अर्धसैनिक बलों में भर्ती: परीक्षा पास करने के बावजूद हज़ारों अभ्यर्थियों को नहीं मिली नौकरी

विशेष रिपोर्ट: अर्धसैनिक बलों के लगातार दो भर्ती चक्रों- 2015 और 2018 में केंद्र सरकार ने बिना कारण बताए हज़ारों सीटों को खाली छोड़ दिया. रिपोर्टर्स कलेक्टिव की पड़ताल में सामने आया है कि भर्ती की पेचीदा बनाई जा रही प्रक्रिया के कारण हर साल नौकरी के लिए पात्र हज़ारों युवाओं के सपने टूट रहे हैं.

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Attari: Border Security Force (BSF) personnel stand guard along the international border as security beefs up amid escalating tension between India and Pakistan, at Attari near Amritsar, Thursday, Feb. 28, 2019. (PTI Photo) (PTI2_28_2019_000121B)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

अर्धसैनिक बलों के लगातार दो भर्ती चक्रों- 2015 और 2018 में केंद्र सरकार ने बिना कारण बताए हज़ारों सीटों को खाली छोड़ दिया. रिपोर्टर्स कलेक्टिव की पड़ताल में सामने आया है कि भर्ती की पेचीदा बनाई जा रही प्रक्रिया के कारण हर साल नौकरी के लिए पात्र हज़ारों युवाओं के सपने टूट रहे हैं.

सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्स के तहत आने वाले असम राइफल्स के जवान. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: 15 जुलाई 2022 को जब मैंने अमिता सलाम से बात की तब उन्होंने बताया कि वर्दी के बगैर अपने घर वापस नहीं जा सकती थीं. छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के एक गांव के उनके पड़ोसियों को लगता था कि वे शादी करने के लिए किसी लड़के के साथ भाग गई हैं. अमिता कहती हैं, ‘मेरे परिवार को ताने सहने पड़ते थे, क्योंकि मैं उस नौकरी के बगैर वापस अपने घर नहीं जा सकती थी, जिसकी परीक्षा मैंने पास की थी.’

वर्दी पहनने का मौका तब उनके हाथ से जाता रहा जब केंद्र सरकार ने अर्धसैनिक बलों की विज्ञापित रिक्तियों में से हजारों सीटें भर्ती प्रक्रिया के आखिरी चरण में जाकर खत्म कर दीं. अमृता ने परीक्षा पास की थी और उनके दस्तावेजों का सत्यापन हो चुका था. वे नौकरी के लिए शारीरिक और मेडिकल फिटनेस की कसौटी पर भी खरी उतरी थीं. उन्हें योग्य (क्वालिफाइड) घोषित कर दिया गया था और वे उस नौकरी को हासिल करने के बेहद करीब थीं, जिसके लिए वे सालों से तैयारी कर रही थीं.

लेकिन आर्थिक तौर पर कमजोर पृष्ठभूमि से आने वाले समुदायों के हजारों युवकों और युवतियों की तरह अमिता का सपना भी तब चकनाचूर हो गया, जब केंद्र सरकार ने अर्धसैनिक बलों- जिन्हें आधिकारिक तौर पर सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्स कहा जाता है, जिसके अधीन बीएसएफ, सीआरपीएफ, सीआईएसएफ, आईटीबीपी, एसएसबी, असम राइफल्स और एनएसजी- एनआईए, एसएसएफ और असम राइफल्स- आदि आते हैं, के स्टाफ सलेक्शन कमीशन (एसएससी) के 2018 में विज्ञापित कॉन्स्टेबलों के 60,210 जनरल ड्यूटी (जीडी) पदों में से 4,295 को रिक्त छोड़ दिया.

अमिता और दूसरे उम्मीदवारों ने दिल्ली और दूसरी जगहों पर 17 महीने तक धरना-प्रदर्शन करके सरकार को अर्धसैनिक बदलों की खाली सीटों को भरने के लिए राजी करने की कोशिश की.

