पूर्वोत्तर राज्य मिज़ोरम के मुख्यमंत्री ज़ोरामथांगा की पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा है. इससे पहले, गठबंधन के एक अन्य घटक दल नेशनल पीपुल्स पार्टी से आने वाले मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा भी समान नागरिक संहिता का विरोध जता चुके हैं.
नई दिल्ली: मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरामथांगा ने मंगलवार को भारत के विधि आयोग को पत्र लिखकर कहा कि समान नागरिक संहिता (यूसीसी) सामान्य रूप से जातीय अल्पसंख्यकों और विशेष रूप से मिजो समुदाय के हितों के खिलाफ है.
जोरामथांगा सत्तारूढ़ मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) के भी अध्यक्ष हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, उन्होंने यह भी कहा कि उनकी पार्टी का मानना है कि यूसीसी मिजो समुदाय के धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाजों और संविधान की धारा 371 (जी) द्वारा संरक्षित उनके पारंपरिक कानूनों के विरुद्ध है.
एमएनएफ भाजपा के नेतृत्व वाले नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (एनईडीए) का एक घटक दल है, जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का क्षेत्रीय संस्करण है.
गौरतलब है कि इससे पहले मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड के. संगमा भी कह चुके हैं कि यूसीसी अपने मौजूदा स्वरूप में भारत की भावना के खिलाफ है. संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) भी एनईडीए की सदस्य है.
जोरामथांगा ने अपने पत्र में लिखा, ‘पूरे भारत में यूसीसी का प्रस्तावित कार्यान्वयन मिजो समुदाय की धार्मिक व सामाजिक प्रथाओं और उनके पारंपरिक/व्यक्तिगत कानून के विपरीत है, जिन्हें विशेष रूप से संवैधानिक प्रावधानों द्वारा संरक्षित किया गया है, इसलिए केंद्र की एनडीए सरकार का उक्त प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जा सकता.’
बता दें कि विधि आयोग ने पिछले महीने एक सार्वजनिक नोटिस जारी कर ‘व्यक्तिगत कानूनों की समीक्षा’ विषय के तहत यूसीसी पर विभिन्न हितधारकों से प्रतिक्रिया मांगी थी.
मुख्यमंत्री ने कहा कि केंद्र की एनडीए सरकारी की नीतियों और कार्यक्रमों का तब तक समर्थन करता है, जब तक कि वे जनता के लिए लाभकारी हैं और विशेष तौर पर देश के जातीय अल्पसंख्यकों के लिए लाभकारी हैं.
जोरामथांगा ने यह भी कहा कि संविधान का अनुच्छेद 371(जी) कहता है कि मिजो समुदाय की धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं, पारंपरिक कानून और प्रक्रियाओं, भू स्वामित्व और हस्तांतरण के संबंध में संसद का कोई भी कानून मिजोरम पर लागू नहीं होगा, जब तक कि राज्य विधानसभा प्रस्ताव लाकर इस पर फैसला नहीं करती है.
जोरामथांगा ने विधि आयोग को सूचित किया कि मिजोरम विधानसभा 14 फरवरी को एक आधिकारिक प्रस्ताव पारित कर चुकी है, जिसमें देश में यूसीसी के लागू करने के किसी भी कदम का विरोध किया गया है.
इस बीच, राज्य में चर्च के नेताओं के निकाय मिजोरम कोहरान ह्रुएतुते समिति (एमकेएचसी) ने भी केंद्रीय विधि आयोग को लिखा है कि वह देश में यूसीसी के लागू होने का कड़ा विरोध करती है.
समिति ने अपने पत्र में दावा किया है कि यूसीसी भारतीय संस्कृति, धर्मों और प्रथाओं की ‘विविधता में एकता’ के लिए हानिकारक है और संविधान के अनुच्छेद 371(जी) के तहत मिजो समुदाय को मिले विशेषाधिकारों की अनदेखी करती है.
