विज्ञान की एक प्रमुख पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि भारत में आईआईटी-आईआईएस समेत विज्ञान क्षेत्र के प्रतिष्ठित संस्थानों में फैकल्टी पदों को भरने के लिए आरक्षण नियमों का पालन नहीं हो रहा है. वहीं, इन संस्थानों के विभिन्न पाठ्यक्रमों में भी दलित और आदिवासी छात्रों का प्रतिनिधित्व कम है.
नई दिल्ली: विज्ञान की एक प्रमुख पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में विज्ञान क्षेत्र में कथित उच्च जातियों का वर्चस्व है.
रिपोर्ट में बताया गया है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) और भारतीय विज्ञान संस्थानों (आईआईएस) समेत कुलीन (एलीट) संस्थानों में आदिवासी और दलित समुदाय के छात्रों और प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है.
आरटीआई और अन्य आधिकारिक स्रोतों के जरिये जुटाए गए डेटा के हवाले से रिपोर्ट में बताया गया है कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों में फैकल्टी पदों को भरने के लिए आरक्षण (अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 फीसदी और दलितों के लिए 15 फीसदी) का पालन नहीं हो रहा है.
यह रिपोर्ट विभिन्न देशों में विज्ञान क्षेत्र में जातीय या नस्लीय विविधता पर डेटा की जांच करने वाली एक श्रृंखला का एक हिस्सा है.
रिपोर्ट में पाया गया है कि आदिवासियों और दलितों का स्नातक (अंडरग्रेजुएट) स्तर से ही विज्ञान पाठ्यक्रमों में कम प्रतिनिधित्व है. अंडरग्रेजुएट्स में आदिवासी एसटीईएम (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) कक्षाओं में 5 प्रतिशत से भी कम हैं. दलित प्रतिनिधित्व भी ऐसे ही रुझान दिखाता है.
ऐसी ही स्थिति एसटीईएम पाठ्यक्रमों के मास्टर (परास्नातक) कोर्स में भी है, जहां अधिकांश संस्थान अपनी एससी और एसटी सीटों को नहीं भर रहे हैं. इन समुदायों का प्रतिनिधित्व पीएचडी स्तर पर और भी कम हो जाता है, खासकर अधिक प्रतिष्ठित संस्थानों में.
2020 में पांच उच्च रैंक वाले आईआईटी- दिल्ली, बॉम्बे, मद्रास, कानपुर और खड़गपुर- में पीएचडी कार्यक्रमों के आंकड़े दिखाते हैं कि दलितों का औसतन प्रतिनिधित्व 10 फीसदी था और आदिवासियों का 2 फीसदी.
यह पांच मध्य रैंकिंग वाले आईआईटी- धनबाद, पटना, गुवाहाटी, रोपड़ और गोवा- के औसत से थोड़ा कम है.
रिपोर्ट के अनुसार, शीर्ष पांच आईआईटी में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के पीएचडी छात्रों और फैकल्टी सदस्यों की संख्या भी आरक्षण नीतियों के तहत अनिवार्य स्तर से नीचे है.
भारत के शीर्ष रैंक वाले विश्वविद्यालय बेंगलुरु के भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएस) का प्रदर्शन भी खराब है.
रिपोर्ट में शोधकर्ताओं के हवाले से आरक्षण नीतियों का पालन न करने के लिए संस्थानों के प्रमुखों को दोषी ठहराया गया है और कहा गया है कि सरकार ने भी उन्हें ढील दे रखी है.
रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष पांच आईआईटी और आईआईएससी में 98 फीसदी प्रोफेसर और 90 फीसदी से ज्यादा असिस्टेंट या एसोसिएट प्रोफेसर विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से हैं.
टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर)- जिसे ‘उत्कृष्ट संस्थान’ की उपाधि प्राप्त है- के सभी प्रोफेसर कथित ऊंची जातियों से हैं.
2016 और 2020 के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की इंस्पायर फैकल्टी फेलोशिप के आंकड़ों से पता चलता है कि 80 फीसदी प्राप्तकर्ता ‘ऊंची’ जातियों से थे, जबकि 6 फीसदी अनुसूचित जातियों और एक फीसदी से भी कम अनुसूचित जनजातियों से.
विभिन्न श्रेणियों के बीच अंतर को स्वीकार करते हुए गणितज्ञ और आईआईटी, बॉम्बे में फैकल्टी मामलों की डीन नीला नटराज ने कहा, ‘भेदभाव के साथ कम प्रतिनिधित्व की तुलना करना गलत है. कोई भेदभाव नहीं है.’
उन्होंने कहा कि संस्थान भर्ती के माध्यम से प्रतिनिधित्व में सुधार करने और पीएचडी के लिए कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों के अधिक से अधिक छात्रों को प्रोत्साहित करने का प्रयास कर रहा है.
रिपोर्ट में शोधकर्ताओं के हवाले से इस समस्या से निपटने के लिए कुछ उपाय भी सुझाए गए हैं, जिनमें संस्था प्रमुखों की उच्चस्तरीय जवाबदेही, विभिन्न डेटा को सार्वजनिक करना और स्कूली स्तर से ही समर्थन प्रणाली विकसित करना है.