कुलपति के लिए बतौर प्रोफेसर दस साल का अनुभव और चयन समिति द्वारा चुनाव अनिवार्य: सुप्रीम कोर्ट

उत्तराखंड के सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति रद्द करने के हाईकोर्ट के निर्णय को बरक़रार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक वीसी के पास विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में न्यूनतम 10 वर्ष का शिक्षण अनुभव होना चाहिए और उनका नाम एक सर्च कम सलेक्शन कमेटी द्वारा अनुशंसित किया जाना चाहिए. 

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: ambuj/Flickr, CC BY 2.0)

उत्तराखंड के सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति रद्द करने के हाईकोर्ट के निर्णय को बरक़रार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक वीसी के पास विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में न्यूनतम 10 वर्ष का शिक्षण अनुभव होना चाहिए और उनका नाम एक सर्च कम सलेक्शन कमेटी द्वारा अनुशंसित किया जाना चाहिए.

(फोटो साभार: ambuj/Flickr, CC BY 2.0)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक फैसले में कहा कि किसी कुलपति (वीसी) के पास विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में न्यूनतम 10 वर्ष का शिक्षण अनुभव होना चाहिए और उनके नाम की सिफारिश एक सर्च कम सलेक्शन कमेटी द्वारा की जानी चाहिए. वीसी की नियुक्ति इसी समिति द्वारा अनुशंसित नामों से की जानी चाहिए.

द हिंदू के अनुसार, ‘जस्टिस एमआर शाह और एमएम सुंदरेश ने विश्वविद्यालय अधिनियम, 2019 की धारा 10(3) का उल्लेख किया जिसमें प्रावधान था कि समिति को वीसी के रूप में नियुक्ति के लिए तीन व्यक्तियों की सूची उनकी योग्यता और पात्रता के आधार पर तैयार करनी चाहिए.

यह मामला प्रोफेसर नरेंद्र सिंह भंडारी की याचिका से जुड़ा था, जिनकी सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय के वीसी के रूप में नियुक्ति को पिछले साल उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था. पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा.

भंडारी की नियुक्ति के खिलाफ तर्क यह था कि उनके पास विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के रूप में अपेक्षित 10 साल का शिक्षण अनुभव नहीं था. 2017 में उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के सदस्य के रूप में नियुक्त होने तक उनके पास प्रोफेसर के रूप में केवल 8.5 वर्ष का अनुभव था. हालांकि, भंडारी ने यह तर्क दिया कि आयोग की सर्विस के समय वे लंबी छुट्टी पर थे और प्रोफेसर के पद पर उनका वैध अधिकार (lien) बना रहा था. उन्हें 2020 में वीसी नियुक्त किया गया था.

जस्टिस शाह ने अपने फैसले में कहा, ‘केवल इसलिए कि उनका एक प्रोफेसर के पद पर वैध अधिकार बना हुआ था, यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने पढ़ाना जारी रखा और/या उन्हें उस अवधि के दौरान शिक्षण का अनुभव था. संविधान के अनुच्छेद 319 को ध्यान में रखते हुए भी लोक सेवा आयोग के सदस्य के रूप में कार्य करते हुए वे किसी अन्य पद पर कोई अन्य कार्य नहीं कर सकते थे.’

अदालत ने उनकी इस दलील को भी खारिज कर दिया कि वह लोक सेवा आयोग के सदस्य के रूप में काम करते हुए पीएचडी छात्रों को सुपरवाइज़ कर रहे थे और इसे उनके शिक्षण अनुभव का हिस्सा माना जाना चाहिए.

हालांकि, कोर्ट ने इस पर कहा, ‘पीएचडी शोधार्थियों के सुपरवाइज़ करने को यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के तौर पर पढ़ाने का अनुभव नहीं कहा जा सकता है.’

सर्वोच्च अदालत ने कहा कि ​​भंडारी की दलील थी कि वह सबसे मेधावी व्यक्ति थे और वह कुलपति पद पर नियुक्त होने के लिए उपयुक्त थे, उसके बाद उन्हें कुलपति नियुक्त किया गया.

पीठ ने कहा, ‘भंडारी की यह दलील सच हो सकती है कि अपीलकर्ता का बहुत अच्छा शैक्षणिक करिअर रहा हो. हालांकि, इसके साथ ही, यह नहीं कहा जा सकता है कि वह सबसे अधिक मेधावी व्यक्ति थे क्योंकि उनके मामले में अन्य मेधावी व्यक्तियों के साथ तुलना नहीं की गई थी.’

उल्लेखनीय है यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय के बाद आया है जिसमें उसनेतिरुवनंतपुरम के एपीजे अब्दुल कलाम प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की कुलपति की नियुक्ति को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अनुसार, राज्य द्वारा गठित तलाश समिति को कुलपति पद के लिए उस क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोगों के बीच से कम से कम तीन उपयुक्त व्यक्तियों के एक पैनल की सिफारिश करनी चाहिए थी, लेकिन इसके बजाय उसने केवल एक ही नाम भेजा गया था.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)