कृष्ण प्रताप सिंह की कविताई: यह कविता पर मुग्ध होने का नहीं, उसे हथियार बनाने का वक्त़ है

पुस्तक समीक्षा: वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह ‘डरते हुए’ शीर्षक वाले अपने काव्यसंग्रह के माध्यम से बिल्कुल अलग अंदाज़ में सामने हैं. उनकी कविताएं उनके उस पक्ष को अधिक ज़ोरदार ढंग से उजागर करती है, जो संभवत: पत्रकारीय लेखन या ‘तटस्थ’ दिखते रहने के पेशेवर आग्रहों के चलते कभी धुंधला दिखता रहा.

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(फोटो साभार: आपस प्रकाशन)

पुस्तक समीक्षा: वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह ‘डरते हुए’ शीर्षक वाले अपने काव्यसंग्रह के माध्यम से बिल्कुल अलग अंदाज़ में सामने हैं. उनकी कविताएं उनके उस पक्ष को अधिक ज़ोरदार ढंग से उजागर करती है, जो संभवत: पत्रकारीय लेखन या ‘तटस्थ’ दिखते रहने के पेशेवर आग्रहों के चलते कभी धुंधला दिखता रहा.

(फोटो साभार: आपस प्रकाशन)

 

हिंदी पट्टी की पत्रकारिता में कृष्ण प्रताप सिंह एक अलग तथा बेहद जाना-पहचाना नाम है. विगत लगभग चार दशकों से अधिक वक्त़ से वह हिंदी के प्रबुद्ध जगत में अलग-अलग रूपों में उपस्थित रहे हैं.

नब्बे के ही दशक में अयोध्या-फैजाबाद से निकलने वाले देश के अपने किस्म के अलग अख़बार जनमोर्चा, जो सहकारिता के सिद्धांतों पर चलता रहा है तथा जिसके एक तरह से संस्थापक सदस्य के तौर पर रहे जनाब शीतला प्रसाद सिंह का पिछले दिनों इंतक़ाल हुआ, में रिपोर्टर के तौर अपनी पारी शुरू करने वाले कृष्ण प्रताप ने बाद में इस अख़बार का कई सालों तक संपादन भी किया और आज भी हिंदी के अख़बारों, पत्र-पत्रिकाओं में और विगत कुछ सालों से विभिन्न वेब पत्रिकाओं में भी निरंतर अपनी अलग उपस्थिति दर्ज करते रहे हैं.

‘पूजिये तो इस अयोध्या को पूजिये’; ‘फैजाबाद ने जाये और पाये; ‘सरयू से गोमती’ नाम से उनकी तीन पुस्तिकाएं भी प्रकाशित हो चुकी हैं. अब ‘डरते हुए’ शीर्षक से अपने काव्यसंग्रह के माध्यम से वह बिल्कुल अलग अंदाज़ में हमारे सामने हैं, जिसमें वह अपने बारे में खुद बताते हैं कि ‘कुछ इश्क किया कुछ काम किया की तर्ज पर वह ‘थोड़ी पत्रकारिता और थोड़ी कविताई करते रहे हैं.’

मुमकिन है कि अयोध्या से लेकर उत्तर प्रदेश की सियासी समाज हलचलों पर अपनी पैनी निगाह रखने वाले और अलग-अलग समाजी सियासी शख्सियतों पर अपनी कलम चलाकर उनकी नायाब तस्वीर उकेरने वाले जनाब कृष्ण प्रताप की इस अलग शक्ल को लेकर जहां वह लगभग 145 पन्ने के इस कविता संग्रह में (प्रकाशन- आपस, अयोध्या ) अपनी चालीस से अधिक कविताओं के माध्यम से इस विधा में अपनी निरंतर संलग्नता को उजागर करते हैं, उससे अधिक लोग वाकिफ भी न हो. (और आप चाहें तो मेरा नाम भी इस फेहरिस्त में शामिल कर सकते हैं.)

(साभार: अमेज़ॉन इंडिया)

यह कविताएं उनके उस पक्ष को अधिक जोरदार ढंग से उजागर करती है- जो पहलू संभवतः पत्रकारिता के लेखन में या ‘तटस्थ’ दिखते रहने के उसके पेशेवर आग्रहों के चलते कभी धुंधला दिखता रहा है. अपनी पहली ही कविता में वह अपने जैसे लोगों को अर्थात कविताई में संलग्न अन्य लोगों का बाकायदा आह्वान करते हैं कि,

उतर जाओ कवि
यह कविता पर मुग्ध होने का नहीं
उसे हथियार बनाने का वक्त़ है
पीछे छूट गया है
विरूदावली गाने का समय
जारी है युद्ध
और सैनिकों की जरूरत है

(उतर जाओ कवि)

उनका यही आग्रह कि अब तटस्थता छोड़कर मैदान में उतरना है, उनकी अन्य रचनाओं में भी दिखता है. मिसाल के तौर पर, अपनी दूसरी ही कविता ‘सोते जागते’ में वह उसी तटस्थता पर प्रहार करते हैं, जिसमें किसी शेषनाथ की- जो कहीं निगल जाने के लिए अभिशप्त है उसकी दुर्गति को देख कर वह साफ पूछते हैं,

…उसकी गुमशुदगी के
इस अपराध में
किसका हिस्सा बड़ा है ?

