हसरत मोहानी: दरवेशी ओ इंक़िलाब है मसलक मेरा

पुण्यतिथि विशेष: ‘मुकम्मल आज़ादी’ और ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ का नारा बुलंद करने वाले हसरत मोहानी के बारे में डाॅ. आंबेडकर कहते थे कि वही एकमात्र ऐसे नेता हैं जो समानता का ढोंग करने के बजाय अपने हर आचरण में उसे बरतते हैं.

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हसरत मोहानी. (फोटो साभार: विकिपीडिया)

पुण्यतिथि विशेष: ‘मुकम्मल आज़ादी’ और ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ का नारा देने वाले हसरत मोहानी के बारे में डाॅ. आंबेडकर कहते थे कि वही एकमात्र ऐसे नेता हैं जो समानता का ढोंग करने के बजाय अपने हर आचरण में उसे बरतते हैं.

हसरत मोहानी (फोटो साभार: विकिपीडिया)

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है, वहीं हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं. …यकीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद, हम अपना घर-गली अपना मुहल्ला छोड़ आए हैं.

अवध के हरदिलअजीज शायर मुनव्वर राना द्वारा अपने बहुचर्चित ‘मुहाजिरनामा’ में लिखी गई ये पंक्तियां बताती हैं कि स्वतंत्रता संघर्ष के अलबेले नायक और अपने वक्त के मशहूर शायर मौलाना हसरत मोहानी (01 जनवरी, 1875-13 मई, 1951) आज भी न सिर्फ हमारे देश में बल्कि इसकी सीमाओं के पार भी एक कसक का नाम बने हुए हैं, बल्कि ऐसे अरमानों का नाम भी हैं, जिनके बारे में एक शायर के शब्द उधार लेकर कहें तो बहुत निकले लेकिन फिर भी कम निकले.

यह और बात है कि हमारी सामाजिक कृतघ्नता ने 1951 में उनके दुनिया से जाते ही उनकी यादों पर राख डालने की कवायदें शुरू कर दी थीं. लेकिन जैसा कि स्वतंत्रता आंदोलन का सच्चा इतिहास संजोने और क्रांतिकारी आंदोलन का दस्तावेजीकरण करने के कामों के प्रति समर्पित लेखक सुधीर विद्यार्थी ने लिखा है: इसके बावजूद मोहानी ‘गुमनाम’ होकर नहीं रह गए हैं तो कारण यह कि 1921 में उनके द्वारा दिए गए ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ के कालजयी नारे ने (जो समूचे क्रांतिकारी आंदोलन की ऊर्जा तो हुआ ही करता था, भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने आठ अप्रैल, 1929 को उसे ही लगाते हुए बहरे सत्ताधीशों के कानों तक अपनी आवाज पहुंचाने को सेंट्रल असेंबली में बम फेंके और बाद में राजगुरु व सुखदेव के साथ भगत सिंह ने बेखौफ होकर फांसी के फंदे को चूम लिया था.) सौ साल की उम्र पूरी कर लेने के बाद भी अपनी आभा रंज भी नहीं खोई है.

बात इतनी-सी ही नहीं है. मोहानी की जिंदगी ने स्वतंत्रता संघर्ष से संविधान निर्माण तक के दौर में अपने दो टूक विचारों व संघर्षों से देश की राजनीति पर इतना गहरा असर डाला कि उनका विस्मरण त्याग व सिद्धांतों की राजनीति की एक समूची परंपरा का विस्मरण हो जाता है.

गौरतलब है कि उन्होंने इस परंपरा को स्वतंत्रता संघर्ष में अपनी अनूठी सक्रियता से तो समृद्ध किया ही, 1946 में उत्तर प्रदेश से संविधान सभा के सदस्य चुने जाने पर भी किया. इसे यूं भी समझ सकते हैं कि संविधान सभा में अपनी तीन साल की सेवाओं के बदले महज एक रुपया मेहनताना लेने वाले वे उसके इकलौते सदस्य थे. यह एक रुपया भी कहते हैं कि उन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू के बहुत आग्रह करने पर लिया था, अन्यथा उसे मुल्क की खिदमत मानकर मानकर अपनी ‘गरीबी में खुश’ थे.

