हिंदी के प्रति इतनी हिकारत कहां से आई?

इंदौर में हिंदी माध्यम से पढ़ाई करके आई एक इंजीनियरिंग छात्रा ने भाषा को लेकर मज़ाक उड़ाए जाने से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली. क्या इससे समझा जा सकता है कि छात्र अपनी मातृभाषा में ही ‘अपना सर्वश्रेष्ठ’ दे सकते हैं और उन पर शिक्षा का गैर-मातृभाषा माध्यम थोपकर कितनी प्रतिभाओं का संहार कर दिया जा रहा है!

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(फोटो साभार: freepik dot com)

इंदौर में हिंदी माध्यम से पढ़ाई करके आई एक इंजीनियरिंग छात्रा ने भाषा को लेकर मज़ाक उड़ाए जाने से क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली. क्या इससे समझा जा सकता है कि छात्र अपनी मातृभाषा में ही ‘अपना सर्वश्रेष्ठ’ दे सकते हैं और उन पर शिक्षा का गैर-मातृभाषा माध्यम थोपकर कितनी प्रतिभाओं का संहार कर दिया जा रहा है!

(फोटो साभार: freepik dot com)

अब तो सोचना भी असुविधाजनक लगता है कि इस देश में हिंदी का इतना बुरा हाल क्यों हो गया है-यहां तक कि इसके हिंदीभाषी प्रदेशों में भी हिंदी के प्रति इतनी हिकारत की नजरें क्यों पैदा हो गई है? क्या यह हमें नाना प्रकार के अनर्थों के हवाले करती जा रही आर्थिक गैरबराबरी की ही तर्ज पर भाषाई गैरबराबरी का जाया कोई अनर्थ है? या कि आत्ममुग्ध ‘हिंदी वाले’ खुद ही अपने पांवों पर कुल्हाड़ियां मारकर इसका मार्ग प्रशस्त करते आ रहे हैं?

ये सवाल मध्य प्रदेश में इंदौर स्थित एक सरकारी कॉलेज की बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष की हिंदी माध्यम से पढ़कर आई दीप्ति मंडलोई नाम की छात्रा द्वारा गत एक जून को अपने कॉलेज में प्रायः उड़ाए जाने वाले मजाक से क्षुब्ध होकर कर ली गई आत्महत्या से पैदा हुए हैं. आत्महत्या से पहले यह छात्रा पहले सेमेस्टर की परीक्षा में फेल भी हो गई थी क्योंकि चुभते हुए तंजों के बीच अंग्रेजी माध्यम की कक्षाएं उसकी सोच-समझ पर भारी थीं. इससे समझा जा सकता है कि इस सुविदित तथ्य के बावजूद कि छात्र अपनी मातृभाषा में ही ‘अपना सर्वश्रेष्ठ’ दे सकते हैं, उन पर शिक्षा का गैर-मातृभाषा माध्यम थोपकर देश में हर साल कितनी प्रतिभाओं का संहार कर दिया जा रहा है!

यहां कह सकते हैं कि शिक्षा संस्थानों में हिंदी के प्रति हिकारत की ऐसी वारदात न पहली बार सामने आई है, न इसके अंतिम होने के ही आसार हैं. हिंदी में पढ़ाई-लिखाई की बात तो दूर रहे, अंग्रेजी माध्यम के प्रभुत्व वाले कई संस्थानों में पानी या उसे पीने जाने की इजाजत मांगने तक में हिंदी बरतने पर भी छात्रों को दंड दिया जाता है. जब भी ऐसा होता है, दो चार दिन चर्चाएं होती हैं, फिर बात आई-गई हो जाती है.

लेकिन इंदौर की ताजा वारदात इतना तो कहती ही है कि अब पानी सिर से ऊपर हो रहा है और तुरंत निकासी की मांग करता है. इस मांग को पूरा करना है तो सबसे पहले हमें इसी सवाल का सामना करना होगा कि हिंदी की हालत इतनी पतली क्यों हो चली है कि वह अपने बोलने व बरतने वालों के आत्मसम्मान और स्वाभिमान की रक्षा भी नहीं कर पा रही?

इसीलिए तो कि गुलामी के दौर की बात न भी की जाए तो आजादी के बाद के पचहत्तर वर्षों में भी, जब हम कहते हैं कि ‘आजादी के अमृतकाल’ में आ पहुंचे हैं, हिंदी ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, गणित, तर्क, चिंतन व अनुसंधान वगैरह और इन सबकी शिक्षा की भाषा नहीं ही बन पाई है.