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने इस बात की तहकीकात की है कि आखिर क्यों अर्धसैनिक बलों की सीटें खाली जा रही हैं, जबकि उन सीटों पर काम करने की इच्छा रखने वालों की एक लंबी कतार खड़ी है. साथ ही सरकार की पेचीदा भर्ती प्रक्रिया के इर्द-गिर्द पसरे धुंध को भी साफ करने की कोशिश की गई है.

अतीत की भर्तियों की तफ्तीश करने पर यह पता चला है कि मोदी सरकार, जो 1 करोड़ नौकरियां सृजित करने के वादे को लेकर सरकार में आई थी, के दौरान भर्ती प्रक्रिया के बीच में विज्ञापित पदों में कटौती करने का एक चलन-सा दिखाई देता है, जिसे कई उच्च न्यायालयों ने गलत बताया है.

इसके अलावा केंद्र सरकार एक राज्य स्तरीय और दूसरे आरक्षणों पर आधारित एक जटिल आरक्षण नीति का भी इस्तेमाल करती है जिसने पूरी प्रक्रिया को और अपारदर्शी बना दिया है और भ्रमों को जन्म दिया है. विगत वर्षों में, जबकि बेरोजगारी चरम पर है, इस प्रक्रिया ने हजारों उम्मीदवारों से सरकारी नौकरी हासिल करने का मौका छीन लिया.

पेचीदा प्रक्रिया

सरकार को अर्धसैनिक बलों के संबंध में अपनी इस भर्ती प्रक्रिया, जिसके कारण हर साल हजारों नौकरियां समाप्त हो गईं, को लेकर कई सवालों का भी सामना करना पड़ा है.

एक उम्मीदवार, एक सांसद और एक उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से यह सवाल पूछा कि 2018 में शुरू हुई भर्ती प्रक्रिया के अंतर्गत 4,000 पदों को 2021 तक भी क्यों नहीं भरा गया है. इन सभी को सरकार द्वारा विरोधाभासी जवाब दिए गए.

एक आरटीआई के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने एक उम्मीदवार से कहा कि पदों को भरने के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं मिले. यह बात अपने आप में खोखली है क्योंकि खुद केंद्र द्वारा उन 60,210 पदों के लिए परीक्षा के सभी चरणों को उत्तीर्ण करनेवाले 1,09,552 उम्मीदवारों को योग्य घोषित किया गया था.

हालांकि सिर्फ क्वालिफिकेशन (योग्यता) नौकरी की गारंटी नहीं है, लेकिन पीएमओ ने सीटों को रिक्त रखने का कोई तार्किक कारण नहीं बताया.

इसी सवाल के एक दूसरे जवाब में गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने सांसद जसबीर गिल को बताया कि ये पद कैरी फॉरवर्ड होकर आए थे- यह विज्ञापित पदों के बराबर नियुक्तियां न करने को लेकर एक सांत्वना देने वाला जवाब था- और दावा किया कि अगली भर्ती प्रक्रिया में इन पदों को भरा जाएगा. लेकिन फिर भी इस बात का जवाब नहीं दिया गया कि आखिर क्यों इन पदों को भरा नहीं गया था.

उम्मीदवारों ने 2018 की भर्ती प्रक्रिया को लेकर अदालतों को दरवाजा खटखटाया और ऐसा एक मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर किया गया. केंद्र ने पिछले साल इस संबंध में अपना जवाबी हलफनामा (काउंटर एफिडिविट) दायर किया. इसके ब्यौरे काफी कुछ कहते हैं.

सरकार के हलफनामे को गौर से पढ़ने पर यह प्रकट होता है कि एक पेचीदा और अक्षम कोटा प्रणाली ने अर्धसैनिक बलों की भर्तियों को अपना बंधक बना लिया है.

केंद्र सरकार की ज्यादातर दूसरी नौकरियों के विपरीत अर्धसैनिक बलों की नियुक्तियां राज्य कोटों के आधार पर होती हैं, जो कुल आबादी के आधार पर आवंटित की जाती है. इसलिए भले ही एक खास राज्य के युवाओं में अर्धसैनिक बलों में नौकरी की तरफ ज्यादा आकर्षण हो, लेकिन उस राज्य से नौकरी पाने वालों की संख्या एक सीमा से ज्यादा नहीं हो सकती है. किसी दूसरे राज्य में जहां के युवा ऐसी नौकरियों के प्रति उतना आकर्षण नहीं रखते हैं, उस राज्य के लिए कोटा खाली रह जाता है. ऐसा साल दर साल होता है.

