13 जनवरी को टैक्स में छूट से जुड़े एक मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सिक्किमी नेपाली समुदाय का उल्लेख करते हुए उन्हें ‘विदेशी मूल’ का बताया था. इसे लेकर राज्य में भारी जनाक्रोश के बीच स्वास्थ्य मंत्री और राज्य के महाधिवक्ता इस्तीफ़ा दे चुके हैं. वहीं, मुख्य विपक्षी दल सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट ने राज्यभर में शनिवार से 48 घंटे के बंद का आह्वान किया है.
नई दिल्ली: सिक्किम के प्रमुख विपक्षी दल- सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट (एसडीएफ) ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक निर्णय में सिक्किमी नेपाली समुदाय को ‘विदेशी मूल’ का बताए जाने को लेकर चल रहे विवाद को लेकर राज्यभर में दो दिन (चार-पांच फरवरी) के बंद का आह्वान किया है.
इसके साथ ही उसने शीर्ष अदालत द्वारा ऐसा कहने को लेकर सत्तारूढ़ सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा (एसकेएम) को जिम्मेदार ठहराते हुए मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग का इस्तीफ़ा मांगा है.
एसडीएफ ने अपने कार्यकर्ताओं से यह सुनिश्चित करने को कहा है कि बंद ‘शांतिपूर्ण और अहिंसक’ रहना चाहिए. हालांकि ख़बरों के मुताबिक, कुछ जगह प्रदर्शनकारी एसडीएफ कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री तमांग का पुतला भी फूंका है.
इससे पहले इस हफ्ते की शुरुआत में एसकेएम के कार्यकर्ता भी इसी फैसले को लेकर सड़कों पर उतरे थे.
क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला
उच्चतम न्यायालय ने 13 जनवरी 2023 के अपने आदेश में केंद्र को आयकर कानून 1961 की धारा 10 (26एएए) में ‘सिक्किमी’ की परिभाषा में संशोधन करने का निर्देश दिया था. कोर्ट ने कहा था कि सिक्किमी नेपाली समुदाय ‘प्रवासी’ है. इसी निर्णय में कोर्ट ने यह भी कहा कि ‘भूटिया और लेपचा’ जैसे एथनिक सिक्किमी समुदाय ‘सिक्किम के मूल निवासी’ हैं.
शीर्ष अदालत ने एसोसिएशन ऑफ ओल्ड सेटलर्स ऑफ सिक्किम की याचिका पर फैसला सुनाते हुए यह टिप्पणी की थी. एसोसिएशन ने उन सभी के लिए आयकर से छूट की मांग की थी जो सिक्किम के भारत संघ में 26 अप्रैल,1975 के विलय तक या उससे पहले से राज्य में बस गए थे.
कोर्ट ने कहा, ‘सिक्किम आयकर नियमावली, 1948 के तहत, व्यवसाय में लगे सभी व्यक्तियों को उनके मूल के बावजूद कर तहत लाया गया था. इसलिए, सिक्किम के मूल निवासियों यानी भूटिया-लेपचा और सिक्किम में बसे विदेशी मूल के व्यक्तियों जैसे नेपालियों या भारतीय मूल के व्यक्तियों, जो सिक्किम में कई पीढ़ियों पहले बस गए थे, के बीच कोई अंतर नहीं किया गया था.
फैसले में याचिकाकर्ता के इस तर्क को भी दर्ज किया गया कि अन्य देशों या ‘नेपाली प्रवासियों’ जैसे पूर्ववर्ती रियासतों के प्रवासी, जो ‘एक ही समय में या यहां तक कि भारतीय मूल के प्रवासियों/बसने वालों (सेटलर्स) के बाद भी सिक्किम में चले गए और बस गए’ थे, वे भी आईटी अधिनियम, 1961 की धारा 10 (26AAA) से लाभान्वित हो रहे थे, ‘जबकि याचिकाकर्ता जैसे भारतीय मूल के सेटलर्स को मनमाने ढंग से छोड़ दिया गया.’
इस फैसले से पहले ‘ओल्ड सेटलर्स’ को टैक्स छूट से बाहर कर दिया गया था, जो 26 अप्रैल, 1975 को भारतीय संघ में राज्य के विलय से पहले सिक्किम में स्थायी रूप से बस गए थे, भले ही उनके नाम सिक्किम सब्जेक्ट रेगुलेशंस, 1961 के तहत बनाए गए रजिस्टर में दर्ज किए गए हों, जिसे सिक्किम सब्जेक्ट रूल्स, 1961 के साथ रखा जाता है. (जो रजिस्टर ऑफ सिक्किम सब्जेक्ट्स के नाम से भी जाना जाता है.)
जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बीवी नागरत्ना की खंडपीठ ने राज्य को 26 अप्रैल, 1975 तक या उससे पहले सिक्किम में रहने वाले सभी भारतीय नागरिकों को आयकर भुगतान से छूट के तहत लाने के लिए एक खंड शामिल करने के लिए धारा 10 (26एएए) के स्पष्टीकरण में संशोधन करने का निर्देश दिया.
