हल्द्वानी में 4,000 परिवारों को हटाने के उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई

20 दिसंबर 2022 को उत्तराखंड हाईकोर्ट ने हल्द्वानी के बनभूलपुरा क्षेत्र में कथित तौर पर रेलवे की ज़मीन पर बसे क़रीब 4,000 से अधिक परिवारों को हटाने का आदेश दिया था. इसके ख़िलाफ़ वहां के निवासियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया था. लोगों का दावा है कि उनके पास भूमि का मालिकाना हक़ है और वे यहां 40 से अधिक वर्षों से रह रहे हैं.

New Delhi: Local people from Haldwani react as they celebrate the Supreme Court's order on Haldwani eviction case, in New Delhi, Thursday, Jan 5, 2023. The apex court in its order stayed the directions of Uttarakhand High Court on the removal of encroachments from 29 acres of railway land in Banbhoolpura in Haldwani. (PTI Photo/Kamal Singh) (PTI01_05_2023_000102B)

20 दिसंबर 2022 को उत्तराखंड हाईकोर्ट ने हल्द्वानी के बनभूलपुरा क्षेत्र में कथित तौर पर रेलवे की ज़मीन पर बसे क़रीब 4,000 से अधिक परिवारों को हटाने का आदेश दिया था. इसके ख़िलाफ़ वहां के निवासियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया था. लोगों का दावा है कि उनके पास भूमि का मालिकाना हक़ है और वे यहां 40 से अधिक वर्षों से रह रहे हैं.

नई दिल्ली में बृहस्पतिवार को हाईकोर्ट के बेदखली आदेश पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने की खुशी जाहिर करते लोग. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार को उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी है, जिसमें हल्द्वानी में कथित तौर पर रेलवे की जमीन से कब्जाधारियों को हटाने का निर्देश दिया गया था.

रेलवे के मुताबिक, उसकी 29 एकड़ से अधिक भूमि पर 4,365 अतिक्रमण हैं, जबकि विवादित भूमि पर बसे लोग अतिक्रमण हटाने के आदेश के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं. उनका दावा है कि उनके पास भूमि का मालिकाना हक है.

हाईकोर्ट के आदेश के बाद हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के पास के क्षेत्र में रहने वाले 4,000 से अधिक परिवारों को बेदखली का सामना करना पड़ा, यह दावा करने के बावजूद कि वे 40 से अधिक वर्षों से रेलवे लाइनों के पास भूमि पर रह रहे हैं. रिपोर्ट्स में कहा गया है कि इस जमीन पर सरकारी स्कूल भी बने हैं.

विरोध के बीच कुछ निवासियों ने राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.

लाइव लॉ ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि जस्टिस संजय किशन कौल और अभय एस. ओका की एक शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा है कि सात दिनों में 50,000 लोगों को नहीं हटाया जा सकता है.

शीर्ष अदालत इस तथ्य के बारे में ‘विशेष रूप से चिंतित’ थी कि दशकों से क्षेत्र के निवासियों ने 1947 में प्रवासन के बाद नीलामी से पट्टे और खरीद के माध्यम से भूमि का दावा किया था.

जस्टिस कौल ने कहा, ‘लोग इतने सालों तक वहां रहे. कुछ पुनर्वास देना होगा. वहां प्रतिष्ठान हैं. आप कैसे कह सकते हैं कि सात दिनों में उन्हें हटा दें.’

जस्टिस कौल ने कहा कि यह मानते हुए भी कि यह रेलवे की जमीन है, तथ्य यह है कि कुछ लोग वहां 50 से अधिक वर्षों से रह रहे हैं और कुछ ने नीलामी में जमीन खरीदी है. ऐसे तथ्य हैं जिन्हें क्रमशः पुनर्वास और भूमि के अधिग्रहण के माध्यम से निपटाया जाना है.

पीठ ने कहा कि यह एक ‘मानवीय मुद्दा’ है और कोई यथोचित समाधान निकालने की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार और रेलवे को इसका व्यावहारिक समाधान खोजने के का निर्देश देते हुए इस मामले को 7 फरवरी, 2023 तक के लिए स्थगित कर दिया.

जस्टिस ओका ने कहा कि उत्तराखंड हाईकोर्ट का आदेश प्रभावित पक्षों को सुने बिना ही पारित कर दिया गया.

सुप्रीम कोर्ट ने साथ ही रेलवे तथा उत्तराखंड सरकार से हल्द्वानी में अतिक्रमण हटाने के हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर याचिकाओं पर जवाब मांगा.

पीठ ने कहा, ‘नोटिस जारी किया जाता है. इस बीच उस आदेश पर रोक रहेगी जिसे चुनौती दी गई है.’

पीठ ने कहा, ‘हमारा मानना है कि उन लोगों को अलग करने के लिए एक व्यावहारिक व्यवस्था आवश्यक है, जिनके पास भूमि पर कोई अधिकार न हो. साथ ही रेलवे की जरूरत को स्वीकार करते हुए पुनर्वास की योजना भी जरूरी है, जो पहले से ही मौजूद हो सकती है.’

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘भूमि की प्रकृति, भूमि के स्वामित्व, प्रदत्त अधिकारों की प्रकृति से उत्पन्न होने वाले कई एंगल हैं. हम आपसे कहना चाहते हैं कि कुछ हल निकालिए. यह एक मानवीय मुद्दा है.’

एनडीटीवी के मुताबिक, लोगों को बेदखल करने के लिए बल प्रयोग करने के हाईकोर्ट के सुझाव का उल्लेख करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘यह कहना सही नहीं होगा कि दशकों से वहां रह रहे लोगों को हटाने के लिए अर्धसैनिक बलों को तैनात किया जाए.’

