‘बाबासाहेब: माई लाइफ विद डॉ. आंबेडकर’ गंभीर छवि वाले जननेता के सबसे सौम्य रूप को दिखाती है

पुस्तक समीक्षा: डॉ. बीआर आंबेडकर की पत्नी डॉ. सविता आंबेडकर की मूल रूप से मराठी में लिखी गई आत्मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद 'बाबासाहेब माई लाइफ विद डॉ. आंबेडकर' के नाम से आया है. यह किताब बाबासाहेब को विशिष्ट विद्वेता या युगांतरकारी छवि से उतारकर एक सामान्य, गृहस्थ के तौर पर सामने रखती है.

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(फोटो साभार: ट्विटर/@EOtherBooks)

डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय इतिहास का वह नाम हैं जिनके साथ लगने वाले विशेषणों से ही संभवतः पन्ने-दर-पन्ने भरते चले जाएंगे. भारतीय लोकतंत्र के संविधान निर्माता या दलितों के सबसे बड़े मसीहा या बौद्ध धर्म के लिए साक्षात कोई बोधिसत्व, यह सब कुछ बड़ी-बड़ी संज्ञा हैं, जो आंबेडकर के साथ जुड़ी हैं. स्वयं जीवन से बड़े इस व्यक्ति के जीवन स्वरूप को, उसकी जन छवि को इतिहास हो या मीडिया, सबने खूब चित्रित किया है, उभारा है और इस प्रकार लोक स्मृतियों का अविस्मरणीय हिस्सा बनाने में अपना योगदान दिया है. पर आंबेडकर अपने निजी जीवन में किस प्रकार के व्यक्ति थे, किसी भी पद या ज़िम्मेदारी के बगैर नितांत घरेलू स्तर पर अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में कैसे थे, इसके लिए हमें कोई स्रोत नहीं मिलते.

आंबेडकर की दूसरी पत्नी डॉ. सविता आंबेडकर की आत्मकथा जो मूल रूप से 1990 में मराठी में ‘डॉ. आंबेडकरच्या सहवासत’ नाम से प्रकाशित हुई थी, इस दृष्टि से एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है, जो आंबेडकर के निजी संसार को जानने के लिए निश्चित रूप से प्रारंभिक स्रोत का काम करती है. प्रसिद्ध अनुवादक-विद्वान नदीम खां ने हाल ही में मूल मराठी आत्मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद कर एक वृहत पाठक वर्ग तक इस पुस्तक को पहुंचाने का आवश्यक काम किया है.आत्मकथा का हिंदी अनुवाद डॉ. अनिल गजभिये ने किया था.

साल 1935 में टीबी से पहली पत्नी रमाबाई के देहांत के साथ कई वर्ष बिना साथी के गुजारने के बाद अपनी गिरती सेहत को ध्यान में रखते हुए और अपने क़रीबी मित्रों और कार्यकर्ताओं के इसरार पर आंबेडकर दूसरा विवाह करना स्वीकार करते हैं. आंबेडकर 16 मार्च 1948 को दादासाहेब गायकवाड़ को लिखे एक पत्र में कहते हैं कि कैसे एक महिला नर्स या केयरटेकर को रखने से बदनामी हो सकती है, इसलिए उनकी देखभाल करने के लिए शादी एक बेहतर तरीका होगा.

और संयोगवश ही डॉ. शारदा कबीर आंबेडकर के जीवन में आती हैं और 1948 के अप्रैल माह में आंबेडकर एक बार फिर विवाह के बंधन में बंध जाते हैं. यह साथ आंबेडकर की मृत्यु (दिसंबर 1956) तक अटूट रहा. इन 8-9 सालों के आंबेडकर के साथ व्यतीत जीवन की बानगी ही इस आत्मकथा का कथ्य है. पर देखा जाए तो इन कुछ-एक सालों में ही आंबेडकर के जीवन के कई महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मील के पत्थर भी जुड़े हुए हैं जिनकी पृष्ठभूमि या प्रक्रिया यह आत्मकथा बतलाती है. पर इसके अलावा यह आत्मकथा आंबेडकर को महामानव, विशिष्ट विद्वेता या युगांतरकारी छवि से उतारकर एक सामान्य व्यक्ति, एक गृहस्थ के रूप में सामने लाने का काम भी करती है.

