मध्य प्रदेश: वनाधिकार की मांग और पेड़ कटाई के विरोध की आदिवासी चुका रहे भारी कीमत

मध्य प्रदेश के बुरहानपुर ज़िले में 50 वर्ष से अधिक समय से वन क्षेत्र में रह रहे आदिवासी समुदाय के लोगों को वन अधिकार प्राप्त नहीं हैं. इससे भी बुरी स्थिति यह है कि वन विभाग और स्थानीय प्रशासन ने अतिक्रमण एवं सरकारी आदेशों की अवज्ञा करने का हवाला देते हुए उनके ख़िलाफ़ कई मामले दर्ज कर लिए हैं.

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बुरहानपुर जिले के आदिवासी ग्रामीणों द्वारा बीते अप्रैल माह में किया गया विरोध प्रदर्शन. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

मध्य प्रदेश के बुरहानपुर ज़िले में 50 वर्ष से अधिक समय से वन क्षेत्र में रह रहे आदिवासी समुदाय के लोगों को वन अधिकार प्राप्त नहीं हैं. इससे भी बुरी स्थिति यह है कि वन विभाग और स्थानीय प्रशासन ने अतिक्रमण एवं सरकारी आदेशों की अवज्ञा करने का हवाला देते हुए उनके ख़िलाफ़ कई मामले दर्ज कर लिए हैं.

बुरहानपुर जिले के आदिवासी ग्रामीणों द्वारा बीते अप्रैल माह में किया गया विरोध प्रदर्शन. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

मुंबई: अंतराम अवासे मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के सिवाल के तीसरी पीढ़ी के निवासी हैं. बरेला आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले उनके दादा-दादी बरेला, भिलाला और भील समुदायों के कई अन्य लोगों की तरह 1970 के दशक में वन क्षेत्र में आ बसे थे. तब से उन्होंने घने और समृद्ध सागौन वन क्षेत्र को अपना घर बना लिया है.

हालांकि 50 वर्ष से अधिक समय क्षेत्र में रह चुके समुदायों को वन अधिकार प्राप्त नहीं हैं और अवासे बताते हैं कि इससे भी बुरी स्थिति यह है कि वन और स्थानीय प्रशासन ने अतिक्रमण और सरकारी आदेशों की जान-बूझकर अवज्ञा का हवाला देते हुए कई मामले दर्ज करके ग्रामीणों पर कार्रवाई की है.

ग्रामीणों का कहना है कि उनके खिलाफ किए गए अत्याचारों की सूची में सबसे हालिया उन मानवाधिकार रक्षकों के खिलाफ निर्वासन का आदेश है, जो क्षेत्र में सरकार से सक्रियता से सवाल कर रहे हैं.

भले ही बुरहानपुर जिले का एक बड़ा हिस्सा अनुसूचित क्षेत्र के रूप में चिह्नित है, लेकिन वहां रहने वाले आदिवासी समुदाय लंबे समय से वन अधिकारों से वंचित हैं.

सिवाल के ग्रामीण, जिले के 15 अन्य गांवों के निवासियों के साथ, मांग कर रहे हैं कि उन्हें वनवासियों के रूप में मान्यता दी जाए और वन अधिकार अधिनियम के तहत उनके अधिकारों की रक्षा की जाए.

2018 में जायज हक की मांग वाली ये लड़ाई और तेज हो गई तो राज्य की कार्रवाई भी हुई.

ग्रामीणों के ख़िलाफ़ कथित हिंसा

जागृत आदिवासी दलित संगठन (जेएडीएस) से जुड़े कार्यकर्ताओं में से एक नितिन उन घटनाओं को याद करते हैं, जब ग्रामीणों ने अपनी बेदखली का विरोध किया था तो उन पर पैलेट-गन से गोलियां चलाई गई थीं. गोलीबारी में कम से कम चार लोग घायल हो गए थे.

नितिन कहते हैं, ‘ज्यादातर लोग यहां कई दशकों से रह रहे हैं, यहां तक कि वन अधिकार कानून के अस्तित्व में आने से भी पहले से. वे यहां जमीन जोतते रहे हैं और वन उपज से अपना गुजारा करते रहे हैं. जैसे ही उन्होंने अपने अधिकारों पर दावा करना शुरू कर दिया, वन अधिका़री बल प्रयोग करने लगे.’

पैलेट दागने की इस घटना के कारण शिकायतें और प्रति शिकायतें हुईं. जहां वन विभाग ने आदिवासी ग्रामीणों के खिलाफ उनके काम में बाधा डालने का आरोप लगाते हुए मामला दर्ज किया, वहीं ग्रामीणों ने उनके खिलाफ अत्यधिक बल प्रयोग की शिकायत की. इस शिकायत के कारण कम से कम दो वन अधिकारियों का तबादला हो गया.

अवासे कहते हैं, ‘वन और राज्य पुलिस ने मेरे और विरोध प्रदर्शन में सबसे आगे रहने वाले अन्य ग्रामीणों के खिलाफ जो मामले दर्ज किए हैं, उनकी गिनती मैं भूल चुका हूं.’