यह प्रक्रिया नंबर देने और मूल्यांकन की जटिल प्रणाली के कारण, जिसमें कि एक राज्य के भीतर भी एक जिले से दूसरे जिले में अंतर आ सकता है, और पेचीदा हो जाती है.

उम्मीदवारों को सबसे पहले एक लिखित परीक्षा देनी होती है. इसमें उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों को दस्तावेजों के सत्यापन के लिए बुलाया जाता है, जिसके बाद शारीरिक परीक्षा होती और अंत में मेडिकल परीक्षा होती है, जिसमें उम्मीदवारों को अपने शरीर की उन कमियों के बारे में पता चलता है, जिसके बारे में वे अब तक अनजान रहते हैं.

इन सभी में उत्तीर्ण करने वालों को योग्य घोषित कर दिया जाता है और वे अब कट-ऑफ अंकों का इंतजार करते हैं, जिससे यह तय होता है कि योग्य पाए गए उम्मीदवारों में से कौन-कौन अंततः चयनित उम्मीदवारों की सूची में जगह बना पाएगा.

यहां एक पेंच फंसता है.

किसी भी सरकारी भर्ती में कट-ऑफ अलग-अलग होते हैं और भर्ती प्रक्रिया जाति-आधारित होती है. लेकिन कॉन्स्टेबलों के लिए एसएससी जीडी भर्ती, जिसमें कि मुख्य तौर पर देश के ग्रामीण इलाकों के सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमजोर तबकों के लोग अपनी किस्मत आजमाते हैं, में जटिल मानदंडों की कई परतें हैं, जो उम्मीदवारों को अक्सर चकरा देते हैं.

पहली बात, हर राज्य को उसकी जनसंख्या के आधार पर एक कुल सीटों का एक निश्चित हिस्सा आवंटित किया जाता है. और फिर हर राज्य के भीतर जिलावार सीटों का आवंटन होता है, जिसमें विद्यार्थियों का बंटवारा उनके मूल जिले की प्रकृति यानी सीमावर्ती, सामान्य और नक्सल, के आधार पर किया जाता है. इससे आगे जिले के भीतर कट-ऑफ में जाति के आधार पर अंतर होता है.

उदाहरण के लिए, दलित समुदाय के दो विद्यार्थियों के लिए कट-ऑफ अलग-अलग होगा, अगर वे अलग-अलग प्रकृति के जिलों से आते हैं, मसलन एक नक्सल जिले से और एक सीमावर्ती जिले से. अगर नक्सल जिले की सीट खाली रह जाए, तो भी उसकी जगह पर सीमावर्ती जिले के योग्य उम्मीदवारों को नहीं चुना जाएगा. अगर किसी राज्य में पर्याप्त योग्य उम्मीदवार नहीं हैं, तो भी वे सीटें दूसरे राज्यों के वेटिंग लिस्ट वाले योग्य उम्मीदवारों को नहीं दी जाएंगी.

बीएसएफ सब इंस्पेक्टर के तौर पर सेवानिवृत्त होनेवाले मणिदेव चतुर्वेदी ने कहते हैं, ‘यह पूरी प्रणाली भर्ती प्रक्रिया को गैरजरूरी तरीके से पेचीदा और अबूझ तरीके से मुश्किल बनाने के लिए है. अर्धसैन्य बलों के लिए पूरा ध्यान शारीरिक परीक्षा पर होना चाहिए, जैसा कि हमारे समय में हुआ करता था, लेकिन अब इसकी जगह एक कहीं ज्यादा लंबी प्रक्रिया ने ले ली है.’