इससे पहले, उत्तरा पूर्वी राज्य नगालैंड में सेंट्रल नगालैंड ट्राइब्स काउंसिल (सीएनटीसी) भी विधि आयोग को लिखे पत्र में कह चुका है कि संविधान भारत के लोगों के बीच विविधता और बहुलता को मान्यता देता है और इसलिए यूसीसी अपने वर्तमान स्वरूप में भारत के विचार के खिलाफ है.
सीएनटीसी ने पत्र में कहा था कि नगालैंड को संविधान के अनुच्छेद 371(ए) के तहत संरक्षित किया गया था, यूसीसी लागू होने की स्थिति में इसके तहत राज्य को मिले विशेषाधिकार कुंद हो जाएंगे.
वहीं, ‘नगालैंड ट्रांसपेरेंसी, पब्लिक राइट्स एडवोकेसी एंड डायरेक्ट-एक्शन ऑर्गनाइजेशन’ ने बीते दिनों कहा था कि यूसीसी को लागू करना राज्य को दिए गए विशेष संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन होगा और यह नगा लोगों के अद्वितीय रीति-रिवाजों और परंपराओं में भी बाधा डालेगा.
संगठन ने एक बयान में कहा था कि अगर विधानसभा में यूसीसी को मंजूरी मिल गई तो उसके सदस्य नगालैंड के विधायकों के आधिकारिक आवासों में आग लगाने की हद तक जाने से भी नहीं हिचकेंगे.
गौरतलब है कि यूसीसी का विरोध मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में सबसे मजबूत रहा है, जहां 2011 की जनगणना के अनुसार, ईसाइयों की संख्या क्रमश: 74.59 फीसदी, 86.97 फीसदी और 87.93 फीसदी है. अन्य पूर्वोत्तर राज्यों ने प्रतिक्रिया देने से पहले मसौदे का अध्ययन करने की बात कही है.
पूर्वोत्तर भारत दुनिया के सबसे सांस्कृतिक रूप से विविध क्षेत्रों में से एक है और 220 से अधिक जातीय समुदायों का घर है. कई लोगों को डर है कि यूसीसी संविधान द्वारा संरक्षित उनके पारंपरिक कानूनों को प्रभावित करेगा.
इसी तरह छत्तीसगढ़ के आदिवासी संगठन- सर्व आदिवासी समाज का भी कहना है कि आदिवासी समाज में समान नागरिक संहिता लागू करना अव्यावहारिक लगता है. यह आदिवासी समाज के सदियों से चली आ रहे विशिष्ट रीति-रिवाजों को प्रभावित कर सकता है, जिससे इन समुदायों की पहचान और अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो सकता है.
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 जून को मध्य प्रदेश में ‘मेरा बूथ सबसे मजबूत’ अभियान के तहत भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यूसीसी की पुरजोर वकालत करते हुए सवाल किया था कि ‘दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा? अगर लोगों के लिए दो अलग-अलग नियम हों तो क्या एक परिवार चल पाएगा? तो फिर देश कैसे चलेगा? हमारा संविधान भी सभी लोगों को समान अधिकारों की गारंटी देता है.’
विपक्षी दलों ने मोदी के बयान की आलोचना करते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री कई मोर्चों पर उनकी सरकार की विफलता से ध्यान भटकाने के लिए विभाजनकारी राजनीति का सहारा ले रहे हैं. मुस्लिम संगठनों ने भी प्रधानमंत्री की यूसीसी पर टिप्पणी को गैर-जरूरी बताया था.
गौरतलब है कि समान नागरिक संहिता भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख मुद्दों में से एक रहा है. वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में यह भाजपा के प्रमुख चुनावी वादों में शुमार था. उत्तराखंड के अलावा मध्य प्रदेश, असम, कर्नाटक और गुजरात की भाजपा सरकारों ने इसे लागू करने की बात कही थी.
उत्तराखंड और गुजरात जैसे भाजपा शासित कुछ राज्यों ने इसे लागू करने की दिशा में कदम उठाया है. नवंबर-दिसंबर 2022 में संपन्न गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी समान नागरिक संहिता को लागू करना भाजपा के प्रमुख मुद्दों में शामिल था.