अदालत ने धारा 10 (26AAA) की एक प्रोविजो (proviso) (एक खंड जो किसी तरह की शर्त रखता है) को रद्द कर दिया, जिसमें सिक्किम की महिलाओं को, जिन्होंने 1 अप्रैल, 2008 के बाद गैर-सिक्कमी पुरुषों से शादी की थी, कर छूट के लाभ से बाहर कर दिया, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का हनन कर रहा था.
जस्टिस नागरत्ना ने जस्टिस शाह के साथ सहमति जताते हुए अलग से लिखे गए एक फैसले में कहा, ‘जब स्पष्टीकरण में किसी ‘व्यक्ति’ को संदर्भित किया जाता है, तो इसमें सिक्किम के पुरुष और महिला दोनों शामिल होते हैं, वास्तव में, सभी लिंग; इसमें केवल सिक्किमी पुरुषों के लिए सीमित नहीं किया जा सकता है और प्रोविजो के तहत आने वाली उन सिक्किमी महिलाओं को बाहर नहीं रख सकते हैं. कोई प्रोविजो किसी प्रावधान को खत्म नहीं कर सकता है.’
अदालत ने याचिकाकर्ता की दलील को भी स्वीकार कर लिया कि एक महिला कोई जागीर नहीं है और उसकी खुद की एक पहचान है, जिसे महज शादी होने की बात से ख़ारिज नहीं किया जा सकता है, जैसा कि शीर्ष अदालत ने पहले जी. शेखर बनाम गीता और अन्य (2009) के फैसले में कहा है.
कैसे शुरू हुआ विवाद
फैसला आने के बाद इसका स्वागत तो किया गया लेकिन फैसले में ‘सिक्किमी नेपाली’ नागरिकों को लेकर की गई टिप्पणी की व्यापक आलोचना शुरू हो गई. सोमवार को सत्तारूढ़ एसकेएम इसके खिलाफ सड़कों पर उतरी.
एसकेएम के प्रवक्ता जेकब खालिंग ने तब कहा कि इस मार्च को आयोजित करने के पीछे हमारा मुख्य मकसद उच्चतम न्यायालय द्वारा सिक्किम के नेपाली समुदाय को गलत तरीके से आप्रवासी बताए जाने के खिलाफ विरोध दर्ज कराना है.’
वहीं, याचिकाकर्ताओं ने भी कहा कि उन्होंने 2013 में एक आवेदन दायर किया था, जिसमें मामला दर्ज होने के तुरंत बाद सिक्किमी नेपालियों के ‘विदेशी मूल’ होने के सभी संदर्भों को हटाने के लिए कहा गया था. उनका कहना है कि अंतिम फैसले में इस आवेदन पर विचार नहीं किया गया.
मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग ने भी प्रदर्शनों के बीच कोर्ट की टिप्पणी को लेकर भी चिंता जाहिर की थी. उन्होंने एक सोशल मीडिया पोस्ट में कहा था, ‘मैं आश्वस्त करता हूं कि सिक्किम के नेपाली समुदाय को अनजाने में विदेशी के रूप में उल्लेख किए जाने के संबंध में किसी के साथ कोई अन्याय नहीं किया जाएगा… मैं न सिर्फ सिक्किमी नेपाली समुदाय के साथ, बल्कि अपने प्रिय राज्य के सभी समुदायों के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करता हूं. हम सब एक हैं और सदा एकजुट रहेंगे.’
मुख्यमंत्री ने सभी लोगों से संयम बरतने और न्यायपालिका पर भरोसा बनाए रखने की अपील की थी.
इसी जनाक्रोश के बीच राज्य के अतिरिक्त महाधिवक्ता (एएजी) सुदेश जोशी, जो शीर्ष अदालत में याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, ने बुधवार (1 फरवरी) को इस्तीफा दे दिया.
राज्य के राजनीतिक दलों ने महाधिवक्ता पर सिक्किम में बसी नेपाली आबादी और पूर्व में यहां बसे लोगों के बीच अंतर के बारे में अदालत को पर्याप्त जानकारी न देने का आरोप लगाया था.
मुख्य सचिव वीबी पाठक को लिखे पत्र में उन्होंने कहा, ‘मेरे खिलाफ कुछ झूठे और निराधार आरोप सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रसारित हो रहे हैं जो बिल्कुल गलत हैं. मेरी छवि को खराब करने और सरकार पर हमला करने के लिए ऐसा किया गया है. मौजूदा हालात में मेरी अंतरात्मा मुझे इस पद पर बने रहने की इजाजत नहीं देती.”
इसके अगले ही दिन गुरुवार (2 फरवरी) को राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मणि कुमार शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के मामले से राज्य सरकार द्वारा सही से न निपटने के विरोध में इस्तीफा दे दिया.
मुख्यमंत्री को भेजे त्यागपत्र में शर्मा ने कहा कि ‘राज्य सरकार ने सिक्किमी लोगों की भावना को गंभीरता से नहीं लिया है. मैं समझता हूं कि राज्य मंत्रिमंडल में अब और बने रहने की जरूरत नहीं है.’
