2016 में पेरुमल मुरुगन की किताब ‘मधोरुबगन’ पर लगे अश्लीलता के आरोपों के चलते इस पर रोक लगाने की मांग ख़ारिज करते हुए मद्रास हाईकोर्ट की खंडपीठ ने कहा था कि जिसे किताब नहीं पसंद है वो इसे फेंक दे. इस पीठ में शामिल रहे जस्टिस एसके कौल ने बीते हफ्ते एक कार्यक्रम में कहा कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक सिद्धांत कलाकार के पक्ष में हैं, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता.
नई दिल्ली: लेखक पेरुमल मुरुगन और उनकी किताब ‘मधोरुबगन’ पर उनके दिए 2016 के फैसले के बारे में बोलते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों पर बात की. साथ ही यह भी जोड़ा कि किसी किताब या कलाकृति में ‘कथित अश्लीलता’ को पाठक या दर्शक द्वारा स्वयं लाया जाता है.
रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस कौल 25 फरवरी को चेन्नई में द हिंदू द्वारा आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्रम ‘लिट फॉर लाइफ’ में भाग ले रहे थे.
उन्होंने इस आयोजन में कहा कि सबसे विवादास्पद मुद्दों पर भी सैद्धांतिक बातचीत को सहज बनाना और यह सुनिश्चित करना कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनी रहे, जरूरी था.
जस्टिस कौल ने अपने भाषण में मद्रास हाईकोर्ट में रहते हुए दिए गए 2016 के अपने प्रसिद्ध आदेश को याद किया, जिसमें अश्लीलता के आरोपों (विशेष रूप से गाउंडर जाति समूह के चित्रण में) का सामना कर रही लेखक पेरुमल मुरुगन की किताब पर रोक लगाने से इनकार किया गया था. मद्रास उच्च न्यायालय की उस खंडपीठ में जस्टिस पुष्पा सत्यनारायण भी शामिल थीं.
अदालत के उस आदेश को इसकी स्पष्टता के लिए जाना जाता है, जिसमें कहा गया था,
‘पढ़ने का विकल्प हमेशा पाठक के पास होता है. अगर आपको कोई किताब पसंद नहीं है, तो उसे फेंक दें. किताब पढ़ने की कोई बाध्यता नहीं है. साहित्यिक पसंद अलग-अलग हो सकती है – जो एक के लिए सही और स्वीकार्य है वह दूसरों के लिए ऐसा नहीं भी हो सकता है. फिर भी, लिखने का अधिकार निर्बाध है.’
बीते शनिवार के कार्यक्रम में इसी आदेश के बारे में जस्टिस कौल ने कहा कि इसमें अश्लीलता के आरोपों को ख़ारिज कर दिया गया था.
बार एंड बेंच के अनुसार, उनका कहना था, ‘इसमें (निर्णय में ) माना गया कि कथित अश्लीलता जो मौजूद हो भी सकती है और नहीं भी, उपन्यास का केंद्रीय विषय नहीं था. किसी किताब या कला के काम में कथित अश्लीलता दर्शक द्वारा स्वयं दर्शक पर लाई जाती है. बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक सिद्धांत कलाकार के पक्ष में हैं और उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता.’
जस्टिस कौल को दिवंगत चित्रकार एमएफ हुसैन के काम को ‘अभद्र’ और ‘अश्लील’ बताने संबंधी मामले में साल 2008 में दिए गए महत्वपूर्ण फैसले के लिए भी जाना जाता है. हुसैन के खिलाफ आईपीसी की धारा 292 (अश्लील पुस्तक आदि का क्रय) के आरोप को खारिज करते हुए जस्टिस कौल ने अपने फैसले में कहा था कि कैसे ‘कला कभी पवित्र नहीं होती’ और इसकी प्रकृति ही खतरनाक होती है.
शनिवार को जस्टिस कौल ने कहा कि उन्हें अक्सर आश्चर्य होता है कि हुसैन जैसे कलाकारों और खुशवंत सिंह जैसे लेखकों ने उस स्थिति का सामना क्यों किया. उन्होंने सवाल किया, ‘क्या फायदा हो सकता है, खासकर अगर इसकी गंभीर व्यक्तिगत कीमत चुकानी पड़ती है, जैसा प्रोफेसर मुरुगन और हाल ही में सलमान रुश्दी के मामले में हुआ था? हमारे संविधान के निर्माताओं ने दुनिया भर के लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप ऐसे कामों की रक्षा और विशेषाधिकार देने का विकल्प क्यों चुना, खासकर जब उत्तेजक कला का प्रभाव सामाजिक व्यवस्था पर पड़ता है और कभी-कभी हिंसक भी हो सकता है?’
उन्होंने कहा कि इस तरह के प्रयास से ‘नई मानवता को रच सकते हैं, समाज को नया रूप दे सकते हैं, मौजूदा सामाजिक संरचना को थोड़ा-थोड़ा करके बदल सकते हैं.’
उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि कैसे एके रामानुजन के प्रसिद्ध निबंध तीन सौ रामायणों को कुछ समूहों के विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन वास्तव में इसमें दृष्टिकोणों की विविधता दिखाईगई थी.
उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की कलात्मक स्वतंत्रता का समर्थन करता है और इसकी अवहेलना नहीं की जानी चाहिए.