इतना ही नहीं, उन्होंने अपने पूरे जीवन में कभी वीआईपी बनने की चाह नहीं पाली, न ही सरकार से इस तरह की कोई सुविधा ली. लंबी-लंबी यात्राएं भी वे रेल के तीसरे दर्जे के डिब्बे में ही किया करते थे और संविधान बन गया तो उन्होंने यह कहते हुए उस पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था कि वह मजदूरों व किसानों के हकों की पूरी रहनुमाई नहीं करता.

यह तब था जब संविधान निर्माण में बड़ी भूमिका निभाने वाले बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर कहते थे कि वही एकमात्र मोहानी ही ऐसे नेता है जो समानता का ढोंग करने के बजाय अपने हर आचरण में उसे बरतते हैं. बाबासाहब प्रायः उनके मेहमान हुआ करते थे.

डॉ. बीआर आंबेडकर के साथ हसरत मोहानी. (बाएं) (फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमंस)

वैसे राजनेता होना मोहानी के बहुआयामी व्यक्तित्व का, जिसमें साहित्य और राजनीति का अद्भुत संगम था, सिर्फ एक आयाम था. वे अवध की गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतिनिधि शायर, उर्दू की प्रगतिशील गजल धारा के प्रवर्तक, शायरी में महिलाओं के ऊंचे मुकाम के हामी, अरबी व फारसी के उद्भट विद्वान, हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर और देश के बंटवारे के विकट विरोधी के रूप में जाने जाते थे.

हां, वे इंक़लाब की ही नहीं, इश्क और मुहब्बत की शायरी भी करते थे. उनकी ऐसी कई गजलें फिल्मी परदे पर भी नजर आईं, जिनमें कम से कम एक उनकी पहचान के साथ जुड़ गई है: चुपके-चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है, हमको अब तक आशिकी का वो जमाना याद है.

दिलचस्प यह कि उन्होंने यह गजल अपनी छह साल की जेल-यातनाओं के बीच अपने महबूब की याद में लिखी थी. अपने जीवन में वे जिन तीन ‘एम’ को सबसे महत्वपूर्ण बताते थे, उनमें मक्का और मॉस्को के साथ कृष्ण की मथुरा भी हुआ करती थी. साफ है कि कृष्ण पर वे अति की हद तक फिदा थे. उन्होंने 1919 के खिलाफत आंदोलन में भी हिस्सा लिया था.

उनके निजी जीवन पर जाएं, तो उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में मोहान कस्बे में एक सैयद परिवार में जन्म के वक्त माता-पिता ने उन्हें फजलुलहसन नाम दिया था और बाद में शायरी के लिए उन्होंने ’हसरत मोहानी’ उपनाम अपनाया. उनके छात्र जीवन में ही हुई डौडिया खेड़ा के राजा राव रामबक्श सिंह की शहादत का उन पर ऐसा असर हुआ कि वे आजादी के इंकलाबी सिपाही बन गए और कॉलेज से निष्कासन समेत कई क्रूर दंड भोगे. लेकिन शिक्षा पूरी हो गई तो भी इंकलाब का रास्ता बदलना गवारा नहीं किया.

1903 में उन्होंने अलीगढ़ से ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ नाम का उर्दू का ब्रिटिश हुक्मरानों का कट्टर आलोचक राजनीतिक-साहित्यिक पत्र निकाला तो उसे आजादी के दीवाने साहित्यकारों व नेताओं का खुला मंच बना दिया. 1907 में उनकी एक टिप्पणी से चिढ़ी गोरी सरकार ने उन्हें दो साल की कैद-ए-बामशक्कत की सजा दिलाई तो उन्हें परेशान करने के लिए जेल में उनसे रोज एक मन गेहूं पिसवाया जाता था.

फिर भी उन्होंने विचलित हुए बिना लिखा: है मश्क़ ए सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी, इक तुर्फ़ा तमाशा है ‘हसरत’ की तबीयत भी  गोरी सरकार की आंखों में खटकने के कारण आगे 1914 और 1922 में भी उन्हें जेल जीवन जीना पड़ा.

मोहानी के जीवन का संभवतः सबसे महत्वपूर्ण क्षण 1921 में आया, जब वे अहमदाबाद कांग्रेस में मुकम्मल आजादी (पूर्ण स्वराज्य) का प्रस्ताव ले आए. चूंकि तब तक मुकम्मल आजादी कांग्रेस के सपने में ही नहीं थी, इसलिए उसने उसे स्वीकार करने से मना कर दिया. महात्मा गांधी ने तो उसको ‘गैरजिम्मेदारी की बात’ तक बता डाला.