पर आत्मकथा पढ़ते हुए एक बात जो बहुत महसूस होती है वह यह है कि संभवतः आत्मकथा लिखने का उद्देश्य यह स्पष्ट करना ज्यादा था कि कैसे आंबेडकर की मृत्यु पर लगाई जाने वाली अटकलों और तमाम बहसों को एक तार्किक उत्तर दिया जाए.

स्वयं पत्नी सविता पर आंबेडकरवादियों ने उन्हें मारने का आरोप लगाया, पर लोकसभा में जब 19 मंत्रियों द्वारा आंबेडकर की मृत्यु के कारणों की पड़ताल की उठाई गयी मांग की जांच- रिपोर्ट ने मृत्यु का कारण स्वाभाविक कारणों को माना, जिसे जीबी पंत (तत्कालीन गृहमंत्री) ने सदन के सामने पढ़ा, तब सबके सामने सच्चाई तो आई पर सविता पत्नी होने के नाते इस पूरी कारवाई को अपने पर, अपनी सेवा पर लगाया गया अभियोग समझती रहीं और इसलिए एक मुख्य स्वर जो इस आत्मकथा में अंतर्धारा के साथ चलती है, वह है, आंबेडकर के लचर स्वास्थ्य और दिन-प्रतिदिन गिरती सेहत के तमाम सबूत जो वह स्वयं आंबेडकर द्वारा लिखी चिठ्ठियों के माध्यम से बतलाती हैं.

आंबेडकर की मृत्यु के बाद जिस प्रकार आंबेडकर के दलित उत्तराधिकारियों  या पूरी दलित राजनीति ने पत्नी सविता को केंद्र से हटकर पृष्ठभूमि में धकेल दिया, वह सविता की नज़रों में आंबेडकर के स्वप्नों के भी हाशिये पर फेंक दिए जाने का संकेत था. पर इन सबके बावजूद भी सविता ने बाबासाहेब के दलित उत्थान के स्वप्न को नहीं छोड़ा और सामाजिक कार्यो की गतिविधियों को बनाए रखा. आगे चलकर वह दलित पैंथर जैसे जुझारू संगठन से भी जुड़ीं और इसके प्रचार-प्रसार में योगदान दिया.

यह आत्मकथा इसलिए हमें आंबेडकर के निजी जीवन की झलकियां दिखलाने के अलावा उनके निजी विचारों और कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक निर्णयों के पीछे के संदर्भों को भी बतलाती है. आत्मकथा चूंकि किसी साहित्यिक संरचना को ध्यान में रखकर नहीं लिखी गई थी, इसलिए यहां अध्याय नहीं हैं. 8-9 सालों के सह-जीवन को बस स्मृतियों के आधार पर क्रम में रखने का प्रयास मात्र दिखता है, पर जिस प्रकार जीवन सिलसिलेवार नहीं गुज़रता, उसी प्रकार यहां पर तथ्यों की, स्मृतियों की और घटनाओं की आवृति है.

चिट्ठियां इस आत्मकथा का सबसे प्रमुख स्रोत हैं जो विशेषकर आंबेडकर ने सविता या अपने क़रीबी लोगों, राजनीतिक हस्तियों को लिखीं. इसलिए पूरी आत्मकथा में आंबेडकर उपस्थित हैं- सविता की स्मृतियों से पुनर्जीवित किए गए.

जब सविता बाबासाहेब से मिलीं तब वह वायसराय की कार्यकारी समिति में श्रम मंत्री के रूप में एक प्रमुख सदस्य थे और बाद में आज़ाद भारत के नेहरू मंत्रिमंडल में विधिमंत्री बनने वाले थे. पर लोक जीवन में इतना सशक्त व्यक्ति शारीरिक स्तर पर कई व्याधियों से ग्रस्त था. यही वह दौर था, जब आंबेडकर शुगर, बीपी, आर्थराइटिस, न्यूरोपैथिक दर्द से भी जूझ रहे थे और पत्नी के रूप में उन्हें एक ऐसा जीवनसाथी चाहिए था, जो सेहत के मोर्चे पर उन्हें सशक्त कर सके, उनका खयाल रख सके.

ऐसे में जब डॉ. शारदा कबीर, जो बॉम्बे (अब मुंबई) में अपने वरिष्ठ डॉ. मावलंकार के क्लिनिक में प्रैक्टिस कर रही थीं, आंबेडकर के एक परिचित मित्र डॉ. राव के घर में उनसे संयोगवश मिलीं, और यह पहचान, मित्रता और फिर विवाह में परिणत हुई. और संभवतः डॉ. कबीर की अनथक सेवा और एकनिष्ठ समर्पण ही वह ईंधन बन सका, जिससे आंबेडकर के जीवन की गाड़ी कई वर्षों तक चल सकी.