रेलवे के मुताबिक, उसकी भूमि पर 4,365 परिवारों ने अतिक्रमण किया है. 4,000 से अधिक परिवारों से संबंधित लगभग 50,000 व्यक्ति विवादित भूमि पर निवास करते हैं, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम हैं.

पीठ ने कहा कि रेलवे की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने रेलवे की जरूरतों पर जोर दिया है. शीर्ष अदालत ने कहा कि जिस मुद्दे पर विचार किया जाना है, उसमें राज्य सरकार का रुख भी शामिल है कि क्या पूरी भूमि रेलवे की है या क्या राज्य सरकार भूमि के एक हिस्से का दावा कर रही है.

शीर्ष अदालत ने कहा कि इसके अलावा भूमि पर कब्जा करने वालों के पट्टेदार या लीज होल्ड या नीलामी में खरीद के रूप में अधिकार होने का दावा करने के मुद्दे हैं.

द वायर ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कैसे हाईकोर्ट का आदेश इस क्षेत्र में भूमि के स्वामित्व पर लंबे समय से चली आ रही कानूनी लड़ाई की पृष्ठभूमि के खिलाफ आया था. यह क्षेत्र मुख्य तौर पर मुस्लिम समुदाय की कामकाजी वर्ग की आबादी का घर है.

द वायर द्वारा प्राप्त की गई याचिका में कहा गया है कि विवादित भूमि वास्तव में नजूल भूमि है. यह गैर-कृषि भूमि को संदर्भित करता है, जो सरकार के स्वामित्व में है, जिसे परिवारों को पट्टे पर दिया जा सकता है और कुछ मामलों में फ्रीहोल्ड के रूप में भी दिया जा सकता है. याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सलमान खुर्शीद द्वारा बृहस्पतिवार को अदालत में इस बिंदु पर प्रकाश डाला गया.

गौरतलब है कि 20 दिसंबर 2022 को शरत कुमार की अध्यक्षता वाली उत्तराखंड हाईकोर्ट की एक पीठ ने बनभूलपुरा में 4,500 घरों को हटाने का आदेश दिया था. इसके बाद इज्जतनगर के मंडल रेल प्रबंधक द्वारा 30 दिसंबर को एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया गया, जिसमें वहां रहने वालों से एक सप्ताह के भीतर इलाका खाली करने के लिए कहा गया था.

इस पर विरोध जताते हुए हल्द्वानी के कुछ निवासियों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था. निवासियों ने अपनी याचिका में दलील दी है कि हाईकोर्ट ने इस तथ्य से अवगत होने के बावजूद विवादित आदेश पारित करने में गंभीर चूक की कि याचिकाकर्ताओं सहित निवासियों के मालिकाना हक को लेकर कुछ कार्यवाही जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष लंबित है.

हल्द्वानी के बनभूलपुरा में रेलवे की कथित तौर पर अतिक्रमण की गई 29 एकड़ से अधिक जमीन पर धार्मिक स्थल, स्कूल, कारोबारी प्रतिष्ठान और आवास हैं.

याचिकाओं में से एक में कहा गया है, ‘यह निवेदन किया जाता है कि हाईकोर्ट ने इस बात की समीक्षा न करके गंभीर चूक की है कि रेलवे अधिकारियों द्वारा उसके सामने सात अप्रैल, 2021 को रखी गई कथित सीमांकन रिपोर्ट एक ढकोसला है, जिससे खुलासा होता है कि कोई सीमांकन नहीं था.’

याचिका में कहा गया है, ‘संबंधित आदेश में सीमांकन रिपोर्ट के कवरिंग लेटर पढ़ने के बावजूद रिपोर्ट के उन वास्तविक तथ्यों पर विचार नहीं किया गया, जिसमें केवल सभी निवासियों के नाम और पते शामिल थे.’

निवासियों ने दलील दी है कि रेलवे और राज्य प्राधिकारियों द्वारा अपनाए गए ‘मनमाने और अवैध’ दृष्टिकोण के साथ-साथ हाईकोर्ट द्वारा इसे कायम रखने के परिणामस्वरूप उनके आश्रय के अधिकार का घोर उल्लंघन हुआ है.

याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि उनके पास वैध दस्तावेज हैं, जो स्पष्ट रूप से उनके मालिकाना हक और वैध कब्जे को स्थापित करते हैं.

इसमें कहा गया है, ‘साथ ही यह भी प्रस्तुत किया जाता है कि हाईकोर्ट को राज्य के खिलाफ वोट बैंक की राजनीति के आरोप लगाने के बजाय इन सभी दस्तावेजों पर उचित विचार करना चाहिए था. इसके अतिरिक्त स्थानीय निवासियों के नाम हाउस टैक्स रजिस्टर में नगरपालिका के रिकॉर्ड में दर्ज हैं और वे नियमित रूप से हाउस टैक्स का भुगतान कर रहे हैं.’

कई निवासियों का दावा है कि 1947 में विभाजन के दौरान भारत छोड़ने वालों के घर सरकार द्वारा नीलाम किए गए और उनके द्वारा खरीदे गए.

रविशंकर जोशी की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने नौ नवंबर 2016 को 10 सप्ताह के भीतर रेलवे की जमीन से अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया था.

अदालत ने कहा था कि सभी अतिक्रमणकारियों को रेलवे सार्वजनिक परिसर (अनधिकृत कब्जेदारों की बेदखली) अधिनियम 1971 के तहत लाया जाए.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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