उन मगरमच्छों का
या तमाशबीनों का’

(सोते जागते)

व्यवस्था की मार किस तरह व्यक्तियों को बेदम कर देती है, उन्हें बाकायदा अकेला कर देती है, इसे बखूबी समझते हुए वह समझाते भी हैं,

अकेले नहीं हो तुम
भाई ‘सहनशील’
सिर्फ तुम्हीं नहीं उखड़े हो
यों दोस्त!

और कविता का अंत इस आह्वान या आशा के साथ करते हैं कि,

...तब तक यह क्रम
कैसे रुकेगा
जब तक उखाड़ने वाले
नहीं उखड़ेंगे?

(अकेले नहीं हो तुम)

गौरतलब है कि अपनी कविता ‘डरो मतमें जब वह डरे हुए आदमी के डर पर चोट करते हैं, तब बरबस तमाम मध्यवर्ग के उलझनों और द्वंद्वों को सामने उघारकर रख देते हैं और कविता का अंत ‘सिंहासन पर बैठे ‘डरे हुए आदमी’ की बात भी बता देता है.

इस कविता संग्रह की आखिरी कविता है जो एक तरह से कवि के अदम्य आशावाद को मजबूती के साथ रेखांकित करती है:

‘और अंत में
मैं कहूंगा
कि जिसे तुम अंत समझते हो
अनेक अवसरों पर
वह अंत नहीं होता मेरे भाई!
बन जाता है
एक नई  शुरुआत की भूमिका
जैसे प्राक्कथन के साथ
उपसंहार लगा रहता है’

(और अंत में)

§

‘Journalism is literature in hurry’
– Mathew Arnold (1822-1888), ब्रिटिश कवि और आलोचक

इस कविता संग्रह से गुजरते हुए कोई भी व्यक्ति अंदाज लगा सकता है कि एक बेहद संवेदनशील व्यक्ति, जिसे पेशेगत जिम्मा यह मिला है कि वह तटस्थ होकर समाज के बारे में, सियासत के बारे में ‘तथ्य’ पेश करें या उनका विश्लेषण करें, उसे अक्सर कितने मानसिक संत्रास से गुजरना पड़ता है, और किस तरह अक्सर पत्रकारीय तटस्थता एक किस्म की बेमानी हो जाती है.

आप चाहे न चाहे फिर देखते ही देखते पत्रकारिता या कविता को दो अलग अलग खेमों में देखने के बजाय हम उन्हें जोड़ने वाली अंतर्धारा की तलाश करने लगते हैं.

पिछले दिनों चार कवियों की रचनाओं पर केंद्रित एक आलेख को पलट रहा था, जो ‘पत्रकारिता के रिसर्च और उसके वास्तविक जीवन के विवरणों को कविता की गेयता को जोड़ते हुए दोनों ही विधाओं में एक अलग धागा कायम करते हैं’, तब उसकी प्रस्तावना में लिखी यह बात बेहद मौजूं लगी कि,

‘Poetry and journalism offer two ways of looking at the world through words and images. While journalism often strives to be objective, and poetry takes on a more specific and personal point of view, both translate observations and events into vivid narratives and strong themes that connect with a larger audience.’

(कविता और पत्रकारिता दुनिया को शब्दों और तस्वीरों के ज़रिये देखने के दो तरीके देते हैं. जहां पत्रकारिता अक्सर वस्तुनिष्ठ होने की कोशिश करती है, वहीं कविता एक विशिष्ट और व्यक्तिगत दृष्टिकोण को सामने रखती है, दोनों ही विचारों और घटनाओं को विविध नैरेटिव और मजबूत थीम में बदल देते हैं, जिससे एक बड़ा पाठक/दर्शक वर्ग जुड़ाव महसूस करता है.)

और इस संदर्भ में हिंदी उर्दू, बांग्ला ही नहीं, भारत की तमाम भाषाओं की उन अज़ीम शख्सियतों पर गौर करने लगा जिनके रचनाकर्म को देखने पर यह कहना बेहद मुश्किल होता है कि वह अधिक बेहतर, काबिल पत्रकार रहे हैं या कवि रहे हैं.