‘जीडी की भर्ती का प्राथमिक कारण कार्यबल है. अगर आपको पंजाब से एक योग्य उम्मीदवार नहीं मिलता है, तो आप छत्तीसगढ़ से भर्ती क्यों नहीं करते हैं? अगर आप कहते हैं कि पूर्व सैनिक का कोटा खाली है, तो आप उन युवाओं की भर्ती क्यों नहीं करते हैं, जो समुचित तरीके से योग्य हैं. मुझे इन रिक्तियों को न भरने का कोई कारण नहीं दिखाई देता है.’

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने उम्मीदवारों से बात की और उन्होंने कहा कि उन्हें ‘भर्ती प्रक्रिया के इस तरह से जटिल होने के बारे में कोई अंदाजा नहीं था.’

एक उम्मीदवार राघव शर्मा ने कहा, ‘हम सिर्फ देश की सेवा करना चाहते हैं. हमने सभी चरणों को सफलतापूर्वक पार किया है और वहां सीटें खाली हैं. हमें यह बात समझ नहीं आ रही है कि हमारी नियुक्ति के आड़े कौन सी चीज आ रही है.’

छिपे हुए आंकड़े

सैकड़ों अन्य उम्मीदवारों की ही तरह अमिता की अब परीक्षा में बैठने की उम्र निकल चुकी है. उसे, अन्यों की तरह यह नहीं पता था कि योग्य घोषित होने के बावजूद उसका खाली सीटों पर स्वाभाविक दावा नहीं बनता था, न ही उसे देशभर में योग्य उम्मीदवारों के होने के बावजूद राष्ट्रीय बल में सीटें खाली रखने का संकीर्ण तर्क ही समझ में आ सका. उसने अपनी इच्छाशक्ति के एक-एक कतरे का दोहन करते हुए अपना विरोध जारी रखा, यह जानते हुए कि यह सरकारी नौकरी पाने की उसकी आखिरी उम्मीद है: पिछले साल फरवरी में लगभग 1,200 उम्मीदवारों ने दिल्ली की सड़कों पर मार्च किया, नागपुर में 72 घंटे की भूख हड़ताल पर बैठे और आखिरकार नागपुर से दिल्ली तक 1,000 किलोमीटर का विरोध मार्च किया.

सरकार ने विरोध करने वालों की कमर तोड़ने के लिए अपनी पूरी शक्ति का इस्तेमाल किया. भाजपा शासित राज्यों की पुलिस और वहां के अधिकारियों ने दिल्ली तक के उनके मार्च में तमाम बाधाएं खड़ी कीं.

मध्य प्रदेश के सागर जिले के जिलाधीश ने उन्हें वहां से न जाने की सूरत में जेल में डालने की धमकी दी. उत्तर प्रदेश में पुलिस ने उन्हें पांच बजे सुबह आगरा के एक गुरुद्वारा में हिरासत में ले लिया और तीस-तीस लोगों के दलों में बांटकर उन्हें दूर-दराज के इलाकों में जाकर छोड़ दिया. हरियाणा में भी उन्हें हिरासत में लिया गया और पुलिस ने उनके अभिभावकों को फोन करके उन्हें इसे रोकने के लिए कहने की चेतावनी दी, अन्यथा वे लिए मुसीबतों में घिर जाएंगे.’ इन राज्यों की पुलिस सत्यापन के बहाने से प्रदर्शनकारियों के घरों तक पहुंच गई.

यह विरोध प्रदर्शन एक तरह से नौकरी खोजने वालों की राह में आने वाली मुश्किलों का एक प्रतीक है, जहां सरकारी नौकरियां बड़ी संख्या में उम्मीदवारों को अपनी तरफ आकर्षित करती है, खासतौर पर उस समय और ज्यादा जब अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी न हो. यहां गौरतलब है कि 2014 में मोदी युवाओं के लिए करोड़ों रोजगार पैदा करने का वादा करके सत्ता में आए थे.

लेकिन 2020 में राष्ट्रीय बेरोजगारी 23.5 प्रतिशत तक पहुंच गई और तब से सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के डेटा के मुताबिक 7 फीसदी से ऊपर बनी हुई है. सीएमआईई के डेटा के अनुसार दिसंबर, 2022 में भारत की बेरोजगारी दर बढ़कर 8.30 प्रतिशत हो गई, जो कि 16 महीने में सबसे ज्यादा है. पिछले महीने यह दर 8.00 प्रतिशत थी.

