समलैंगिक विवाह: सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा, कहा- संसद से क़ानून बनाने को नहीं कह सकते

समलैंगिक विवाहों को क़ानूनी मंज़ूरी देने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई करने के बाद सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा कि एक संवैधानिक सिद्धांत है जिस पर हम क़ायम रहे हैं- हम क़ानून या नीति बनाने का निर्देश नहीं दे सकते, हम नीति निर्माण के क्षेत्र में नहीं जा सकते.

(इलस्ट्रेशन: द वायर)

समलैंगिक विवाहों को क़ानूनी मंज़ूरी देने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई करने के बाद सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा कि एक संवैधानिक सिद्धांत है जिस पर हम क़ायम रहे हैं- हम क़ानून या नीति बनाने का निर्देश नहीं दे सकते, हम नीति निर्माण के क्षेत्र में नहीं जा सकते.

(इलस्ट्रेशन: द वायर)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 10 दिनों तक चली सुनवाई के बाद समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया. शीर्ष अदालत ने दोहराया कि वह संसद को कानून बनाने के लिए नहीं कह सकती है या नीति निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकती है.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ उन दलीलों का जवाब दे रही थी कि अदालत द्वारा केवल यह घोषणा करने कि समलैंगिक जोड़ों को शादी करने का अधिकार है, से उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी.

पीठ में शामिल जस्टिस एसआर भट्ट ने कहा, ‘एक संवैधानिक सिद्धांत है जिस पर हम कायम रहे हैं- हम कानून बनाने के लिए निर्देश नहीं दे सकते, हम नीति बनाने का निर्देश नहीं दे सकते, हम नीति निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकते.’

जबकि याचिकाकर्ताओं ने विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए)- 1954 को फिर से परिभाषित करके कानूनी मान्यता मांगी है, केंद्र का कहना रहा है कि मामला संवेदनशील है और इसे विधायिका पर छोड़ देना चाहिए.

कुछ याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता एएम सिंघवी ने पीठ को बताया कि सिविल यूनियन, जैसा कि कुछ देशों में अनुमति है, समलैंगिक जोड़ों की उस मांग का समाधान नहीं है जो वह कर रहे हैं.

पीठ में जस्टिस एसके कौल, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा भी शामिल हैं.

सिंघवी ने आगे तर्क दिया कि यह बराबरी का विकल्प नहीं है और विवाह की संस्था से गैर-विषमलैंगिक (नॉन-हेट्रोसेक्सुअल) जोड़ों के बहिष्कार से खड़ी होने वाली संवैधानिक विसंगति को संबोधित नहीं करता है.

सिंघवी ने कहा कि समलैंगिक जोड़ों को नागरिक विवाह से बाहर करके सरकार घोषणा करती है कि उनकी और विषमलैंगिक जोड़ों की प्रतिबद्धताओं के बीच अंतर करना वैध है. उन्होंने कहा कि अंततः संदेश यह है कि समलैंगिक जोड़े ‘असली’ विवाह जितने महत्वपूर्ण नहीं हैं और इन ‘कमतर रिश्तों’ को विवाह का नाम नहीं दिया जा सकता है.

कुछ याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन ने भी एक ऐसी स्थिति का उल्लेख किया, जहां अदालत केवल घोषणा करती है और बाकी विधायिका पर छोड़ देती है, जैसा कि तीन तलाक, ट्रांसजेंडर अधिनियम, डेटा संरक्षण और अन्य मामलों में हुआ. उन्होंने कहा कि ये ऐसे उदाहरण थे जहां विधायिका में बैठे बहुमत को इनसे कोई गंभीर समस्या नहीं थी.

रामचंद्रन ने कहा कि वह केवल यह कहने की कोशिश कर रहे हैं कि याचिकाकर्ता एक ‘अलोकप्रिय अल्पसंख्यक’ हैं और इसलिए वह अदालत से सब-कुछ समझने और उनकी रक्षा करने की गुहार लगा रहे हैं.

वरिष्ठ अधिवक्ता केवी विश्वनाथन ने कहा कि शादी करने के अधिकार से अधिक सवाल यह है कि क्या गैर-विषमलैंगिक जोड़ों को गैर-भेदभावपूर्ण तरीके से विवाहित जोड़ों के रूप में मान्यता देना (भारत) सरकार का कर्तव्य है.

समलैंगिक जोड़ों द्वारा बच्चे गोद लेने के अधिकार पर बहस करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने कहा कि दुनिया में 50 से अधिक देश हैं जो इसकी अनुमति देते हैं. यह उन देशों की संख्या से अधिक है जो समलैंगिक विवाह की अनुमति देते हैं.

मालूम हो कि सरकार समलैंगिक विवाहों का लगातार विरोध करती रही है. बीते मार्च महीने में भी केंद्र की मोदी सरकार ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं का सुप्रीम कोर्ट में विरोध किया था.

केंद्र ने कहा था कि विपरीत लिंग के व्यक्तियों के बीच संबंध (Heterosexual Relations) ‘सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी रूप से शादी के विचार और अवधारणा में शामिल है और इसे न्यायिक व्याख्या से हल्का नहीं किया जाना चाहिए.’

गौरतलब है कि सरकार ने बीते दिनों एक हलफनामा पेश करते हुए कहा था कि समलैंगिक विवाह ‘अभिजात्य वर्ग का विचार’ है.

हालांकि, इसके बाद सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा था कि सरकार के पास यह साबित करने का कोई डेटा नहीं कि समलैंगिक विवाह ‘शहरी अभिजात्य विचार’ है. उनका कहना था कि सरकार किसी व्यक्ति के खिलाफ उस लक्षण के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकती है, जिस पर व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं है.’