‘आवारा’ भीड़ अब दिल्ली विश्वविद्यालय के सम्मानित प्रोफेसरों को अपना निशाना बना रही है.
मुकुल मांगलिक मेरे वरिष्ठ साथी हैं. वह दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में छात्र-छात्राओं की कई पीढ़ियों को इतिहास पढ़ा चुके हैं, अब ‘आवारा’ भीड़ के निशाने पर हैं. सोशल मीडिया पर एक वीडियो साझा किया जा रहा है. आरोप है कि इस वीडियो में वह ‘कश्मीर की आज़ादी’ और ‘बस्तर की आज़ादी’ के नारे लगा रहे हैं.
उनके विरोधियों का कहना है कि जो भी कश्मीर या बस्तर की आज़ादी की मांग करता है, उसे विश्वविद्यालय में पढ़ाने का कोई अधिकार नहीं है. वहीं, मांगलिक ने इस तरह के किसी भी नारे लगाने की बात से साफ़ इनकार किया है.
बीते दिनों रामजस कॉलेज में एक शांतिपूर्ण कार्यक्रम का आयोजन करने की आज़ादी छिनने के ख़िलाफ़ कुछ छात्र-छात्राएं विरोध कर रहे थे, लेकिन मैं इन बात में नहीं पड़ूंगा कि इस दौरान ऐसे नारे लगाए गए या नहीं.
एक वीडियो में बस्तर के लिए नारे लगाते हुए एक छात्रा की आवाज़ सुनी जा सकती है और मुझे उम्मीद है कि वह इतनी साहसी ज़रूर होगी कि यह स्वीकार कर ले कि उसने यह किया है.
यहां मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अगर वह इस बात को स्वीकार भी कर ले तो मुझे नहीं लगता कि यह आपराधिक या कोई ‘देशविरोधी’ कृत्य है. उसने किसी भी क़ानून का कोई उल्लंघन नहीं किया है और किसी भी तरह की हिंसा को नहीं भड़काया है.
यह एक अविवादित तथ्य है कि इन दिनों बस्तर एक तरह की घेरेबंदी में है. यहां के बाशिंदे आदिवासियों को लूटा जा रहा है, उनके साथ बलात्कार हो रहा है और देश की सुरक्षा के नाम पर यहां तैनात जवान उनकी हत्या कर रहे हैं.
इन असहाय आदिवासियों को अपने साथी भारतीयों की ओर से सहानुभूति का एक भी शब्द सुनने को नहीं मिलता है, जिनके नाम पर इनका व्यवस्थित तरीक़े से सफ़ाया किया जा रहा है. ये आदिवासी बिहार और मध्य प्रदेश के लोगों की तरह ही आज़ाद रहना चाहते हैं, जिन्हें इस बात का डर नहीं रहता कि सुरक्षा बल कभी भी उनके घर में घुस आएंगे.
कुछ ऐसा ही हाल कश्मीर का भी है. जब हम कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों के अत्याचारों की निंदा करते हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि हम उन सब बातों का समर्थन कर रहे हैं, जो पाकिस्तान समर्थित आतंकी वहां पर कर रहे हैं.
मेरे लिए पाकिस्तान जिसके अस्तित्व पर ख़तरा मंडरा रहा है, का समर्थन करना आत्मघाती है. हुर्रियत में कुछ कट्टरपंथी धड़ों और दूसरे लोग वहां पर जैसी आज़ादी की मांग कर रहे हैं, वो कतई धर्मनिरपेक्ष नहीं है. और मैं ये जानता हूं कि मैं ऐसे कश्मीर में सुरक्षित महसूस नहीं कर पाऊंगा.
यह सब कहने के बाद भी, मुझे लगता है कि कश्मीर के लोगों के पास मानवता के तहत जीने का अधिकार है. उन्हें सुरक्षा बलों के नियंत्रण में रखना ‘आइडिया आॅफ़ इंडिया’ की असफलता होगी.
अगर बिहारी, महाराष्ट्रियन या फिर मलयाली लोग आज़ादी के साथ रह सकते हैं तो ये अधिकार कश्मीरियों को भी मिलना चाहिए.
बहरहाल, कैंपस में लगे नारों के बीच मुकुल की मौज़ूदगी पर सवाल अभी बरक़रार है. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शिक्षकों के नारे लगाने के विचार को घृणित मानते हैं. मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे लोगों से सहमत नहीं हूं, क्योंकि मैं जानता हूं नारेबाज़ी एक कला है और सभी इसमें निपुण नहीं होते.
मेरे लिए ज़्यादा अहम ये है कि मुकुल ने उन लोगों के विचार रखने और ख़ुद को मुक्त रूप से व्यक्त करने के अधिकारों का समर्थन किया. इस तरह के मामलों को लेकर मुकुल किसी तरह का समझौता नहीं करते और मैं यह अपने निजी अनुभवों के आधार पर जानता हूं.
पिछले साल हिस्टोरिकल सोसायटी की ओर से प्रो. इरफ़ान हबीब के साथ एक परिचर्चा में मुकुल ने मुझे बुलाया था. मुकुल बहुत स्पष्टवादी हैं. उस कार्यक्रम की अध्यक्षता अशोक वाजपेयी को करनी थी, लेकिन ऐन वक़्त वे बीमार पड़ गए.
