शैक्षणिक संस्थानों में कथित जातिगत भेदभाव के कारण आत्महत्या करने वाले रोहित वेमुला और पायल तड़वी की माताओं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने यूजीसी से उच्च शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों के लिए ग़ैर-भेदभावपूर्ण वातावरण प्रदान करने के लिए उठाए गए क़दमों के बारे में बताने का निर्देश दिया है.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से उच्च शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए गैर-भेदभावपूर्ण वातावरण प्रदान करने के लिए उठाए गए और प्रस्तावित कदमों के बारे में बताने के लिए कहा. अदालत ने इसे ‘बहुत गंभीर मुद्दा’ करार दिया.
एनडीटीवी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने यूजीसी से शैक्षणिक संस्थानों में कथित जाति-आधारित भेदभाव के कारण आत्महत्या करने वाले रोहित वेमुला और पायल तड़वी की माताओं की याचिका पर उठाए गए कदमों का विवरण देने लिए कहा.
गौरतलब है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में से पीएचडी कर रहे रोहित वेमुला ने साल 2016 में जातिगत भेदभाव को कथित तौर पर जिम्मेदार बताते हुए आत्महत्या कर ली थी, जबकि मुंबई के बीवाईएल नायर अस्पताल में डॉ. पायल तड़वी ने कॉलेज की ही तीन डॉक्टरों द्वारा कथित उत्पीड़न का सामना करने के बाद साल 2019 अपने हॉस्टल के कमरे में आत्महत्या कर ली थी. रोहित वेमुला और पायल तड़वी अनुसूचित जाति/जनजाति से आते थे.
पीठ ने यूजीसी की ओर से पेश वकील से कहा, ‘यह बहुत ही गंभीर मुद्दा है. जो भी चिंताएं उठाई गई हैं. आपका उनसे निपटने का क्या प्रस्ताव है और आपने इन शिकायतों को दूर करने के लिए क्या कदम उठाए हैं? यूजीसी को कुछ ठोस कार्रवाई करने की जरूरत है. यह छात्रों और उनके अभिभावकों के लाभ के लिए है. उठाए गए कदम यह सुनिश्चित करेंगे कि भविष्य में इस प्रकार की घटनाएं न हों.’
वेमुला और तड़वी की माताओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि उन्होंने क्रमश: अपने बेटे और बेटी को खो दिया है और पिछले एक साल में नेशनल लॉ स्कूल, एक मेडिकल कॉलेज और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई में पढ़ने वाले तीन और छात्र अपनी जाने दे चुके हैं.’
उन्होंने कहा, ‘इसलिए, इस याचिका में तात्कालिकता की भावना है. यह उचित होगा कि यूजीसी बाध्यकारी दिशानिर्देश तैयार करे, जिनका उच्च शिक्षण संस्थानों द्वारा पालन किया जा सके.’
जयसिंह ने कहा, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मौजूदा दिशानिर्देशों का कोई बाध्यकारी प्रभाव नहीं है, क्योंकि इनके तहत मानदंडों के उल्लंघन के लिए कोई दंड नहीं है. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकथाम (पीओएसएच) अधिनियम और रैगिंग विरोधी कानून जैसे कुछ नियम होने चाहिए, जो उल्लंघन के मामले में दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान करते हों.’
उन्होंने कहा कि परिसरों में जातिगत भेदभाव की शिकायतों को दूर करने के लिए यूजीसी द्वारा 2012 में बनाए गए इक्विटी नियम अपर्याप्त साबित हो रहे हैं.
एनडीटीवी के मुताबिक, यूजीसी के वकील ने कहा कि आयोग स्थिति से अवगत है और उसने विश्वविद्यालयों के कुलपतियों और कॉलेज प्राचार्यों को पत्र लिखा है.
जस्टिस सुंदरेश ने वकील से कहा कि एससी/एसटी समुदायों के छात्रों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए प्रयास किए जाने की जरूरत है.
उन्होंने कहा, ‘आपको यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि कोई भेदभाव न हो, क्योंकि अगर उनमें से कुछ को अन्य छात्रों का साथ नहीं मिलता है तो वे कॉलेज/विश्वविद्यालय छोड़ सकते हैं. इसके लिए कुछ अलग समाधान की जरूरत है.’
इसके बाद पीठ ने यूजीसी के वकील से याचिकाकर्ताओं से सुझाव मांगने और चार सप्ताह के भीतर परिसरों में गैर-भेदभावपूर्ण वातावरण बनाने के लिए उठाए गए कदमों और प्रस्तावित कदमों का उल्लेख करते हुए एक हलफनामा दाखिल करने के लिए कहा.
मालूम हो कि 20 सितंबर, 2019 को शीर्ष अदालत ने वेमुला और तड़वी की माताओं की याचिका पर नोटिस जारी किया था, जिसमें देश भर के विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों में जाति पूर्वाग्रह को समाप्त करने की मांग की गई थी. याचिका पर केंद्र और यूजीसी से जवाब मांगा था.
सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी कहते हुए केंद्र सरकार और यूजीसी से कहा था कि वह वह देश के अंदर विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों से जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाए.
याचिकाकर्ताओं ने मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से समानता का अधिकार, जाति के खिलाफ भेदभाव पर रोक का अधिकार और जीवन का अधिकार लागू करने की मांग की है.
याचिका में पूरे देश में उच्च शिक्षण संस्थानों में जाति-आधारित भेदभाव के व्यापक प्रसार का दावा किया गया है और कहा गया है कि यह मौजूदा मानदंडों और विनियमों के घोर गैर-अनुपालन को दर्शाता है.