विधानसभा चुनाव नतीजे राजनीतिक दलों की नहीं, बल्कि मतदाताओं की जीत हैं

इन चुनावों व उपचुनावों में भाग लेने वाले मतदाताओं ने जता दिया है कि नए विकल्प न भी हों तो वे मजबूर होकर सत्ताधीशों की मनमानियों को सहते नहीं रहने वाले. जो विकल्प उपलब्ध हैं, उन्हीं में उलट-पलटकर चुनते हुए सत्ताधीशों के अपराजेय होने के भ्रम को तोड़ते रहेंगे.

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

इन चुनावों व उपचुनावों में भाग लेने वाले मतदाताओं ने जता दिया है कि नए विकल्प न भी हों तो वे मजबूर होकर सत्ताधीशों की मनमानियों को सहते नहीं रहने वाले. जो विकल्प उपलब्ध हैं, उन्हीं में उलट-पलटकर चुनते हुए सत्ताधीशों के अपराजेय होने के भ्रम को तोड़ते रहेंगे.

(फोटो: पीटीआई)

उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता केशवप्रसाद मौर्य ने अति उत्साह में गुरुवार को मतगणना का पहला रुझान आने से पहले ही ट्वीट कर दिया कि ‘आज यूपी के उपचुनाव परिणाम भविष्य के लिए निर्णायक संदेश देने वाले होंगे’ तो आमतौर पर उसे आजमगढ़ व रामपुर लोकसभा सीटों के गत उपचुनाव में उनकी पार्टी को हासिल हुई जीत की खुमारी में प्रदर्शित अतिआत्मविश्वास बताया गया.

अलबत्ता, कुछ लोगों ने यह कहकर उनके अधैर्य की चुटकी भी ली कि इस ट्वीट से पहले उन्हें कम से कम इतना तो सोच लेना चाहिए था कि कभी-कभी ईवीएमों से जिन्न भी निकलने लग जाते हैं. लेकिन नतीजे आने के बाद लखनऊ में भाजपा के प्रदेश मुख्यालय पर सन्नाटा पसर गया और बकौल समाजवादी पार्टी, मौर्य अपना ट्वीट डिलीट कर भाग खड़े हुए.

हालांकि मौर्य चाहें तो यह सोचकर खुश भी हो सकते हैं कि मतदाताओं ने उन्हें गलत सिद्ध होने से बचा लिया है- न सिर्फ प्रदेश के उपचुनावों के बल्कि गुजरात व हिमाचल विधानसभा चुनावों के मतदाताओं ने भी. क्योंकि भविष्य के लिए निर्णायक संदेश देने में उन्होंने भी कोई कोताही नहीं ही की है.

अब प्रेक्षक और विश्लेषक उनके संदेश की व्याख्या में मुब्तिला हैं और यह देखकर हैरत होती है कि उनमें कई यह जताने में ढेर सारा पसीना बहा रहे हैं कि ये संदेश जितने निर्णायक दिख रहे हैं, वास्तव में उतने हैं नहीं. लेकिन इन प्रेक्षकों से भी मतदाताओं के इस संदेश की अनसुनी संभव नहीं हो पा रही कि देशभर में लोकतंत्र के सम्मुख उपस्थित गलाघोंटू अंदेशों के बावजूद वे बदलाव की अपनी शक्ति को लेकर निराश होने को तैयार नहीं हैं.

अयोध्या के उन व्यापारियों जितने निराश तो वे कतई नहीं हैं, जो इन दिनों उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा पागल कर दिए गए विकास की बेघर-बेदर व बेरोजगार होकर कीमत चुका रहे हैं. भले ही वे उसके दो-दो बार चुनकर आने में अपनी बड़ी भूमिका होने का दावा करते हैं.

जानना दिलचस्प है कि इन ‘रामभक्त’ व्यापारियों को राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के निपटारे के बाद से ही अयोध्या को ग्लोबल व मॉडल सिटी बनाने का हसीन सपना दिखाया जाता रहा है. यह सपना साकार करने के लिए निर्माणाधीन राम मंदिर की ओर जाने वाली सड़कों को नया नाम देकर उन्हें चौड़ी करने व ‘भव्य’ बनाने की कवायदें आरंभ हुईं और इन व्यापारियों के घर, दुकानें व प्रतिष्ठान ढहाए जाने लगे तो उन्हें उम्मीद थी कि उनकी शुभचिंतक सरकार उनको सम्यक मुआवजा देने और उनका पुनर्वास सुनिश्चित करने में कोई बाधा नहीं आने देगी.