मुकुल चाहते थे कि मैं उनकी जगह कार्यक्रम में शामिल होऊं. मैंने उन्हें बताया था कि मैं इरफ़ान हबीब के पैनल में बैठने के क़ाबिल नहीं हूं लेकिन मुकुल ने मुझ पर आने के लिए ज़ोर डाला.
उस कार्यक्रम में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर इरफ़ान साहब ने बहुत ही प्रभावशाली अंदाज़ में अपनी बातें रखीं. जब मेरा नंबर आया तो मैंने ध्यान दिलाया कि ऐसे लोग और समुदाय भी थे जिन्हें महसूस नहीं होता कि वे भी राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल थे और यह बहुत समावेशी नहीं था. इसलिए आज़ादी के बाद राष्ट्रीय आंदोलन नई दिशाओं की ओर बढ़ने लगा.
बाद में मुकुल ने मुझे बताया कि जब मैं अपनी बात रख रहा था तो उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) के कुछ सदस्यों ने एक संदेश भेजा था. इसी पार्टी से इरफ़ान साहब ताल्लुक रखते हैं और कार्यक्रम में वे सबसे आगे ही बैठे थे. उन लोगों को मेरी ये बात अच्छी नहीं लगी थी. बहरहाल, वे लोग चाहते थे कि मुझे रोका जाए. मुकुल इस बात पर हैरान थे.
इन्हीं लोगों की मदद से इरफ़ान साहब कार्यक्रम में बुलाए जा सके थे. इसके बावजूद मुकुल ने ईमानदारी से उन्हें कह दिया कि वे लोग जो भी सलाह दे रहे हैं उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता.
ऐसा करके मुकुल एक शक्तिशाली समूह को नाराज़ करने का जोख़िम उठा रहे थे, लेकिन उन्हें इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं थी.
इस घटना ने मुझे अभिव्यक्ति और विचारों की आज़ादी पर मुकुल के जुनून के बारे में काफ़ी कुछ बता दिया था. इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि वह उस बात से सहमत हैं या नहीं.
एक शिक्षक के तौर पर उन्हें पूरी ज़िंदगी यही बताया गया था. मुझे हमेशा से हर पीढ़ी के छात्र-छात्राओं के बीच उनकी लोकप्रियता से जलन होती थी. शिक्षकों को हमेशा सम्मान और प्रशंसा मिलती है लेकिन मुकुल एक अलग ही श्रेणी से आते हैं.
उनके विद्यार्थी उन्हें प्यार करते हैं. वह अपना सर्वस्व देकर उन्हें पढ़ाते हैं और उनकी शिक्षा पाठ्यक्रम और कक्षा के दायरे से बाहर की होती है. वह संगीत कार्यक्रम आयोजित करते हैं, अपने विद्यार्थियों के लिए साहित्य के पाठ करते हैं. शिक्षा के परंपरागत तरीक़ों से वे आगे जाते हैं, ताकि छात्रों को बेहतर शैक्षणिक अनुभव मिल सके. इसे ही वे संस्कृति का नाम देते हैं.
क्या मुकुल वामपंथी हैं? वह इस व्याख्या को ख़ारिज नहीं करेंगे. मेरे लिए यह बात ज़्यादा मायने नहीं रखती, जो बात मायने रखती है वह है शिक्षा और शिक्षण के लिए उनका समर्पण. अपनी कुशाग्रता के बल पर वह ख़ुद को अलग-अलग पेशेवर सेमिनारों में व्यस्त रख सकते थे, लेकिन इसे छोड़कर उन्होंने अपना सब कुछ अपने विद्यार्थियों को दिया.
इस वर्ष वह अपने विद्यार्थियों के लिए भक्ति पर एक कार्यक्रम आयोजित करने वाले हैं. यह विषय उनके अधिकार क्षेत्र का नहीं है. इस कार्यक्रम के लिए उन्होंने तमाम दिन और निजी संपर्कों से संसाधन जुटाने में ख़र्च किए.
कुछ दिन पहले ही मुकुल ने मुझे फोन किया था. उन्होंने कहा, ‘इस कार्यक्रम को हम कॉलेज में नहीं करा पाएंगे क्योंकि ऐसे माहौल में इसके लिए शांतिपूर्ण आयोजन सुनिश्चित कर पाना मुश्किल है.’ वाक़ई में ऐसा संभव नहीं. ख़ासकर तब जब वह ख़ुद निशाने पर हैं.
यह समझ पाना वाक़ई मुश्किल है कि मुकुल को क्यों निशाना बनाया जा रहा है? उनके ख़िलाफ़ विरोध क्यों शुरू हो गया है? मक़सद बिल्कुल साफ़ है उन्हें अलग-थलग करना और विद्यार्थियों से उन्हें दूर रखना. उनकी नज़रों में मुकुल को संदिग्ध बनाकर और उन्हें असुरक्षित बनाकर.
तो क्या हम हमारे कैंपस से मुकुल जैसी शख़्शियत जो मज़ाकिया, तेज़ बुद्धि और कवि हृदय है, को खोने जा रहे हैं? यह कैंपस का नुकसान और ‘राष्ट्र’ का फ़ायदा है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)