पर महान व्यक्तियों, जिन्हें इतिहास में अविस्मरणीय बना दिया जाता है, उनके साथ रहना प्रायः आसान नहीं होता. उस जीवन के अपने मूल्य चुकाने पड़ते हैं. बाबासाहेब, जिन्होंने एक चिठ्ठी लिखकर सविता से शादी करने का प्रस्ताव रखा था, व्यक्ति के रूप में किसी भी दृष्टि से आसान नहीं थे. अनुशासन, संयम, और दलित समुदाय के उत्थान के अपने जीवन-लक्ष्य के प्रति समर्पित योद्धा को अपने निजी जीवन में एक ऐसे साथी की आवश्यकता थी, जो उनके लक्ष्य में सहयोगी बन सके, उनकी मयार पर उतार सके. आंबेडकर इस संदर्भ में लिखते हैं:

‘जीवन के मेरे इस चरण में मेरा उद्देश्य शांति और सम्मान से, अपने अस्तित्व के अंत तक पहुंचना है. इसमें खुशियां भी जुड़ जाएं तो अच्छा है और एक प्यार करने वाली पत्नी ऐसा कर सकती है. पर ऐसी कोई न मिले, तो हानि सुख की ही होगी. मेरे पास कम-से-कम शांति और सम्मान तो होगा ही.’

और जब सविता हर दृष्टि से इस प्रस्ताव पर विचार कर आंबेडकर को ‘हां’ में जवाब देती हैं तो स्वयं भी यह महसूस करती हैं कि

‘मैंने अब लाखों बेसहारा-दलित लोगों के राजा की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली थी. मैंने अपने सिर पर एक महान लेकिन काफी कठिन जिम्मेदारी डाल ली थी. क्या मैं इस बेहद मुश्किल और खतरनाक जिम्मेदारी को निभा सकूंगी?’

और सविता वस्तुतः दलितों के इस मसीहा को ‘राजा’ ही कहकर संबोधित करती रहीं और विवाह के बाद सविता नाम देने के बाद भी आंबेडकर जीवनपर्यंत शारदा को ‘शारु’ कहते रहे. आत्मकथा में सविता, आंबेडकर के व्यक्तित्व के उन पहलुओं को उभारती हैं, जो अब तक अनदेखे थे. उनके दलित जीवन के प्रारंभिक कष्टों और विद्यार्थी जीवन में की गई साधनाओं को समझाते हुए वह आंबेडकर के निर्माण की परिस्थितियों को स्पष्ट करती हैं.

एक तरफ, जीवनपर्यंत दलितों के अधिकार की बात करने वाले व्यक्ति के उद्देश्य के कारणों की पड़ताल करती हैं पर इससे इतर एक व्यक्ति रूप में भी उन्हें ग्रहण करने का प्रयास करती हैं. एक प्रेमी-रूप और फिर बाद में पति-रूप, आंबेडकर के व्यक्तित्व के वह पहलू हैं, जहां एक गहन गंभीर विद्वान की छवि वाला जननेता अपने सबसे कोमल, संवेदनशील और सौम्य रूप में पाठकों को नज़र आता है.

इन रूपों में भी आंबेडकर की विचारशीलता केंद्र में रहती है, पर मानवीय चरित्र की सभी खूबियों, खामियों के साथ आंबेडकर अधिक मानवीय हमें मिलते हैं. और इसलिए संभवतः व्यक्तित्व की वह कमज़ोरियां भी सविता उभारती हैं, जो अमूमन महानता के बाह्य आवरण के पीछे छुपी रह जातीं हैं.

उन सभी पत्रों, जो लगभग पहले परिचय के बाद से शादी तक आंबेडकर और सविता एक दूसरे को लिखते रहे, के अध्ययन से आंबेडकर एक ऐसे प्रेमी के रूप में नजर आते हैं जो उम्र के इस पड़ाव पर भी अपने प्रेम पर, प्रिय पर अपना पूर्ण एकछत्र अधिकार चाहता है. इसका प्रमाण यह भी है कि आंबेडकर से शादी के बाद सविता जो डॉक्टर शारदा थीं, वह अपनी प्रैक्टिस छोड़कर सिर्फ आंबेडकर के स्वास्थ्य की देखभाल में लग जाती हैं और स्वयं को सिर्फ उन तक सीमित कर लेती हैं.

