कश्मीर फाइल्स पर नदाव लपिद की राय भारत की प्रतिष्ठा की चिंता का ही नतीजा है

इस्राइली फिल्मकार नदाव लपिद को लगा कि ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म समारोह की गरिमा को धूमिल करने वाली प्रविष्टि है, उसकी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए उन्होंने ईमानदारी से अपनी राय रखी. भारत उनके लिए सत्यजित राय, मृणाल सेन, अपर्णा सेन आदि का भारत है. वे उसे अपनी निगाह में गिरते नहीं देखना चाहते.

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(साभार: फेसबुक स्क्रीनग्रैब/@PallaviJoshiOfficial)

इस्राइली फिल्मकार नदाव लपिद को लगा कि ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म समारोह की गरिमा को धूमिल करने वाली प्रविष्टि है, उसकी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए उन्होंने ईमानदारी से अपनी राय रखी. भारत उनके लिए सत्यजित राय, मृणाल सेन, अपर्णा सेन आदि का भारत है. वे उसे अपनी निगाह में गिरते नहीं देखना चाहते.

(साभार: फेसबुक स्क्रीनग्रैब/@PallaviJoshiOfficial)

भारत में इस्राइल के राजदूत का फिल्मकार नदाव लपिद को लिखा गया ख़त भारत की संघीय सरकार, उसे चलाने वाले शासक दल और एक तरह से हम सबके लिए शर्म की बात है. ख़त में राजदूत ने अपने ही देश के फिल्मकार को लानत भेजी है. यह कहते हुए कि उनके वक्तव्य की वजह से भारत में राजदूत और शेष इस्राइली नागरिकों का जीवन असुरक्षित हो गया है.

क्यों वे असुरक्षित या डरा हुआ महसूस कर रहे हैं? क्या उन्हें भारत सरकार से डर है? लेकिन वे तो राजदूत हैं,उन्हें सरकार से क्यों डर होना चाहिए? या क्या उन्हें ग़ैरसरकारी हिंसा का डर है? वह हिंसा कौन करेगा? क्या सरकार समर्थक गुंडे? और अचानक यह डर कैसे पैदा हुआ? फिल्मकार नदाव इसकी वजह जैसे बन गए?

इस्राइली फिल्मकार ने गोवा में आयोजित अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह के निर्णायक मंडल की तरफ़ से समारोह की प्रतियोगिता श्रेणी में भारत की प्रविष्टि के बारे में अपनी राय ज़ाहिर करते हुए वक्तव्य दिया. राय फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ के बारे में थी.

फिल्मकार ने उसे फूहड़, प्रचारात्मक फिल्म बतलाया और कहा कि उसका इस स्तर के फिल्म समारोह की प्रतियोगिता श्रेणी में होना बड़ी हैरानी की बात थी. प्रतियोगिता श्रेणी की शेष 14 फिल्में उच्च कोटि की कलात्मक फिल्में थीं और उनके बीच ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी कलात्मक दृष्टि से निकृष्ट फिल्म का होना उनके लिए अफ़सोस और हैरानी की बात थी.

‘कश्मीर फाइल्स’ पर उनकी राय के बाद भारतीय जनता पार्टी और हिंदुत्ववादी हलके में तूफान आ गया. तलवारें आम तौर पर हिंदुस्तानियों पर ही निकाली जाती हैं, इस बार इस्राइली लोगों पर लहराई जाने लगीं. इस्राइली दूतावास, राजदूत को संबोधित करते हुए गाली गलौज, धमकियां दी जाने लगीं.

जो धमकी दे सकता है, वह हमला भी कर सकता है! इसी आशंका से राजदूत ने फिल्मकार को कहा कि आपने तो बयान दे दिया, फिर यहां से चले जाएंगे, आपकी वाह-वाह होगी, आपको बहादुरी का तमगा मिल जाएगा लेकिन हम इस्राइली तो यहीं रहेंगे और आपके बोले का ख़ामियाज़ा हमें भुगतना पड़ेगा!