सरकार की ओर से इसे लेकर उन्हें बार-बार आश्वस्त भी किया जाता रहा था. इसलिए पहले तो उन्होंने उनकी कवायदों के किसी भी तरह के विरोध से परहेज किए रखा. बाद में उनसे किए गए सारे वादों को ठंडे बस्ते में डालकर सम्यक मुआवजे व पुनर्वास दोनों का संकट पैदा कर दिया गया तो आंदोलित भी हुए, मौन धरने व प्रदर्शन वगैरह पर भी उतरे. लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला, तो इस कदर निराश हो गए कि उन्हें प्रतिकार के लोकतांत्रिक संघर्षों के रास्ते ही सूझने बंद हो गए.

तब क्या करते, त्राहिमाम करते हुए निर्माणाधीन राम मंदिर में विराजमान रामलला के दरबार में जाकर उनके शरणागत हो गए. उन्हें अर्जी देकर कहा कि अब हम हार गए हैं भगवन, इसलिए हम पर आई बलाओं को टाल कर हमारी रक्षा करें.

लेकिन इन चुनावों व उपचुनावों में भाग लेने वाले मतदाताओं ने जता दिया है कि राजनीतिक पार्टियों व नेताओं द्वारा अलोकतांत्रिक आचरण से उन्हें हराने की बार-बार की कोशिशों के बावजूद वे इतने निराश नहीं हुए हैं कि हारकर हरिनाम भजने लगें. भले ही कई बार सरकारें बदलकर भी वे उन्हें वांछित बदलाव के दर्शन से वंचित ही रहे हैं, जिसकी बिना पर उन्हें नए विकल्पों को आजमाने से बचने की नसीहत भी दी जाती है.

लेकिन इस बार इस नसीहत को ठुकराकर उन्होंने जता दिया है कि नए विकल्प न भी हों तो वे मजबूर होकर सत्ताधीशों की मनमानियों को सहते नहीं रहने वाले. जो विकल्प उपलब्ध हैं, उन्हीं में उलट-पलटकर उनके ‘साम्राज्य’ की चूलें हिला देंगे- ताकि उनके इस भ्रम की उम्र बहुत लंबी न हो पाएं कि वे अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर अपने विपक्ष के सामने ऐसी स्थितियां पैदाकर हमेशा के लिए विजेता बने रह सकते हैं कि उसे उन्हें हराने के लिए चुनाव आयोग, प्रशासन और मीडिया से भी लड़ना पड़ेगा. मतदाताओं ने जता दिया है कि वे अपनी पर आ जाएं तो इन सबका गठजोड़ भी सत्ताधीशों के किसी काम का नहीं.

उन पार्टियों के भी काम का नहीं जो दावा करती हैं कि उनकी सरकारों के खिलाफ तो एंटी-इनकम्बैंसी होती ही नहीं है. इस एंटी-इनकम्बैंसी ने दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनावों में तो अपना रंग दिखाया ही, जिस पर पंद्रह साल से भाजपा का कब्जा था, उस हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी दिखाया है, जहां कांग्रेस ने अरसे बाद, हर पांच साल में सरकार बदलने के रिवाज के तहत ही सही, भाजपा को सीधे मुकाबले में करारी शिकस्त दी है. हिमाचल प्रदेश भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष जेपी नड्डा का गृह राज्य है. इस रूप में उसे गंवाना उसके लिए उतने ही बड़े अफसोस का कारण होना चाहिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य गुजरात बचाए रख पाना जितने बड़े जश्न का.