उम्मीदवारों ने द रिपोर्टर्स कलेक्टिव को बताया कि उनको लगता है कि सरकार रिक्तियों में कमी करके उनकी कीमत पर पैसे बचाने की कोशिश कर रही है. भर्ती की गणित को समझने के लिए मेरिट लिस्ट को गौर से देखने पर एक जगह और दिखी जहां भर्तियों को कम किया गया है और जो उम्मीदवारों के डर को मजबूत करनेवाला है.

रिक्तियों की अधिसूचना में कहा गया था कि 10 फीसदी सीटें पूर्व सैनिकों के लिए आरक्षित रहेंगी. इन सीटों के नहीं भरने की सूरत में ये सीटें बाकी वर्गों में बांट दी जाएगी. इस शर्त का उल्लंघन सिर्फ 2018 में ही नहीं किया गया है, 2015 की नियुक्ति प्रक्रिया के दौरान भी ऐसा किया गया है.

सरकारी डेटा के आधार पर इस रिपोर्ट के लेखक के हिसाब से इस वर्ग की ज्यादातर सीटें भरी नहीं गई थीं और इन्हें दूसरे वर्गों में नहीं बांटा गया है. इस हिसाब से देखें तो दो आरटीआई जवाबों में सरकार द्वारा दिया आंकड़ा गलत है. सिर्फ 4,000 के करीब सीटें ही खाली नहीं हैं, बल्कि ऐसी सीटों की संख्या 9,000 है, जिनमें पूर्व सैनिकों की सीटें भी शामिल हैं.

Attari: Border Security Force (BSF) personnel stand guard along the international border as security beefs up amid escalating tension between India and Pakistan, at Attari near Amritsar, Thursday, Feb. 28, 2019. (PTI Photo) (PTI2_28_2019_000121B)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

एसएससी की भूमिका

नियुक्ति की इस सारी प्रक्रिया का संचालन मंत्रालयों और विभागों के लिए नियुक्ति करने वाली एजेंसी कर्मचारी चयन आयोग (स्टाफ सलेक्शन कमीशन) द्वारा किया गया है.

मूल रूप से विज्ञापित पदों से कम सीटों को भरना और इस प्रक्रिया को तय समय सीमा से आगे लेकर जाने को अब चलन कहा जा सकता है. 2015 में एसएससी ने 64,066 पदों के लिए आवेदन मंगाए थे, लेकिन बाद में 5,376 सीटें खाली रख दी गईं. अर्धसैनिक बलों के लिए 2015, 2018 और हालिया 2021 के भर्ती अभियानों में नियुक्ति प्रक्रिया में काफी देरी देखी गई.

आयोग ने उम्मीदवारों के चयन में कट-ऑफ पार न करने वाले उम्मीदवारों की भी भर्ती करके चयन में गड़बड़ी की है और नियुक्ति की प्रक्रिया को छह महीने में पूरा करने की तय सीमा को बार-बार तोड़ा है.

एसएससी, कार्मिक विभाग के एक 2016 के आदेश से बंधा हुआ है, जो भर्ती करने वाली एजेंसियों से विज्ञापन की तारीख से छह महीने के भीतर भर्ती प्रक्रिया को पूरा करने के लिए कहता है.

2015 में एसएससी ने अंतिम मेरिट लिस्ट प्रकाशित करने में विज्ञापन की तारीख से दो साल से ज्यादा का समय लिया. 2018 में इसने ढाई साल से ज्यादा का वक्त लिया. अगर इस आदेश का पालन किया जाता, तो अर्धसैनिक बलों के लिए भर्ती की प्रक्रिया को जनवरी, 2019 तक पूरा हो जाना चाहिए था.

एसएससी के सचिव 2018 के भर्ती अभियान में देरी, जो 2021 तक चला, का ठीकरा महामारी पर फोड़ते हैं. लेकिन हकीकत यह है कि भारत में कोविड का पहला मामला, 27 जनवरी, 2020 में दर्ज हुआ था और मार्च, 2020 तक देश में लॉकडाउन नहीं लगा था. 2021 की नियुक्ति प्रक्रिया भी अभी तक पूरी नहीं हुई है.