एक इस्राइली के बोलने का परिणाम दूसरे इस्राइलियों को भुगतना पड़ेगा, यह राजदूत महोदय को क्यों लगा? क्या इसलिए कि उन्होंने हाल में यह देखा है कि एक आफ़ताब नामक व्यक्ति के अपराध के कारण सारे मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसक माहौल बनाया जा रहा है? वह भी उन लोगों के द्वारा जो शासक दल के समर्थक हैं! भारत के बारे में एक बाहरी व्यक्ति की इस प्रकार की धारणा बन जाए, क्या यह हमारे लिए सम्माजनक है?

लेकिन एक फिल्म की आलोचना पर इतनी हाय-तौबा क्यों? क्यों इस्राइल के राजदूत यह कह रहे हैं कि इस फिल्म की आलोचना से भारत का अपमान हो गया है? क्या यह फिल्म भारत सरकार ने बनाई है? और आख़िर लपिद ने कहा क्या है?

हम सब जानते हैं कि ‘कश्मीर फाइल्स’ उसके निर्देशक के अनुसार कश्मीर में पंडितों पर हुई हिंसा पर आधारित फिल्म है. क्या उस हिंसा के तथ्य से इनकार किया जा सकता है? लेकिन फिल्म के बारे में एक राय यह है कि यह फिल्म वास्तव में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने के मक़सद से बनाई गई है. यह विभाजनकारी फिल्म है.

कश्मीरी पंडितों में भी कई लोगों का कहना है कि फिल्म संदर्भ को ग़ायब कर देती है और यह मुसलमानों को निशाना बनाती है. कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति एक नेताओं ने भी कहा है कि यह फिल्म पंडितों पर हुई हिंसा को व्यावसायिक और राजनीतिक हितों के लिए बेचने वाली फिल्म है. यह जितना पंडितों के प्रति सहानुभूति नहीं पैदा करती उतना मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करती है.

जिन सिनेमाघरों में यह फिल्म लगी, उनमें मुसलमान विरोधी नारे लगे. इस फिल्म को भारतीय जनता पार्टी ने प्रचारित ही नहीं किया, लोगों को मुफ़्त दिखलाया भी. ख़ुद प्रधान मंत्री ने इस फिल्म का प्रचार किया. यह भारत के सिने इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना थी कि किसी फिल्म का प्रचार सरकारी दल करे और प्रधानमंत्री समेत पूरी सरकार उस सफल बनाने को जुट जाए. इसी एक बात से यह फिल्म संदेहास्पद हो जाती है.

फिल्मकार लपिद शायद फिल्म के संबंधित इन बातों से परिचित होंगे. लेकिन उन्होंने फिल्म के विषय पर कुछ नहीं कहा. उन्होंने यह नहीं कहा कि कश्मीरी पंडितों पर हिंसा नहीं हुई. फिल्म के घटियापन से ध्यान हटाने के लिए उन पर यह कहकर हमला किया जाने लगा कि वे पंडितों पर हुई हिंसा से इनकार कर रहे है. लपिद ने स्पष्ट रूप से फिर कहा कि उनका इरादा कश्मीर की हिंसा पर टिप्पणी करने का नहीं क्योंकि उसके बारे वे पर्याप्त रूप से नहीं जानते.

लपिद एक सिने निर्देशक की हैसियत से बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि यह कलात्मक फिल्मों की श्रेणी में शामिल होने लायक नहीं क्योंकि यह प्रचारात्मक फिल्म है. कलात्मक दृष्टि से घटिया है. उन्होंने कहा कि मैं यह फर्क कर सकता हूं कि कौन-सी फिल्म प्रचारात्मक है. इसके लिए विषय की गहरी जानकारी ज़रूरी नहीं. यह सख़्त राय है और शब्द भी तल्ख़ हैं. भारत में, जहां हत्यारों के प्रति भी लिहाज़ का रिवाज है, ऐसी बेबाक़ राय और ज़ुबान से लोग लड़खड़ा गए.

लपिद निर्णायक मंडल के अध्यक्ष हैं. उस हैसियत से उन्हें अधिकार है कि जो फिल्में उन्होंने देखीं,  उनपर अपनी राय दें. कभी भारत में भी रिवाज था कि कलाकार सरकारी रुख़ की आलोचना खुलेआम कर सकते थे और उन पर गुंडों का गिरोह टूट नहीं पड़ता था. भारत के बाहर जो आज़ाद दुनिया है, उसमें कलाकार राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के सामने उनकी आलोचना भी सकते हैं.