जहां तक गुजरात में भाजपा की अभूतपूर्व जीत की बात है, किसे नहीं मालूम कि वह जानें किस रणनीति के तहत कांग्रेस द्वारा उसे दिए गए अनौपचारिक वॉकओवर और आम आदमी पार्टी द्वारा राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए भाजपा विरोधी मतों में अविवेकपूर्ण विभाजन कराने का फल है. दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में भाजपा को हराकर खुश हो रही आम आदमी पार्टी जब भी सच्चा आत्मावलोकन करेगी, बहुत ग्लानिग्रस्त होगी कि उसने गुजरात के लोगों की रात पांच साल और लंबी करने में ‘महत्वपूर्ण’ भूमिका निभाई.

हां, जैसे भी बने, यहां तक कि लोकतांत्रिक मूल्यों को हराने की कवायदों के कीचड़ में प्रधानमंत्री तक को लथपथ कर चुनाव जीत लेना ही गर्व की कसौटी हो, तो ‘गुजरातवासियों के दिलों पर अपने राज’ के लिए भाजपा न सिर्फ अपनी पीठ भरपूर ठोंक सकती बल्कि जश्न भी मना सकती है. लेकिन क्या वह याद करना चाहेगी कि जब इसी तरह वामपंथी दल पश्चिम बंगाल में अजेय हुआ करते थे, वह उनकी जीत को किस रूप में देखती थी?

फिर भी भाजपा नेताओं के इस कथन में कोई मीन-मेख नहीं निकाला जा सकता कि गुजरात में भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे से ही जीती है. वैसे भी आजकल देश में तो क्या दुनिया में भी जो कुछ होता है, उसे प्रधानमंत्री के करिश्मे से हुआ बताने का ही फैशन है. लेकिन यह साफ होना अभी बाकी है कि भाजपा नेता दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन और हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार के पीछे भी उनके करिश्मे की भूमिका मानते हैं या नहीं?

विडंबना यह कि उत्तर प्रदेश के उपचुनाव नतीजों ने इस बाबत मुंह खोलने के भाजपा नेताओं के संकट को और गहरा कर दिया है. प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रचार करने गुजरात गए थे तो उन्हें शो स्टॉपर कहा जा रहा था. उनकी रैलियों में भाजपा के झंडे लगे बुलडोजर प्रदर्शित किए जा रहे थे. भाजपाई वहां भाजपा की जीत में इन बुलडोजरों का तनिक भी योगदान मानेंगे तो उन्हें इस सवाल से गुजरना होगा कि ये बुलडोजर उत्तर प्रदेश में रामपुर में आजम खान के अरमानों को रौंदने के अलावा कुछ क्यों नहीं कर पाए?

मैनपुरी में तो मान लेते हैं कि मुलायम सिंह यादव के निधन के कारण सपा के प्रति सहानुभति की लहर उमड़ी हुई थी, इसलिए उनकी बहू को हराना तो कौन कहे जीत का नया रिकॉर्ड बनाने से रोकना भी संभव नहीं हुआ. लेकिन भाजपा ने जिन रघुराज सिंह शाक्य को प्रत्याशी बनाकर इमोशनल अत्याचार के रास्ते वहां उन पर सपा से न सिर्फ मुलायम की विरासत बल्कि मायावती के दलित वोटबैंक की तर्ज पर पिछड़ों का वोटबैंक छीन लेने का तकिया रखा, वे खुद अपने बूथ पर 187 वोटों से क्यों हार गए? क्यों भाजपा के राज्यसभा सदस्य हरनाथ सिंह यादव के गांव में भाजपा को तीन ही वोट मिले?

योगी के बुलडोजर टिकट को लेकर प्रतिद्वंद्वी रालोद में ‘बगावत’ के बावजूद भाजपा की खतौली विधानसभा सीट भी क्यों नहीं बचा सके, जो भाजपा विधायक विक्रम सिंह सैनी के सदस्यता के अयोग्य घोषित होने से रिक्त हुई थी? क्यों रामपुर में लोगों द्वारा भाजपा की जीत से ज्यादा योगी सरकार द्वारा जीतने के लिए किया गया सत्ता का दुरुपयोग याद किया जा रहा है? क्यों हताश आजम खां को कहना पड़ा था कि वे चुनाव आयोग से कहेंगे कि वह बिना मतदान कराए ही भाजपा प्रत्याशी को निर्वाचित घोषित कर दे, क्योंकि चुनाव तो चुनाव की तरह हो ही नहीं रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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