सरकार ने दायर की पुनर्विचार याचिका
मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग ने गुरुवार को बताया कि शीर्ष अदालत की टिप्पणी में सुधार के लिए उनकी सरकार उच्चतम न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर कर चुकी है.
तमांग ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी में विधि विशेषज्ञों के साथ राज्य के अतिरिक्त महाधिवक्ता और विधि सचिव इस मामले को देख रहे हैं.
The Additional Advocate General of Sikkim and the Law Secretary, Government of Sikkim are handling the matter in New Delhi with legal experts.
2/4— Prem Singh Tamang (Golay) (@PSTamangGolay) February 2, 2023
उन्होंने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में कहा, ‘मैं सबको यह बताना चाहता हूं कि सिक्किम सरकार ने 13 जनवरी, 2023 को सुनाए गए फैसले में कुछ टिप्पणियों को लेकर सिक्किमी लोगों की शिकायतों को दूर करने के लिए उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक पुनर्विचार याचिका दायर की है.
उन्होंने कहा कि इस मामले को पूरी गंभीरता से लिया जा रहा है और सिक्किम के लोगों के अधिकारों और सम्मान की रक्षा के लिए सभी कदम उठाए जाएंगे.
थमा नहीं है आक्रोश
हालांकि, इस मसले को लेकर जनाक्रोश अभी थमता नजर नहीं आ रहा है. विभिन्न राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन इसे लेकर राज्य के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन कर रहे हैं.
पूर्व मुख्यमंत्री पवन चामलिंग की विपक्षी एसडीएफ ने 48 घंटे के सिक्किम बंद का आह्वान किया है. समाचार एजेंसी आईएएनएस के मुताबिक, पार्टी के अध्यक्ष चामलिंग ने कहा कि वे बंद के जरिये सिक्किम के लोगों से केंद्र सरकार को एक मजबूत संदेश देना चाहिए कि सिक्किम नेपाली समुदाय के लोग विदेशी नहीं हैं.
उन्होंने जोड़ा कि आम लोगों के लिए व्यक्तिगत रूप से सामने आना और आवाज उठाना संभव नहीं है. लोकतंत्र में, हम पर विदेशी और आप्रवासी का लांछन लगाए जाने के खिलाफ सामूहिक विरोध प्रदर्शित करने के लिए बंद का आह्वान करना उचित तरीका है.
पांच बार राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके चामलिंग ने 1975 के जनमत संग्रह पर भी सवालिया निशान लगाए. उन्होंने कहा, ‘सिक्किमी नेपाली समुदाय के खिलाफ इस तरह के संदर्भ से 1975 के जनमत संग्रह, जिसमें राजशाही के उन्मूलन और भारत के साथ तत्कालीन सिक्किम राज्य का विलय हुआ था, पर सवाल उठते हैं.
उन्होंने कहा कि जनमत संग्रह में अस्सी फीसदी मतदाता सिक्किमी नेपाली थे और देश के सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से यदि वे विदेशी हैं, तो यह जनमत संग्रह की वैधता और सिक्किम की स्थिति के बारे में संदेह पैदा करता है.
उल्लेखनीय है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में जातीयता (ethnicity) एक बेहद संवेदनशील मसला है.
सिक्किम प्रोग्रेसिव यूथ फोरम के महासचिव रुपेन कर्की बताते हैं, ‘इस हालिया फैसले ने सिक्किम के अधिकांश लोगों के भीतर डर पैदा कर दिया है. बरसों रह रहे लोगों को विदेशी मूल का बता दिया गया. इसने एक असुरक्षा की भावना को जन्म दिया है, जो सरकार को जनता द्वारा उठाए जाने वाले गंभीर मुद्दों को दबाने में मदद करेगी. बहुत लंबे समय से नेपाली लोगों को आप्रवासी या विदेशी मूल का बताया जाता रहा है.’
सिक्किम रिपब्लिकन पार्टी के अध्यक्ष केबी राय भी इस बात से हामी भरते हैं कि नेपाली समुदाय लंबे समय से पहचान के संघर्ष से जूझ रहे हैं. उन्होंने कहा कि सिक्किम के नेपाली समुदाय को वास्तव में गोरखा कहा जाना चाहिए, क्योंकि यह उनकी जातीयता को ‘नेपाली’ शब्द, जिसे लोग राष्ट्रीयता के साथ जोड़ लेते हैं, से कहीं बेहतर तरीके से बताता है.
राय ने कहा कि सिक्किम के नेपाली समुदाय को अब भी काफी भेदभाव का सामना करना पड़ता है. उन्हें सबसे अधिक निशाना बनाया जाता है.. भूटिया और लेपचा की तुलना में गोरखाओं के पास जमीन नहीं है. उन्हें विधानसभा में कोई आरक्षण भी नहीं मिलता.
राय ने कहा, ‘भले ही अदालत के आदेश में टिप्पणी को हटा दिया जाए, सिक्किम के नेपाली समुदाय को अब भी राज्य में समानता हासिल करने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़नी है.’
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)