लपिद तो अपने देश इस्राइल की नीतियों के मुखर आलोचक हैं. उनकी फिल्में अपनी राजनीतिक मुखरता के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं. राजनीति के साथ वे अपनी कलात्मक प्रयोगशीलता के लिए अंतरराष्ट्रीय सिनेमा बिरादरी में सम्मानित नाम हैं. उनकी बात का मोल है. इसलिए उन्होंने ‘कश्मीर फाइल्स’ के बारे में जो राय दी, उसे भारत के बाहर गंभीरता से लिया जाएगा.

लपिद इस्राइली हैं लेकिन इस्राइल के राजकीय प्रतिनिधि नहीं हैं. उन्हें भारत सरकार ने भारत दर्शन के लिए अतिथि नहीं बनाया था. वे एक ख़ास काम के लिए एक पेशेवर हैसियत में गोवा के फिल्म समारोह में थे. उनका जिम्मा था कि समारोह के आख़िर में वे फिल्मों के बारे में निर्णायक मंडल की राय बताएं. उन्होंने कहा कि सारी फिल्में अपने अपने ढंग से उत्कृष्ट थीं. लेकिन उनके बीच ‘कश्मीर फाइल्स’ का घटियापन इतना उजागर था कि वे चकित थे कि इसे इन फिल्मों के बीच रखने को कोई सोच भी सकता है.

फिल्म का चयन उन्हें इतना बुरा लगा कि उसे ज़ाहिर करना उन्होंने ज़रूरी समझा. वे भोले भी नहीं कि उन्हें इसका अनुमान हो कि उनकी टिप्पणी पर कैसी प्रतिक्रिया होगी. यह तो बाद में भी सारे हंगामे के बीच उन्होंने बताया. उन्होंने कहा कि अगर वे यह राय न देते तो बेईमानी होती. क्या वे समुद्र तट और खाने के बारे में बोलते? यह कहा कि मैं यह कल्पना कर सकता हूं कि कल इस्राइल में भी ऐसी फिल्म बनाई जा सकती है. तब अगर कोई विदेशी उसकी आलोचना करे तो मुझे अच्छा लगेगा.

लपिद अपनी बात पर वे टिके रहे. बल्कि और कड़े शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि यह एक फासिस्ट फिल्म है. यह दर्शकों का भावनात्मक शोषण करते हुए मुसलमान विरोधी हिंसा का प्रचार करती है. जानते हुए कि यह भारत की मुसलमान विरोधी शासक विचारधारा की फिल्म है, लपिद अपनी बात से हटे नहीं. चूंकि उन्हें लगा कि ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म समारोह की गरिमा को धूमिल करने वाली प्रविष्टि है, उसकी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए उन्होंने ईमानदारी से अपनी राय रखी.

इस्राइल के राजदूत ने लपिद ने कहा कि भारत की मेज़बानी का उन्होंने लिहाज़ नहीं किया. लेकिन वे तो वास्तव में भारत की प्रतिष्ठा की चिंता से कारण ही बोल रहे थे. आख़िर भारत उनके लिए सत्यजित राय, मृणाल सेन, अदूर गोपालकृष्णन, अपर्णा सेन आदि का भारत है. वे उसे अपनी निगाह में गिरते नहीं देखना चाहते हैं.

इस्राइल के राजदूत की चिंता अलग है. वे आज के भारत की सत्ता को जानते हैं. वे यहां राजकीय हिंसा और अराजकीय हिंसा का गठजोड़ देख रहे हैं. उन्हें उसके नतीजे की फ़िक्र है. फिर उनके देश की सत्ता और भारत की सत्ता एक ही विचार की हैं. यह बयान चाहे सरकारी दबाव  के कारण दिया गया या अपनी सुरक्षा के  भय से दिया गया, हमारे लिए चिंता और शर्म की बात है.

लेकिन हम इस विषय पर बात न करके इस पर बहस कर रहे हैं कि कश्मीर में पंडित समुदाय के साथ हिंसा हुई थी या नहीं. वह आज की बहस का मसला नहीं. बहुत चालाकी से आज भी कश्मीरी पंडितों को विषयांतर के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)