सीवर में जान गंवाने वाले श्रमिकों के परिजनों को मुआवज़ा न मिलने पर जज बोले- शर्म से सिर झुका

दिल्ली हाईकोर्ट ने बीते अक्टूबर में डीडीए को मुंडका इलाके में सीवर सफाई के दौरान जान गंवाने वाले दो लोगों के परिवार को 10-10 लाख रुपये मुआवज़ा देने को कहा था. ऐसा न किए जाने पर कोर्ट ने नाराज़गी जताते हुए कहा कि हम ऐसे लोगों से यह बर्ताव कर रहे हैं जो हमारे लिए काम कर रहे हैं ताकि हमारी ज़िंदगी आसान हो.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

दिल्ली हाईकोर्ट ने बीते अक्टूबर में डीडीए को मुंडका इलाके में सीवर सफाई के दौरान जान गंवाने वाले दो लोगों के परिवार को 10-10 लाख रुपये मुआवज़ा देने को कहा था. ऐसा न किए जाने पर कोर्ट ने नाराज़गी जताते हुए कहा कि हम ऐसे लोगों से यह बर्ताव कर रहे हैं जो हमारे लिए काम कर रहे हैं ताकि हमारी ज़िंदगी आसान हो.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: इस साल सीवर के अंदर मारे गए दो लोगों के परिवारों के प्रति दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के ‘सर्वथा असहानुभूतिपूर्ण रवैये’ पर खेद प्रकट करते हुए मंगलवार को दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘मेरा सिर शर्म से झुक गया है.’

उच्च न्यायालय छह अक्टूबर के उसके आदेश का पालन नहीं किए जाने के लेकर अप्रसन्न था. उस आदेश में डीडीए को मृतकों के परिवारों को 10-10 लाख रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में देने का निर्देश दिया गया था.

हाईकोर्ट ने कहा कि उसने अधिकारियों से मृतक के परिवारों को इस राशि का भुगतान करने को कहा था क्योंकि उन्होंने इस घटना में पीड़ित परिवारों ने आय अर्जित करने वाले अपने एकमात्र सदस्य को गंवा दिया था.

उच्च न्यायालय के आदेश पर आज डीडीए के उपाध्यक्ष मनीष गुप्ता सुनवाई के दौरान मौजूद थे.

ज्ञात हो कि बीते नौ सितंबर को बाहरी दिल्ली के मुंडका इलाके में सीवर की सफाई के लिए उतरे एक सफाईकर्मी और उसे बचाने गए सुरक्षाकर्मी की जहरीली गैस की चपेट में आने से मौत हो गई थी.

सीवर की सफाई करने उतरा सफाईकर्मी बेहोश हो गया था और जब उसे बचाने के लिए सुरक्षाकर्मी गया, वह भी बेहोश हो गया. इस तरह दोनों की मौत हो गई. मृतकों की पहचान जेजे कॉलोनी बक्करवाला निवासी 32 वर्षीय रोहित चांडिल्य और हरियाणा के झज्जर निवासी 30 वर्षीय अशोक के रूप में हुई थी.

उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए मृतकों के परिवारों को डीडीए द्वारा 10-10 लाख रुपये नहीं दिए जाने पर नाखुशी प्रकट की और कहा कि प्राधिकरण की ओर से ‘एक भी पैसा जारी नहीं किया गया.’ उच्च न्यायालय ने इस घटना पर प्रकाशित/प्रसारित खबरों का जनहित याचिका के रूप में स्वत: संज्ञान लिया था.

उसने हालांकि यह भी कहा कि पृथक मुआवजे के तौर पर दिल्ली सरकार ने दोनों परिवारों को एक-एक लाख रुपये दिये हैं तथा बाकी नौ-नौ लाख रुपये उन्हें 15 दिनों में दिए जाएं.

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सतीशचंद्र शर्मा और जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने कहा, ‘हम ऐसे लोगों से बर्ताव कर रहे हैं जो हमारे लिए काम कर रहे हैं ताकि हमारी जिंदगी आसान हो. और यह वह तौर -तरीका है जिससे अधिकारी उनके साथ व्यवहार कर रहे हैं.’

मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘मेरा सिर शर्म से झुक गया.’ पीठ ने कहा, ‘छह अक्टूबर से अब हम 15 नवंबर पर आ गए हैं. जब इस अदालत ने डीडीए को धनराशि का भुगतान करने का निर्देश दिया था तब ऐसा क्यों नहीं किया गया. यह प्रश्न है.’

डीडीए के वकील ने कहा कि रकम का भुगतान करना दिल्ली सरकार का दायित्व है. इस पर दिल्ली सरकार के स्थायी वकील संतोष कुमार त्रिपाठी ने कहा कि डीडीए उच्चतम न्यायालय के आदेश पर दी जाने वाली क्षतिपूर्ति में लीपापोती करने की चेष्टा कर रहा है और यह कि दिल्ली सरकार द्वारा दिया जाने वाला 10 लाख रुपये पांच मार्च, 2020 का मंत्रिमंडल के निर्णय के तहत उठाया जाने वाला कदम है.

पीठ ने कहा कि जवाबदेही का प्रश्न बाद में तय किया जा सकता था लेकिन इस अदालत की चिंता यह थी कि तत्काल उपाय के तौर पर प्रभावित परिवारों को कुछ देने की जरूरत थी.

पीठ द्वारा डीडीए का वार्षिक बजट के बारे में पूछे जाने पर उपाध्यक्ष ने कहा कि यह 3,000 करोड़ रुपये है.

पीठ ने कहा, ‘आपका 3,000 करोड़ रुपये का बजट है और हमने आपसे तत्काल राहत के तौर पर महज 10 लाख रुपये देने का अनुरोध किया था, उस पर आप सभी प्रकार के बहाने के साथ सामने आ गए. बाद में हम जवाबदेही तय कर इस रकम को समायोजित कर देते. हमने आपसे भुगतान करने कहा था ताकि अपने जीविकोपार्जक को खोने वाले इन परिवारों को कुछ वित्तीय एवं संवेदनात्मक सुरक्षा बोध तो मिलता.’

मालूम हो कि देश में पहली बार 1993 में मैला ढोने की प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया था. इसके बाद 2013 में कानून बनाकर इस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया था. हालांकि आज भी समाज में मैला ढोने की प्रथा मौजूद है.

मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 के तहत किसी भी व्यक्ति को सीवर में भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है. अगर किसी विषम परिस्थिति में सफाईकर्मी को सीवर के अंदर भेजा जाता है तो इसके लिए 27 तरह के नियमों का पालन करना होता है. हालांकि इन नियमों के लगातार उल्लंघन के चलते आए दिन सीवर सफाई के दौरान श्रमिकों की जान जाती है.

मालूम हो कि 27 मार्च 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने सफाई कर्मचारी आंदोलन बनाम भारत सरकार मामले में आदेश दिया था कि साल 1993 से सीवरेज कार्य (मैनहोल, सेप्टिक टैंक) में मरने वाले सभी व्यक्तियों के परिवारों की पहचान करें और उनके आधार पर परिवार के सदस्यों को 10-10 लाख रुपये का मुआवजा प्रदान किया जाए.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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