हिंदी और उसके साहित्य की विडंबनाएं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विडंबना मनुष्य मात्र की स्थिति का अनिवार्य अंग है, कोई समाज विडंबनाओं में फंसा हो, तो यह अस्वाभाविक नहीं है. हिंदी के सिलसिले में कहूं, तो इस अंचल में जैसे-जैसे शिक्षा, साक्षरता का प्रसार हुआ है वैसे-वैसे उसमें सांप्रदायिकता, धर्मांधता, जातिमूलक कट्टरता भी साथ-साथ बढ़ती गई.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विडंबना मनुष्य मात्र की स्थिति का अनिवार्य अंग है, कोई समाज विडंबनाओं में फंसा हो, तो यह अस्वाभाविक नहीं है. हिंदी के सिलसिले में कहूं, तो इस अंचल में जैसे-जैसे शिक्षा, साक्षरता का प्रसार हुआ है वैसे-वैसे उसमें सांप्रदायिकता, धर्मांधता, जातिमूलक कट्टरता भी साथ-साथ बढ़ती गई.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

अगर आप हिंदी और उसके साहित्य के बारे में विचार करें तो ऐसा नहीं हो सकता कि उनकी कुछ विडंबनाओं से आपका सामना न हो. विडंबना मनुष्य मात्र की स्थिति का अनिवार्य अंग है तो कोई समाज और साहित्य भी कुछ विडंबनाओं में फंसा हो तो यह अस्वाभाविक नहीं है. पर अक्सर इन पर ध्यान नहीं जाता है. इसलिए उन्हें सिलसिलेवार दर्ज़ करने की यह कोशिश है.

पहली विडंबना यह है कि हिंदी अंचल में जैसे-जैसे शिक्षा और साक्षरता का प्रसार हुआ है वैसे-वैसे उसमें सांप्रदायिकता, धर्मांधता, जातिमूलक कट्टरता का भी साथ-साथ विस्तार हुआ है. दूसरी विडंबना यह है कि जब से साहित्य में सामाजिकता और साहित्य के समाज के प्रति ज़िम्मेदार होने का आग्रह बढ़ा है, समाज साहित्य से दूर होता गया है.

तीसरी विडंबना यह है कि हिंदी समाज ग़रीबी, विषमता, बेरोज़गारी, अपराध और हिंसा आदि में देश में सबसे आगे है, उसकी श्रेष्ठ उपलब्धि उसका साहित्य है: हिंदी समाज अपनी इस लगभग एकमात्र श्रेष्ठ उपलब्धि से गाफ़िल है.

चौथी विडंबना यह है कि हिंदी की आधुनिक और समकालीन आलोचना, अपनी कई अपर्याप्तताओं के बावजूद समृद्ध और विपुल है. पर हिंदी में वैचारिक साहित्य बहुत दरिद्र है. हिंदी में ज्ञान, भाषा और साहित्य की, संस्कृति और कलाओं की संस्थाएं लगभग ध्वस्त हो चुकी हैं. अन्य प्रदेशों के मुक़ाबले वे इतनी जल्दी पतनशील क्यों होती हैं, यह समझना कठिन है.

छठवीं विडंबना यह है कि हिंदी मीडिया पाठक संख्या और व्याप्ति के आधार पर भारत का सबसे बड़ा मीडिया है. पर अन्य भाषाओं के मीडिया से मिलान करें, तो यह स्पष्ट होगा कि हिंदी मीडिया की पुस्तकों, कलाओं, साहित्य और अन्य सांस्कृतिक माध्यमों में बहुत कम रुचि है.

सातवीं विडंबना यह लगती है कि हज़ारों की संख्या में हर वर्ष छात्र हिंदी साहित्य से एमए आदि करते हैं. साहित्य की हिंदी में पढ़ाने की विधियां इतनी अनोखी हैं कि इन छात्रों का लगभग अस्सी प्रतिशत आगे के जीवन में फिर कभी साहित्य पर वापस नहीं आता.

आठवीं विडंबना यह है कि पिछले कुछ दशकों से हिंदी साहित्य में सामाजिक पर बहुत ज़ोर दिया गया है और सामाजिक यथार्थ के चित्रण को अधिमूल्यित किया जाता रहा है. धर्म, अध्यात्म, तीज़-त्योहार, अनुष्ठानों, मेले आदि को इस चित्रण में बहुत कम जगह मिली है जबकि ये सभी सामाजिक यथार्थ का बहुत दृश्य हिस्सा हैं.

नौवीं विडंबना यह लगती है कि हालांकि हिंदी क्षेत्र राजनीति से बेहद आक्रांत है, उसके लेखकों की युवा पीढ़ी में राजनीतिक बोध बहुत क्षीण है.

दस बजे ग्यारहवें नंबर पर

चार दिन से पेरिस- प्रवास के दौरान बेहद ठंड थी: दिन में भी तापमान शून्य से चार डिग्री नीचे सेल्सियस था. सब कुछ ठिठुर रहा था. हम इस बार सेंटर द पाम्पिदू के पास एक होटल में ठहरे थे. सुबह साढ़े नौ बजे, नाश्ते के बाद, ओतेल द वील और नात्रेदाम से होते हुए हम वहां से निकले. थोड़ी देर हमने नात्रेदाम में हो रहे पुनरुद्धार की गतिविधि को निहारा. कुछ बरस पहले भयानक रूप से क्षतिग्रस्त पेरिस के इस अद्भुत चर्च का पुनरुद्धार बहुत जतन, सूझबूझ और धीरज के साथ चल रहा है.