विवाह जैसी सामाजिक संस्था के संदर्भ में आंबेडकर के विचार पारंपरिकता और आधुनिकता का मेल थे. जहां एक तरफ वह यह मानते हैं कि विवाह एक चिरस्थायी मिलन है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता, वहीं वह यह भी कहते हैं कि विवाह का आधार सिर्फ प्रेम हो सकता है, जिसे केवल अपने प्रिय का हो जाने की लालसा के अलावा किसी अन्य शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता है.

और संभवतः इस आत्मकथा के भी सबसे सुंदर और रोचक हिस्से वह हैं, जहां सविता, बाबासाहेब के साथ अपने संबंधों की विविध स्मृतियों को पुनर्जीवित करती हैं. चाहे वह विवाह के बाद आंबेडकर के साथ शुरू किए गए वैवाहिक जीवन के छोटे-छोटे ब्यौरे हों या आंबेडकर की निजी पसंद-नापसंद की बातें -सब से एक चीज़ जो प्रमुख रूप से उभरती है, वह यह कि आंबेडकर अपने निजी जीवन में भी अपनी मान्यताओं, नियमों, तरीकों, पसंद-नापसंद को लेकर बहुत सतर्क थे, निश्चित थे.

मसलन, तमाम नौकरों के बाद भी सुबह नाश्ते की मेज़ पर सविता के हाथों से बनाया गया व्यंजन खाने की परंपरा हो, या संसद जाते हुए तैयार होने की कवायद में सविता का रोज शर्ट-कोट उनकी बाजुओं में डालना-यह सब दिखलाता है कि कैसे आंबेडकर पति-पत्नी के संबंधों में पत्नी की सेवा और एकनिष्ठता को अपना अधिकार समझते थे.

आंबेडकर की पसंद सिर्फ अपने पहनावे या खान-पान तक सीमित नहीं थी, बल्कि पत्नी सविता के पहनने-ओढ़ने पर भी वह अपनी विशिष्ट राय रखते थे. वह लिखती हैं कि कैसे बाबासाहेब ने उनसे जुड़ी हर चीज में बारीक दिलचस्पी ली और उन्हें क्या पहनना चाहिए और क्या करना चाहिए, इस पर उनकी अपनी अपेक्षाएं थीं. 

सविता उन प्रसंगों का ज़िक्र करती हैं, जब उन्हें संसद के आगंतुक गलियारे में बैठने जाना होता और आंबेडकर की पसंद की साड़ी पहने वह उनकी नज़रों की सीध में बैठतीं, ताकि आंबेडकर अपना भाषण पढ़ते समय सविता को देखकर अपनी बात सदन के सामने रख सकें.

एक अन्य प्रसंग में, आंबेडकर अपने बेटे यशवंत की शादी के लिए वधू की तलाश में अपने मित्र को लिखे एक पत्र में लड़की की योग्यताओं में उसके सुंदर और गोरे होने की शर्त सबसे पहले रखते हैं, जिसे जानकर हैरत होती है. आज के पाठकों को शायद यह पारंपरिक और पितृसत्तात्मक होने का संकेत दे सकता है, पर यहां व्यक्ति आंबेडकर के निजी विचारों पर टिप्पणी करने से अधिक ज़रूरी यह है कि हम इस पूरे व्यक्तित्व को उसके समय और समाज के परिप्रेक्ष्य में समझें.

पर इन सबके साथ ही सविता आंबेडकर के उन विविध रूपों- चाहे वह गहन अध्येता और विचारक का हो या बौद्ध धर्म के गंभीर मननकर्ता का, या कानून बनने वाले मंत्री का, पर भी यथेष्ट प्रकाश डालती हैं और आंबेडकर के व्यक्तित्व को उसकी संपूर्णता में उभारती हैं. किताबों के प्रति आंबेडकर के प्रेम का उल्लेख करते हुए कविता लेखक आंबेडकर की किताब-दर-किताब लिखने की पूरी प्रक्रिया भी बताती हैं, जिससे पाठकों को आंबेडकर की अनथक मेहनत और लगन का पता सहज ही लगता है:

‘उनके दिमाग में कई विषय उमड़ते-घुमड़ते रहते थे. एक बार कोई विषय या कोई मुद्दा उनकी कल्पना में आ जाता, तो उसकी रूपरेखा फ़ौरन तैयार हो जाती. फिर, अध्यायों और विषय-सूची का स्थानांतरण और फेरबदल होता. और यह प्रक्रिया बार-बार तब तक होती रहती, जब तक पुस्तक की वास्तविक छपाई शुरू नहीं हो जाती.’