जानकारों की मानें, तो मोहानी को अपने प्रस्ताव के इस हश्र का पहले से अंदाजा था, लेकिन उनका प्रगतिशील सोच उनकी जोखिम उठाने की प्रवृत्ति से मिलकर उनसे आगे भी ऐसे दुस्साहसिक कदम उठवाता रहा.

यहां जानना जरूरी है कि कांग्रेस के सबसे बड़े नायक (महात्मा गांधी) के विरोध के चलते मुकम्मल आजादी का उनका प्रस्ताव आगे तो नहीं बढ़ पाया, लेकिन उसे एक तिहाई वोट मिले थे. फिर आठ साल बाद ही सही, 26 दिसंबर, 1929 को कांग्रेस को पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास करना और 26 जनवरी, 1930 को पूर्ण स्वराज्य दिवस घोषित करना पड़ा था.

मोहानी कांग्रेस के उन गिनती के नेताओं में थे, जो महात्मा गांधी से अपनी असहमतियां छिपाते नहीं थे. असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो सारी विदेशी वस्तुओं के वहिष्कार के महात्मा के आह्वान के विपरीत मोहानी चाहते थे कि सिर्फ ब्रिटेन की वस्तुओं का बहिष्कार किया जाए, क्योंकि लड़ाई अंततः ब्रिटिश साम्राज्यवाद से ही है. लेकिन कांग्रेस ने उनकी यह बात भी नहीं ही मानी थी.

मानती भी क्यों, उसके साथ उनके स्वीकार व नकार के मिले-जुले संबंध थे. वे उसके स्वदेशी आंदोलन के तो पुरजोर समर्थक थे- उसकी नींव की ईंट भी, लेकिन अहिंसा में उनका विश्वास महात्मा गांधी जैसा अगाध नहीं था और वे चाहते थे कि स्वतंत्रता के आंदोलनकारियों पर अहिंसक रहने की पाबंदी न लगाई जाए. इसके उलट उन्हें परिस्थिति व जरूरत के अनुसार साधन चुनने व कदम उठाने को आजाद रखा जाए.

महात्मा के चरखे को लेकर तो उनका एतराज यहां तक था कि उन्होंने शे’र ही रच डाला था: गांधी की तरह बैठ के क्यों कातेंगे चर्खा, लेनिन की तरह देंगे न दुनिया को हिला हम!

बकौल सुधीर विद्यार्थी: एक समय दिल्ली का बल्लीमारान इलाका हसरत मोहानी का मुकाम हुआ करता था. वे तब लेखन में खूब मशगूल थे और नई दिल्ली में संसद भवन के सामने स्थित जामा मस्जिद में गर्म तकरीरें किया करते थे. पर वे दुनियावी अर्थ में मौलाना नहीं थे. वे उन चंद मुस्लिमों में से थे, जिन्होंनेे कांग्रेस को अपनाया था. फिर भी उसमें होने और बने रहने की उनकी अपनी शर्तें थीं. वे बहुत सख्त मिजाज और धुन के पक्के थे. इतने कि कई बार वे गांधी और कांग्रेस की नीतियों के विरोध में तनकर खड़े हो जाते थे.

1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरम व गरम दलों में टकराव के बाद वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ हो गए, जो एक तरह से कांग्रेस से उनका अलगाव था. फिर तो वे कांग्रेस के नरमदलियों और मुस्लिम लीगियों दोनों को गोरे हुक्मरानों का तरफदार मानने लगे थे. तिलक के साथ जाने का रास्ता इसलिए चुना था, क्योंकि तिलक भी उन्हीं की तरह मुकम्मल आजादी के समर्थक थे और ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा देते थे.

मोहानी रूस की आठ मार्च, 1917 की साम्यवादी क्रांति से बहुत प्रभावित थे और 1925 में सत्यभक्त के साथ मिलकर उन्होंने कानपुर में देश की पहली कम्युनिस्ट कॉन्फ्रेंस में नींव की ईंट वाली भूमिका निभाई थी.

अपने एक शेर में उन्होंने अपना परिचय इस रूप में दिया है: दरवेशी ओ इंक़िलाब है मसलक मेरा, सूफी मोमिन हूं इश्तिरारी मुस्लिम. उनके इस परिचय में उनके स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, संपादक और शायर आदि के सारे परिचय समाहित हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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