और इस संदर्भ में अपनी ढेर सारी अज्ञानता से भी मैं नए सिरे से रूबरू हुआ. जैसे विद्रोही कवि नजरूल इस्लाम (1899-1976) जो बांग्लादेश के राष्ट्रीय कवि माने जाते हैं. उनकी पत्रकारिता पर ही एक किताब एक मित्र ने साझा की और मैं एक तरह से दंग रह गया कि किस तरह उनकी पत्रकारिता तीन जाने-माने अख़बारों तक फैली है: नबयुग, धूमकेतु और लांगोल (Nabajug, Dhumketu and Langol )

इस संदर्भ में मैं रघुवीर सहाय को याद करने लगा, जो जितने समर्थ कवि थे और उतने ही समर्थ पत्रकार भी थे. उनके संपादन में निकलने वाला दिनमान हो, जिसने हिंदी-उर्दू प्रदेश में लेखकों, पत्रकारों की एक नई पीढ़ी को आगे आने के लिए एक तरह से प्रोत्साहित किया या उनके कविता संग्रह, सभी ने एक अलग छाप छोड़ी.

हमारी पीढ़ी के लोगों के लिए ‘दिनमान’ में अपनी रिपोर्ताज का छपना किसी पुरस्कार पाने से कम नहीं था. गौरतलब है कि अपने एक आलेख ‘लिखने का कारण’ में उन्होंने बाकायदा पत्रकारिता और साहित्य के इसी संबंध की चर्चा की है. और ‘पत्रकार और साहित्यकार में किसी अंतर से भी इनकार’ किया था. उनके लिए वजह साफ थी कि;

‘पत्रकार और साहित्यकार दोनों नए मानव संबंधों की तलाश करते हैं. दोनों ही दिखाना चाहते हैं कि दो मनुष्यों के बीच नया संबंध क्या बना. पत्रकार तथ्यों को जुटाता है और उन्हें क्रमबद्ध करते हुए उन्हें उस परस्पर संबंध से नहीं अलग नहीं करता जिससे वे जुड़े हुए और क्रमबद्ध हैं. उसके उपर तो यह लाजिमी होता है कि वो आपको तर्क से विश्वस्त करे कि यह हुआ तो यह इसका कारण है, ये तथ्य हैं और ये समय, देश, काल परिस्थिति आदि हैं जिनके कारण ये तथ्यों पूरे होते हैं.

साहित्यकार इससे अलग कुछ करता है. साहित्यकार के लिए तथ्यों की जानकारी उतनी ही अनिवार्य है जितनी पत्रकार के लिए. लेकिन तथ्यों के परस्पर संबंध को जानबूझकर तोड़कर साहित्यकार उसे नए सिरे से क्रमबद्ध करता है, और इस तरह से नए संपूर्ण सत्य को रचता है, जो एक नया यथार्थ है. एक संभव यथार्थ.’

उनके मुताबिक,

‘पत्रकार के लिए यथार्थ वही है जो संभव हो चुका है. साहित्यकार के लिए वह है जो संभव हो सकता है.’

§

मेरा मानना है कि जिस तरह कृष्ण प्रताप सिंह की पत्रकारिता मुख्यधारा की पत्रकारिता के चारण युग में तब्दील होने का एक प्रतिकार करती है, हुक्मरानों के साथ सेल्फी खींचकर अपने आप को बेहद गदगद महसूस करने वाले युग में अपनी अलग लकीर खींचने वालों कलम के सिपाहियों को लेकर नई उम्मीद जगाती है, यह उनकी कविताई में भी आने वाले दिनों में और निखरकर सामने आएगी.

अलबत्ता, अदब की कोई सलाहियत न होने के बावजूद, कविता के व्याकरण की कोई खास जानकारी न होने के बावजूद मुझे उनकी कविताओं से गुजरकर इतना अवश्य लगा कि उनमें अधिक निखार की जरूरत है, वह कहीं-कहीं अख़बार के किसी लेख का हिस्सा लगने लगती हैं.

किताब की प्रस्तावना में जनाब विजय बहादुर सिंह ने जो बात लिखी है, वह काबिलेगौर है: ‘निस्संदेह यह कविताएं किसी सधे हुए कवि की फिनिश्ड कविताएं नहीं हैं, उनमें एक प्रकार का आशावादी खुरदरापन भी है और हड़बड़ीपन भी है.’

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है ‘हम असमर्थताओं से नहीं संभावनाओं से घिरे हैं’ जिसकी कुछ पंक्तियां गोया मन पर अंकित हो गई हैं,

… हम असमर्थताओं से नहीं
संभावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुजर सकता है.

उम्मीद की जाए कि कृष्ण प्रताप की कविताई भी अपने में निहित संभावनाओं को सामने लाएंगी. गोबर पट्टी के नाम से संबोधित की जाती रही हिंदी पट्टी के विशाल आबादी के संवेदनशील एवं जागरूक तबके को अंदर से आलोड़ित करेगी और प्रगति की ओर उन्मुख होने के लिए प्रेरित करेगी.

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)

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