दिल्ली और उत्तर भारत के राज्यों के मौसम को निमंत्रित करते हैं. दूसरी और हिमालय से निकालने वाली नदियां ही उत्तर भारत के लाखों एकड़ कृषि क्षेत्र को सिंचित करके इस विशाल क्षेत्र को खुशहाल और आत्मनिर्भर बनाने में सबसे ज़्यादा सहायक हैं.

हिमालय में वन संपदा के संरक्षण के साथ ही ढांचागत विकास को जिस अवैज्ञानिक और अदूरदर्शिता से आगे बढ़ाया जा रहा है, उससे योजनाकारों को विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की चेतावनियों की अनदेखी करने की भारी कीमत चुकानी पडे़गी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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