उम्मीदवारों को इस पेचीदा चयन प्रक्रिया में गंभीर विसंगतियां मिली हैं. रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने अलग-अलग राज्यों के कुछ परिणामों को देखा, जो दिखाते हैं कि इनमें हेराफेरी की गई थी. हमने असम में एक ही जिले के एक ही जाति के दो उम्मीदवारों के परिणामों की तुलना की और पाया कि कट-ऑफ को पार न करने वाले उम्मीदवार को मेरिट लिस्ट में जगह मिल गई थी लेकिन उससे ज्यादा, मगर कट-ऑफ से कम ही अंक पाने वाले दूसरे उम्मीदवार को इसमें जगह नहीं मिली थी.

सबसे हैरान करने वाला यह है कि दोनों ने ही नक्सल जिले वाले वर्ग के तहत आवेदन किया था,  लेकिन एसएससी ने उनके जिले के लिए कट-ऑफ जारी नहीं किया. चूंकि न ही दोनों उम्मीदवारों को और न ही हमें यह पता है कि उनके चयन में किस कट-ऑफ को लागू किया गया था, हमने राज्य के कट-ऑफ को इसका कट-ऑफ माना है.

जबलपुर से एक उम्मीदवार प्रकाश ने कहा, ‘हम हर किसी के परिणाम को नहीं देख सकते हैं, क्योंकि इसे बिना नाम के रखा जाता है और जब तक कि अंतिम मेरिट लिस्ट में आने वाला कोई व्यक्ति अपना रिजल्ट आपके साथ साझा नहीं करता है, आप किसी की पहचान नहीं कर सकते हैं.’

दूसरे राज्यों के परिणामों की सैंपलिंग से भी यह पता चलता है कि परिणामों में गड़बड़ी सिर्फ असम तक सीमित नहीं थी. पश्चिम बंगाल और राजस्थान के ऐसे उम्मीदवारों को भी नियुक्ति पत्र (जॉइनिंग लेटर्स) मिले जो उन पर लागू होने वाले आरक्षित या अनारक्षित वर्ग में कट-ऑफ सीमा को पार नहीं कर पाए थे.

सरकार विभिन्न राज्यों, जिलों और वर्गों के लिए जटिल कट-ऑफ मैट्रिक्स को जारी नहीं करती है. इसलिए यह सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं है कि ऐसी गड़बड़ियां कितनी व्यवस्थित और व्यापक हैं.

सचिव के कार्यालय से संपर्क करने की कई कोशिशें की गईं, जिसने रिपोर्टर को उपसचिव (डिप्टी सेक्रेटरी) की तरफ भेज दिया, जिन्होंने इसे निचले स्तर के अधिकारियों का काम बताया. हमने तब संयुक्त सचिवों से संपर्क किया, लेकिन उनमें से किसी ने भी जवाब नहीं दिया. रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने अखिरकार एसएसएस के अवर सचिव (अंडर सेक्रेटरी) एचएल प्रसाद से संपर्क किया. जब उनसे पूछा गया कि आखिर क्यों विज्ञापित रिक्तयों के लिए भर्ती प्रक्रिया पूरी नहीं की है, तो उन्होंने कहा, ‘ये झूठे आरोप हैं. हमने उन रिक्तयों के लिए (भर्ती प्रक्रिया) पूरी कर ली है, जिसके लिए हमें उपयुक्त उम्मीदवार मिले.’ इससे आगे योग्य घोषित किए गए विद्यार्थियों के बारे में पूछे जाने पर प्रसाद ने फोन काट दिया.

कोर्ट के फैसलों से जगती उम्मीद

पिछले साल अगस्त में इस रिपोर्टर ने एक बार फिर अमिता से उनके फोन पर संपर्क करने की कोशिश की. लेकिन उनका फोन ऑन नहीं था. अमिता के साथ विरोध में शामिल एक दूसरे उम्मीदवार ने बताया कि पुलिस ने उसका फोन जब्त कर लिया था और उसे उसके संपर्क में रख दिया था.