जब हम शेक्सपीयर एंड कंपनी नाम की प्रसिद्ध पुस्तक दुकान के बाहर पहुंचे तो सुबह का दस बजने को था. दुकान दस बजे खुलती है पर थोड़ी देर हो रही थी. दरवाज़े के सामने एक क़तार लगी हुई थी जिसमें मेरा नंबर ग्यारहवां था.

दस मिनट देर से दरवाज़ा खुला और हम दुकान में दाखि़ल हो पाए. अंदर गर्माहट थी जो सिर्फ़ किसी आंतरिक हीटिंग व्यवस्था के कारण नहीं थी: गर्माहट थी पुस्तकों की नज़दीकी से, दूसरे ग्राहकों की अपनी मनपसंद पुस्तकों की शिनाख़्त करने की सक्रियता से, उन तमाम लेखकों की दिवंगत उपस्थिति से जो कभी यहां अपनी महफ़िल सजाते थे जिनमें गर्टूड स्टाइन, जेम्स ज्वॉयस, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, हेनरी मिलर आदि शामिल थे.

पहले दुकान के पास जगह कम थी और काफ़ी ठुंसी-सी लगती थी. पहले तो बगल में विस्तार हुआ और अब वहां एक कैफ़े, दुकान का ही, चलता है. इधर लगता है कि पीछे की तरफ कुछ और जगह मिल गई है. कविता-खंड ऊपर से नीचे पीछे की तरफ चला आ गया है: वहां नाटकों और शेक्सपीयर के खंडों के अलावा अब कविता खंड हैं जिसमें कवि-नाम के अकारादि क्रम से पुस्तकें सजी-रखी हैं.

पाब्लो नेरूदा की खो गई कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद में एक संचयन ‘दैन कम बैक’ नाम से आया है. पाब्लो पिकासो ने 1935 में 54 बरस की उमर में कुछ समय के लिए चित्र बनाना बंद कर दिया गया था और अपना पूरा समय कविता लिखने में बिताते थे. बाद में भी 1959 तक वे जब-तब कविताएं लिखते रहे.

अपने जीवन के अंतिम चरण में उन्होंने अपने एक मित्र से कहा था कि उनकी मृत्यु के लंबे अरसे बाद उनके लेखन को मान्यता मिलेगी और विश्वकोष में इन्दराज़ होगा कि ‘पिकासो स्पेनिश कवि, जिन्होंने चित्र, रेखांकन और शिल्प में भी दखल दिया.’ ‘द बरियल ऑफ द काउंट ऑफ ऑरगाज़’ नाम से यह संचयन जेरोम रोथेनबर्ग और पियरे योरिस के अंग्रेज़ी अनुवाद में ब्लडेक्स बुक्स से प्रकाशित हुआ है.

अतियथार्थवाद के तीन स्थपतियों में से एक फ्रेंच कवि पॉल एलुआर के 1926 में प्रकाशित कविता-संग्रह ‘कैपिटल ऑफ पेन’ ब्लैक विडो प्रेस बोस्टन से मेरी एन. कॉव्स और अन्य के अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ एक द्विभाषिक संस्करण में आया है. दो महायुद्धों के बीच यह पुस्तक फ्रेंच युवाओं के बैकपैक में होती थी और उनके बीच वह चर्चा और बहस का विषय होती थी. कवि-कथाकार बेन ओकरी के दो नए कविता-संग्रह ‘वाइल्ड पोएम्स’ और ‘ए फायर इन माय हेड’ हेड ऑफ ज़ियस द्वारा प्रकाशित भी मिल गए.

फ्रेंच लेखक-कवि-शिल्पी-फिल्म निर्माता ज्यॉ कॉक्‍तो ने न्यूयार्क में बीस दिन बिताए और वहां से लौटते हुए एक लंबा निबंध लिखना शुरू किया, अपनी लौटती हवाई यात्रा में, जो अंग्रेज़ी में पहली बार अनूदित होकर न्यू डायरेक्शंस से ‘लेटर टू द अमेरिकंस’ के नाम से प्रकाशित हुआ है.

इस वर्ष की नोबेल विजेता एनी एर्ननोवस (Annie Ernaux) की एक कृति ‘ए मेंस प्लेस’ शीर्षक से फ़िटज़कैराल्डो द्वारा प्रकाशित मिल गई. एलेयान्द्रा पिज़ार्निक अर्जेंटीना की थीं और मूलतः स्पेनिश भाषी इस युवती ने फ्रेंच में कुछ कविताएं लिखी थीं. पेत्रिशियो फ़ेरारी के अंग्रेज़ी अनुवाद में ‘द गैलपिंग आर’ नाम से न्यू डायरेक्शंस से ही प्रकाशित पुस्तक है.

आर्ट क्वेक’ आधुनिक कला के सबसे विध्वंसकारी कृतियों का एक संचयन है जिसे फ्रांसिस लिंकन ने प्रकाशित किया है. उसमें गुस्तेव कूर्बे, माशेल दूशां, ईव क्लाइन, जूडी शिकागो, आन्द्र सैरान्नो, बैंके आदि कलाकारों की ध्वंसकारी कृतियों का गहरा विवेचन है. पदुआर माने ने कहा था कि विज्ञान सब ठीक है पर हमारे लिए कल्पना का ज्यादा मोल है.

अपने झोलों में पुस्तकें लेकर जब ठंडे तापमान में बाहर आया तो सब कुछ का मुक़ाबला करने की जीवनी शक्ति कुछ उद्दीप्त थी: पुस्तकें भारी थीं, पर उनका बोझ हल्का लग रहा था.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)