इस आत्मकथा से गुज़रने के बाद यह निश्चय ही लगता है कि पत्नी होने के अतिरिक्त यह आत्मकथा उस व्यक्ति के भी संस्मरण हैं जो आंबेडकर का चरम प्रशंसक है और सिर्फ प्रशंसक ही नहीं बल्कि एक अर्थ में उपासक भी है. इसलिए आंबेडकर के संदर्भ में सविता तटस्थ नहीं रह पातीं और संभवतः यही वजह है कि आंबेडकर जो करोड़ों के प्रिय जननायक थे, सार्वजनिक जीवन में जिसके अनगिनत आलोचक थे, उनके संदर्भ में उनकी पत्नी आलोचनात्मक रुख नहीं अपनातीं.

इससे इतर सविता कई ऐसी घटनाओं का उल्लेख करती हैं, जहां वह आंबेडकर का पक्ष या उनके निर्णय के आधारों को स्पष्ट करती नजर आती हैं. मसलन आंबेडकर और गांधी के आपसी मतभेदों और पूना पैक्ट से जुड़ी घटनाओं में वह आंबेडकर का पक्ष रखती हैं:

‘हालांकि यह गांधीजी थे जो उपवास कर रहे थे, वास्तव में यह डॉ. आंबेडकर का जीवन था, जो संकट में था. बजाय यह कहना कि पूरे देश में आंबेडकर विरोधी माहौल फैला हुआ था, यह कहना अधिक उचित होगा कि पूरे देश में जानबूझकर आंबेडकर विरोधी माहौल बनाया गया था.’

सविता, आंबेडकर के जीवन में स्वयं को यशोधरा मानती हैं. आत्मकथा के पहले ही पृष्ठ पर वह यशोधरा की-सी अपनी जिम्मेदारियों के विषय में स्पष्ट करते हुए कहती हैं कि कैसे शारीरिक रूप से धीरे-धीरे क्षय होते जाने वाले आंबेडकर के जीवन में उनके आने के कारण ही वह बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने का ऐतिहासिक निर्णय ले सके.

जिस प्रकार स्वयं गौतम बुद्ध ने पत्नी यशोधरा से ‘अत्तही अत्तानो नाथो'(व्यक्ति का आश्रय उसके भीतर ही होता है) कहा था, उसी तरह सविता भी यह स्वीकार करती हैं कि आंबेडकर ने भी उन्हें सदैव अपना पथ स्वयं चुनने, अपने निर्णय स्वयं लेने को कहा. और महात्मा बुद्ध और यशोधरा की तरह ही आंबेडकर और सविता, पति-पत्नी से अधिक गुरु-शिष्य अधिक थे, जहां सविता आंबेडकर में लीन होकर, उनसे सीखती रहीं, उनके कहे पर चलती रहीं.

इसलिए आत्मकथा में कई स्थानों पर सविता आंबेडकर के जीवन के निर्णायक क्षणों में अपनी उपस्थिति और महत्ता को भी रेखांकित करती हैं, जो कई पाठकों को आत्मप्रशंसा भी लग सकती है. पर यह आत्मप्रशंसा इसलिए भी नहीं अखरती क्योंकि महान पतियों को इतिहास में याद रखने वाला समाज अक्सर उस महानता को पुष्ट करने वाले कारकों, उनके पीछे खड़े लोगों विशेष रूप से स्त्रियों को भूल जाता है और इसलिए कई बार यह आवश्यकता होती है कि थोड़ा मुखर होकर अपने द्वारा किए गए समर्पण और योगदान को समाज को बतलाया जाए.

इस नोट पर ही इस आत्मकथा को एक समर्पित पत्नी और एक सहयोगी की आपबीती मानकर ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्वयं सविता यह स्वीकारती हैं कि इस पुस्तक को लिखने का फैसला लोगों के सामने अपने दिल को खोलकर रखने और अपनी आत्मा की पीड़ा को उड़ेल देने की बलवती इच्छा से प्रेरित था.

आंबेडकर के नितांत मानवीय रूप को समझने की दिशा में यह आत्मकथा एक प्रामाणिक स्रोत की तरह तो समझा जाना ही चाहिए साथ ही एक स्त्री के संघर्ष, संबंधों में उसके पक्ष को समझने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण संस्मरण मानना चाहिए.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)

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