पहले तो उसके क्षेत्र में जड़ें जमाए बैठे वैज्ञानिक चेतना के अभाव और पोंगापंथी जकड़नों ने इनकी दिशा में उसकी यात्रा को सख्ती से रोके रखा, फिर अंग्रेजी के वर्चस्व वाली सरकारी नीतियां कोढ़ में खाज पैदा करती रहीं. फिर जैसे इतना ही काफी न हो, खुद को हिंदी का हितैषी कहने वालों का एक समुदाय ‘हिंदी-हिंदी’ के बेहिस शोर में हिंदी को अंग्रेजी की जगह लेने लायक बनाने की फिक्र किए बगैर ‘हिंदी लाओ, अंग्रेजी हटाओ’ के नारो में मगन होता रहा- इस विवेक से दूरी बनाए रखते हुए कि ‘लगभग अपरिहार्य’ अंग्रेजी को कहां-कहां से और कैसे हटाना है या कहां-कहां बनाए रखना और जहां से हटाना है, वहां हिंदी को कैसे प्रतिष्ठापित करना है. हां, दूसरी भारतीय भाषाओं से सहज संवाद व आदान-प्रदान से परहेज रखते हुए भी.

इस समुदाय की श्रेष्ठता ग्रंथि की हद यह है कि यह दूसरी भारतीय भाषाएं बोलने वालों से इसकी अपेक्षा तो रखता है कि वे फौरन से पेश्तर हिंदी सीखकर उसे ‘देश की भाषा’ बना दें, लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्र में उनकी भाषाओं को कतई कोई अवसर नहीं मिलने देता- उनकी राह में बाधाएं खड़ी करता है. एक समय बहुचर्चित त्रिभाषा फार्मूला आया तो भी यह उन भाषाओं की जगह संस्कृत को आगे करके मगन था.

इसका फल यह हुआ कि देश में अंग्रेजी का वर्चस्व घटाने और उसे उन जगहों से, जो उसकी नहीं हैं, हटाने के लिए सारी भारतीय भाषाओं की जो साझा मुहिम चलाई जानी जरूरी थी, परस्पर अविश्वास के कारण वह आज संभव ही नहीं हुई. उलटे, दूसरी भारतीय भाषाओं को हिंदी का अंग्रेजी जैसा ही साम्राज्य बन जाने का डर सताने लगा. इससे पैदा हुई स्थिति  का ही अनर्थ है कि हिंदी अब अपने प्रभाव क्षेत्र में भी इस अंदेशे का सामना करने लगी है कि एक दिन अंग्रेजी उसे बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की भाषा भी नहीं रह जाने देगी.

यह अंदेशा साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है क्योंकि हिंदी प्रदेश जैसे-जैसे दूषित सांप्रदायिक चेतनाओं के हवाले होते गए हैं, ‘हिंदी वालों’ में हिंदी को हिंदू और हिंदुस्थान से जोड़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. हिंदी से जुड़े अपने आत्मसम्मान के आधे-अधूरे, अधकचरे व दूषित बोध के कारण वे हिंदी की अपील के विस्तार के बजाय संकुचन में ही भूमिका निभा रहे हैं.

क्या आश्चर्य कि इससे ‘साधो घर में झगड़ा भारी’ की स्थिति में पहुंच गई हिंदी अपने लोकतंत्र व जनांदोलनों की भाषा होने को लेकर भी आश्वस्त नहीं हो पा रही. अंग्रेजी को हटाने की बात कहती-कहती खुद बहुत-सी जगहों से हटती जा रही है और बाजार, विज्ञापन, धर्म-कर्म और चुनाव आदि में ही उसका सिक्का चल पा रहा है. सरकारी नीतियां तो खैर पहले से ही अंग्रेजी के पक्ष में हैं और बड़ी नौकरियां भी ज्यादातर उसके लोगों के लिए ही हैं. इसलिए अब हिंदी प्रदेशों में भी हिंदी माध्यम वाले स्कूलों के लिए ‘ढूंढ़ो तो जानें’ जैसी स्थिति बन रही है.

विडंबना यह कि ‘हिंदी, हिंदू और हिंदुस्थान’ की बात करके हिंदी की मुश्किलें बढ़ाने वाले फिर भी समझने को तैयार नहीं हैं कि जब तक भारतीय भाषाओं में एक दूसरे से दूरी, द्रोह और ईर्ष्यालु बने रहेंगे, उन सबकी जगह कब्जा किए बैठी अंग्रेजी मौज मनाती और उन्हें हिकारत का पर्याय बनाकर रुलाती रहेगी. और चूंकि समझ नहीं रहे, उत्तर-दक्षिण की भाषाओं में ही नहीं, हिंदी और उर्दू में भी, जिन्हें आम तौर पर बहनें कहा जाता है, नाइत्तेफाकी पैदा करने और दूरियां बढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ते.