अमिता अब अपने घर लौट गई है. वह तीस दिनों के भूख हड़ताल से काफी कमजोर हो चुकी है, अस्पतालों में सलाइन चढ़वाते हुए उसकी भूख मर चुकी है और 1000 किलोमीटर की पैदल यात्रा और कई बार पुलिस द्वारा हिरासत में लिए जाने के कारण उसे मानसिक जख्म मिले हैं. लेकिन उसे आज भी यह दृढ़ विश्वास है कि अगर सरकार ने कॉन्स्टेबल के खाली पदों को भरा होता, तो वह योग्य अभ्यर्थियों की सूची से निकल कर मेरिट लिस्ट में पहुंच गई होती, क्योंकि उनके अंक कट-ऑफ के बेहद करीब थे.

2015 में इसी पद की परीक्षा में फेल होने के बाद इस बार वह अपने सरकारी नौकरी के सपने के सबसे करीब तक पहुंची थी. लेकिन अब अमिता के पास तीसरा मौका नहीं है. अमिता जब परीक्षा में उत्तीर्ण हुई, तब उनका परिवार काफी खुश हुआ और उन्हें लगा कि अब उनके संघर्षों का अंत हो नेवाला है. अमिता रोते हुए कहती है, ‘मुझे यह नहीं पता था कि भविष्य में क्या छिपा है और सरकार हमारे प्रति इतना क्रूर व्यवहार करेगी.’

उम्मीदवारों के पास उम्मीद का एक टुकड़ा अदालतों और उनके फैसलों के रूप में बचा हुआ है. उम्मीदवारों ने केंद्र के 2015 में अर्धसैनिक भर्तियों के लिए विज्ञापित कुल सीटों में से 5,376 पदों को रिक्त रखने के फैसले के खिलाफ उत्तराखंड और बिहार के उच्च न्यायालयों का दरवाजा खटखटाया था.

तीनों अदालतों ने एक जैसा आदेश दिया. उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, ‘याचिकाकर्ताओं (आवेदकों) ने परीक्षा के सभी चरणों को पूरा किया और उन्हें योग्य/क्वालिफाइड घोषित किया गया था. फिर भी 5,376 पद खाली पड़े हैं और प्रतिवादी (एसएसएसी) इन रिक्तियों को पूरा न करने का कोई तार्किक कारण पेश नहीं कर पाया है.’ कोर्ट ने केंद्र को अक्टूबर, 2022 तक बची हुई रिक्तियों को भरने का आदेश दिया था.

2018 की भर्ती में बचे हुए रिक्त पदों को लेकर उम्मीदवारों द्वारा दायर किए गए एक मामले में 21 दिसंबर, 2022 को दिए गए अपने आदेश में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी सरकार से ‘उम्मीदवारों के पदभार ग्रहण न करने के कारण पैदा हुई रिक्तियां और साथ ही 2016 की सशस्त्र सीमा बल द्वारा कराई गई और सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्सेस द्वारा 2018 में कराई गई परीक्षा की बची हुई सीटों को मेरिट, वर्ग और आवास के क्रम में भरने का आदेश दिया.’

कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्णय की तारीख से चार हफ्ते के भीतर उम्मीदवारों की नियुक्ति सुनिश्चित कराने का भी निर्देश दिया. लेकिन जैसा कि विद्यार्थियों का कहना है, रिक्तियों को नहीं भरा गया है.

अमिता कहती है, ‘मैं जो करना चाहती थी, उसके लिए अपने परिवार को तैयार करना हमेशा से एक चुनौती था. जब मैं छोटी थी, तभी मेरे पिता गुजर गए. मेरे परिवार को समाज से काफी दबाव का सामना करना पड़ा. उन्होंने हमेशा मेरी मां से मेरी शादी कहीं करा देने के लिए कहा.’

वह कहती है, ‘मैं घर नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि मुझे पता था कि अगर मैं ऐसा करती हूं, तो यह मेरे सपनों का अंत होगा.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)