ग़ैर-चुनावी अवधि में जाति आधारित रैलियों के लिए दलों पर कार्रवाई का अधिकार नहीं: चुनाव आयोग

साल 2013 में लखनऊ के एक वकील द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग से उस याचिका पर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा था, जिसमें कहा गया था कि उसे उन राजनीतिक दलों पर रोक लगानी चाहिए, जो जाति और धार्मिक आधार पर सभाएं करते हैं. नई दिल्ली: बीते महीने इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर एक जवाबी हलफनामे में चुनाव आयोग ने गैर-चुनाव अवधि के दौरान अधिकार क्षेत्र की कमी और आदर्श आचार संहिता के बाहर जाति-आधारित रैलियों के खिलाफ कार्रवाई करने में सक्षम नहीं होने के लिए पार्टियों को पंजीकरण रद्द करने की सीमित शक्तियों

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

साल 2013 में लखनऊ के एक वकील द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग से उस याचिका पर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा था, जिसमें कहा गया था कि उसे उन राजनीतिक दलों पर रोक लगानी चाहिए, जो जाति और धार्मिक आधार पर सभाएं करते हैं.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: बीते महीने इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर एक जवाबी हलफनामे में चुनाव आयोग ने गैर-चुनाव अवधि के दौरान अधिकार क्षेत्र की कमी और आदर्श आचार संहिता के बाहर जाति-आधारित रैलियों के खिलाफ कार्रवाई करने में सक्षम नहीं होने के लिए पार्टियों को पंजीकरण रद्द करने की सीमित शक्तियों का हवाला दिया है.

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2013 में लखनऊ के अधिवक्ता मोती लाल यादव द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने चुनाव आयोग से जनवरी में उस याचिका पर अपनी प्रतिक्रिया प्रस्तुत करने के लिए कहा था, जिसमें कहा गया था कि आयोग को उन राजनीतिक दलों पर रोक लगानी चाहिए, जो जाति और धार्मिक आधार पर बैठकें करते हैं. याचिकाकर्ता ने यह भी कहा था कि चुनाव आयोग को ऐसी पार्टियों का पंजीकरण रद्द करना चाहिए.

चुनाव आयोग की ओर से उत्तर प्रदेश के संयुक्त मुख्य निर्वाचन अधिकारी द्वारा 16 फरवरी को दायर किए गए हलफनामे में कहा गया है कि आयोग के पास आचार संहिता अवधि के बाहर होने वाली जातिगत रैलियों के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति नहीं है, जो चुनाव की घोषणा से लेकर उसके पूरा होने तक लागू रहती है.

हलफनामे में कहा गया है, ‘चुनाव आयोग के पास गैर-चुनाव अवधि के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा जाति के आधार पर बैठकों और रैलियों के आयोजन को प्रतिबंधित करने और बाद में उनको चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करने का कोई अधिकार नहीं है.’

चुनाव आयोग ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 324 से प्राप्त पूर्ण अधिकार केवल चुनावों के संचालन के संबंध में थे और उसने इसके लिए आचार संहिता जारी किया था. हलफनामे में कहा गया है, आचार संहिता के पहले पैराग्राफ के अनुसार ‘राजनीतिक दलों को वोट हासिल करने के लिए जाति या सांप्रदायिक भावनाओं को अपील करने से बचना चाहिए’.

हलफनामे में बताया गया है कि चुनाव आयोग ने समय-समय पर निर्देश भी जारी किए हैं, जिसमें 15 सितंबर, 2009 को सभी मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को चुनाव के दौरान जाति और धार्मिक आधार पर बैठकों पर ‘पूरी तरह से नजर’ रखने के लिए पत्र लिखकर दिया गया निर्देश भी शामिल है.

चुनाव आयोग के पत्र में कहा गया था, ‘अगर कुछ सबूत मिलते हैं कि जाति का इस्तेमाल राजनीतिक/चुनावी उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है, तो आयोग को सूचित करते हुए कानून/आचार संहिता के उपयुक्त प्रावधानों के तहत कार्रवाई की जा सकती है.’

फिर 9 अक्टूबर, 2015 को चुनाव आयोग ने सभी राष्ट्रीय और राज्य के दलों को ‘अपने चुनाव अभियानों में अत्यधिक संयम और शालीनता का पालन करने तथा जाति-धर्म, समुदाय के आधार पर मतदाताओं के बीच मतभेदों को न बढ़ाने’ का ‘दृढ़ता से आग्रह और निर्देश’ दिया था.

चुनाव आयोग के हलफनामे में कहा गया है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 को चुनावी प्रक्रिया में ‘भ्रष्ट प्रथाओं’ को संबोधित करने के लिए अधिनियमित किया गया था. धारा 123 (3) के तहत जाति, धर्म, नस्ल, भाषा या समुदाय के आधार पर मतदान करने या इससे परहेज करने की अपील जैसी भ्रष्ट प्रथाओं को परिभाषित किया गया था.

चुनाव आयोन ने कहा कि उसके पास अधिनियम के तहत पंजीकृत किसी पार्टी को अपंजीकृत करने की शक्ति नहीं है.

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