इसकी एक मिसाल उन्होंने 1989 में बनाई थी, जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की जनता दल सरकार ने उर्दू को प्रदेश की दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा देने का फैसला किया. तब दोनों भाषाओं में दूरी बढ़ाने के इच्छुक उक्त ‘हिंदी वालों’ द्वारा इस फैसले का भरपूर संप्रदायीकरण कर ऐसा जताया गया था, जैसे इससे उनकी ‘प्राणों से भी प्यारी’ हिंदी का बहुत बड़ा नुकसान हो गया है.

और तो और, उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन इस फैसले को लेकर मुकदमेबाजी पर उतर आया था- इस तर्क पर कि संविधान के अनुच्छेद 345 के अनुसार हिंदी के साथ किसी भी दूसरी भाषा को आधिकारिक दर्जा नहीं दिया जा सकता. इसके लिए उत्तर प्रदेश राजभाषा कानून में किया गया संशोधन अवैध है क्योंकि उसका एकमात्र उद्देश्य अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण है. सम्मेलन के तर्क ऐसे थे जैसे उसकी निगाह में उर्दू महज अल्पसंख्यकों की भाषा हो, जबकि भाषाएं आमतौर पर अपने को ऐसी दीवारों में कैद नहीं करतीं.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सम्मेलन की दलील को अस्वीकार्य करार देकर सम्मेलन की याचिका खारिज कर दी तो भी उसने सद्भावना दिखाकर उर्दू से दुश्मनी का अंत करने के बजाय सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी. वह तो भला हो सर्वोच्च न्यायालय का कि उसके तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने चार सितंबर, 2014 को सम्मेलन की अपील खारिज कर दी और साफ कह दिया कि संविधान का अनुच्छेद 345 हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं को दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा देने से नहीं रोकता.

संविधान की मूल भावना के अनुसार ही, देश के भाषाई कानून कठोर नहीं, बल्कि भाषाई पंथनिरपेक्षता का लक्ष्य पाने के लिए बहुत उदार हैं.
यकीनन, सम्मेलन द्वारा 25 सालों तक लड़ा गया उक्त मुकदमा व्यर्थ ही था क्योंकि प्रदेश में उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाए जाने से उर्दूभाषियों को थोड़ी सहूलियतें भले मिलने वाली थीं, हिंदी का कोई अहित होने नहीं जा रहा था. इसलिए सम्मेलन से ‘बड़ा दिल’ दिखाने की अपेक्षा की जाती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया.

हिंदी को हिंदू और हिंदुस्थान से जोड़कर बड़ी भाषा बनाना चाहने वालों के पास तो वैसे भी ऐसा कोई बड़ा दिल नहीं है. वे विभिन्न भाषाओं में दूरियां बढ़ाने में ही अपनी सुरक्षा देखते हैं. सो, कई लोग ठीक ही कहते हैं कि ऐसे प्रेमियों के रहते हिंदी को दुश्मनों की भला क्या दरकार?

सवाल है कि इन ‘दुश्मनों’ को क्योंकर समझाया जाए कि हिंदी का भविष्य अंग्रेजी जैसे एकाधिकार के मंसूबे पालकर दूसरी भारतीय भाषाओं की हेठी करने से नहीं, उनसे बड़ी बहन जैसा बर्ताव करके अपनी ज्ञान-संपदा से उन्हें और उनकी ज्ञान-संपदा से खुद को लाभान्वित करने से ही बेहतर होगा.

हां, इसकी शर्म महसूस करने से भी कि आजादी के 75 साल बाद भी ज्ञान-विज्ञान, इंजीनियरिंग, टेक्नोलॉजी और गणित आदि की पढ़ाई की बेहतर पाठ्यपुस्तकें कौन कहे, बेहतर अनुवाद भी क्यों नहीं सुलभ है और क्यों दीप्ति जैसे छात्र इसके बावजूद हिंदी को अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई का माध्यम बनाते हैं तो प्रशंसा करने के बजाय उनका मजाक उड़ाया जाता है- इतना कि उन्हें जीने से मर जाना बेहतर लगने लगता है.

लेकिन लगता नहीं कि अभी ज्योतिष को विज्ञान सिद्ध करने में जमीन-आसमान एककर ग्रंथ पर ग्रंथ लिख रहे ‘हिंदी वाले’ इसकी किंचित भी शर्म महसूस करेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)