महाराष्ट्र में क़ानूनी सहायता सेवाओं तक 8 फीसदी से भी कम क़ैदियों की पहुंच: अध्ययन

महाराष्ट्र में क़ानूनी सहायता की स्थिति और उपलब्धता पर एक विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि 2016 और 2019 के बीच राज्य की जेलों में बंद कुल विचाराधीन क़ैदियों में से 8 फीसदी से भी कम क़ानूनी सहायता सेवाओं तक पहुंच बना सके. क़ैदियों में से अधिकांश अशिक्षित हैं और हाशिये की जातियों एवं धर्मों से संबंधित हैं.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

महाराष्ट्र में क़ानूनी सहायता की स्थिति और उपलब्धता पर एक विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि 2016 और 2019 के बीच राज्य की जेलों में बंद कुल विचाराधीन क़ैदियों में से 8 फीसदी से भी कम क़ानूनी सहायता सेवाओं तक पहुंच बना सके. क़ैदियों में से अधिकांश अशिक्षित हैं और हाशिये की जातियों एवं धर्मों से संबंधित हैं.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

मुंबई: यह सुनिश्चित करने के लिए कि भारतीय कानूनी प्रणाली न्याय को बढ़ावा देती है और यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी नागरिक वित्तीय या अन्य अक्षमताओं पर न्याय करने के अवसर से वंचित न रहे, भारतीय संसद ने 42वें संशोधन के माध्यम से 1976 में एक निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles) के रूप में अनुच्छेद 39(ए) को पेश किया था.

इसके बाद 1995 में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण की स्थापना के साथ ही अपने नागरिकों को मुफ्त कानूनी सहायता सुनिश्चित करना राज्य का संवैधानिक दायित्व बन गया.

लेकिन करीब तीन दशक बाद देश में कानूनी सहायता के हालात में बहुत कुछ सुधार की जरूरत है. महाराष्ट्र में कानूनी सहायता की स्थिति और उपलब्धता पर एक विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि 2016 और 2019 के बीच राज्य की जेलों में बंद कुल विचाराधीन कैदियों में से 8 फीसदी से भी कम कानूनी सहायता सेवाओं तक पहुंच बना सके.

राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय (एनएलयू) के फेयर ट्रायल फेलोशिप (एफटीएफ) प्रोग्राम के सहयोग से टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) के एक फील्ड एक्शन प्रोजेक्ट, प्रयास द्वारा किए गए अध्ययन ने कई खुलासे किए हैं.

30 साल पुरानी संस्था ‘प्रयास’ महाराष्ट्र की कई केंद्रीय और जिला जेलों में काम कर रही है. फेयर ट्रायल परियोजना ने भी बहुत कम समय में राज्य में उल्लेखनीय काम किया है.

‘महाराष्ट्र में विचाराधीन कैदियों के लिए कानूनी प्रतिनिधित्व 2018-21’ नामक रिपोर्ट में कानूनी सहायता सेवाओं में विश्वास की कमी और खराब गुणवत्ता की पहचान की गई है, जो ‘ट्रायल शुरू होने से पहले हिरासत में बंद कैदियों (Pretrial Detainees)’ द्वारा कानूनी सहायता सेवा के कम इस्तेमाल के मुख्य कारणों में कुछ हैं.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) से पता चलता है कि कैदियों में से अधिकांश अशिक्षित हैं और हाशिये की जातियों एवं धर्मों से संबंधित हैं. उनकी सामाजिक स्थिति का आपराधिक न्याय प्रणाली के साथ तालमेल बैठाने की क्षमता पर सीधा प्रभाव पड़ता है.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘वे जेल में जितना समय बंद रहना चाहिए, उससे अधिक समय तक बंद रहते हैं.’

चार साल से अधिक समय में किए गए इस अध्ययन में ‘प्रयास’ और ‘एफटीएफ’ दोनों के फेलो ने 9,500 से अधिक कैदियों से संपर्क किया. कैदियों का साक्षात्कार करने और व्यवस्था का बारीकी से अध्ययन करने के अपने अनुभव में, शोधकर्ताओं ने पाया कि कानूनी सेवा प्राधिकरण, पुलिस, अदालतों और जेल विभाग सहित विभिन्न आपराधिक न्याय संस्थानों के बीच समन्वय की घोर कमी है.

समन्वय की कमी का मतलब है कि कैदी, जिसके पास पहले से ही संसाधनों या नेटवर्क की कमी है, अपनी आजादी के लिए टूटी-फूटी व्यवस्था पर निर्भर है.

मेधा देव, शर्ली मुदलियार, सौगत हाजरा, अनूप सुरेंद्रनाथ और विजय राघवन द्वारा लिखित रिपोर्ट को 28 जनवरी को मुंबई में एक कार्यक्रम में जारी किया गया.

इस दौरान, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस पीएल नरसिम्हा, बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिल रमेश डी. धानुका के साथ महाराष्ट्र राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण (एमएसएलएसए) के कार्यकारी अध्यक्ष भी उपस्थित थे.

देव और राघवन ने अपनी प्रस्तुतियों में बताया कि अध्ययन पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र में आठ केंद्रीय और जिला जेलों में संगठनों द्वारा किए जा रहे कार्यों का परिणाम है.

अध्ययन किए गए डेटा में कुछ दिलचस्प रुझान दिखते हैं. अध्ययन कहता है कि संपर्क किए गए कुल कैदियों में से कम से कम 15 फीसदी 20 वर्ष से कम आयु के थे और 86 फीसदी 40 वर्ष से कम आयु के थे. अध्ययन में पाया गया कि 75 फीसदी से अधिक कैदी मैट्रिक पास भी नहीं थे.

अध्ययन में पाया गया है कि प्रत्येक विचाराधीन कैदी को अपने मुकदमे और जमानत आवेदनों के लिए ‘कानूनी सहायता देने वाली सरकारी वकील’ की आवश्यकता नहीं होती है. अध्ययन किए गए कुल विचाराधीन कैदियों में से करीब 65 फीसदी ने वकील बदलने या अपने मौजूदा वकील को सहयोग देने के लिए कानूनी सहायता प्राप्त की.

राघवन ने प्रस्तुति के दौरान बताया कि यह दोनों ही स्थिति अजीब थी और कानूनी सहायता की गुणवत्ता बता रही थीं, जो बचाव पक्ष के वकील अपने मुवक्किलों को देते हैं, खासकर कि तब जब मुवक्किल कमजोर सामाजिक पहचान से आते हों.

एक अन्य खुलासा यह है कि जमानत के बावजूद भी अधिकांश संख्या में कैदी जमानत की शर्तों को पूरा न करने के चलते जेल से निकलने में सक्षम नहीं थे.

सीमा पार के कैदी, जिन कैदियों का अपने परिवार के सदस्यों से संपर्क टूट गया है, और महिला कैदियों को अक्सर जमानत की शर्तों का पालन करना मुश्किल होता है.

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.