इन मामलों में उन पर कई तरह के आरोप लगाए गए हैं, जिनमें ‘हत्या के प्रयास’ से लेकर ‘गैरकानूनी सभा’ करने तक के आरोप शामिल हैं.

2019 के बाद से इस क्षेत्र में मानवाधिकार उल्लंघन के कई मामले सामने आए हैं.

अगस्त और सितंबर 2020 के बीच क्षेत्र के कई लोगों (सभी आदिवासी समुदाय से संबंधित) को कथित झूठे आरोपों के तहत उठाया गया, वन अधिकारियों द्वारा हिरासत में लिया गया और कथित तौर पर प्रताड़ित किया गया.

ऐसी ही एक घटना में दो आदिवासी युवकों को अदालत में पेश करने से पहले खिड़की की रेलिंग से हथकड़ी के सहारे बांध दिया गया और कथित तौर पर पूरी रात पीटा गया.

जिन लोगों पर कई मामले दर्ज किए गए हैं, उनमें से ज्यादातर किसान या खेतिहार मजदूर के तौर पर काम करते हैं. अदालत के समक्ष उपस्थित होने का मतलब है- एक दिन का मेहनताना गंवा देना.

सरकार पर पेड़ों की कटाई के भी आरोप

ग्रामीण सरकार पर पेड़ों की कटाई के भी आरोप लगाते हैं. पिछले एक दशक में इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर वनों की कटाई देखी गई है.

अवासे का कहना है कि वह संगठन के अन्य सदस्यों के साथ वन और जिला प्रशासन दोनों को वन क्षेत्र के बड़े पैमाने पर किए जा रहे विनाश के बारे में सूचित करने गए थे.

अवासे आरोप लगाते हैं, ‘ये सभी सागौन के पेड़ हैं. ये करोड़ों रुपये में बिकते हैं. चूंकि आसपास के गांवों के कुछ लोग वन क्षेत्र को नष्ट करने के आपराधिक कृत्य में शामिल थे, इसलिए हमने अधिकारियों को लिखा. इसमें शामिल लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई.’

कार्यकर्ताओं का कहना है कि पेड़ों की कटाई में कथित तौर पर शामिल लोग भी आदिवासी समुदाय से ही हैं.

नितिन बताते हैं कि यह क्षेत्र में देखी जाने वाली एक समानांतर घटना है, जहां आदिवासी समुदायों के कई लोग जमीन पर अपना दावा करने के बेधड़क प्रयास करते हैं.

उन्होंने कहा, ‘यदि सरकार क्षेत्र में वन अधिकार कानून को लागू करने के बारे में गंभीर होती, तो वन क्षेत्र के विनाश को नियंत्रित किया जा सकता था.’

उन्होंने आगे कहा, ‘जागृत आदिवासी दलित संगठन का आरोप है कि अक्टूबर 2022 से इस क्षेत्र में 15,000 एकड़ से अधिक वन क्षेत्र का नुकसान हुआ है. यह वन और अन्य सरकारी निकायों की मिलीभगत के बिना संभव नहीं होता.’

विरोध प्रदर्शन और इसके परिणाम

अप्रैल में आदिवासी समुदायों से जुड़े एक हजार से अधिक महिला-पुरुषों ने मध्य प्रदेश सरकार द्वारा व्यापक और अवैध पेड़ों की कटाई को दिए गए मौन समर्थन के खिलाफ तीन दिवसीय विरोध प्रदर्शन किया था, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि इतने बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई स्वयं राज्य सरकार के अप्रत्यक्ष समर्थन के बिना असंभव है.

आदिवासी ग्रामीणों का विरोध प्रदर्शन. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

हालांकि अधिकारी ग्रामीणों की मांगों पर बिल्कुल भी सहमत नहीं हुए. जागृत आदिवासी दलित संगठन ने वन और राज्य प्रशासन वन अधिकार अधिनियम के तहत पात्र कई दावेदारों को अवैध रूप से बेदखल करने का आरोप लगाया है.

ग्रामीणों का आरोप है कि जिले में 10,000 से अधिक वन अधिकार के दावे लंबित हैं, जिनमें से कुछ अवैध रूप से बेदखल किए गए लोगों के भी हैं.

राज्य की सबसे हालिया कार्रवाइयों में संगठन की माधुरी कृष्णास्वामी का निर्वासन था. कृष्णास्वामी, जो जिले में समुदाय और आंदोलनों को संगठित करने में सक्रिय रूप से शामिल रही हैं, पर अक्टूबर 2022 और जनवरी 2023 के बीच 21 वन अपराध के मामले दर्ज किए गए हैं.

क्षेत्र के अधिकार कार्यकर्ता इसे आंदोलन को तोड़ने की प्रशासन की रणनीति का हिस्सा बताते हैं.

अवासे ने कहा, ‘वे एक-एक करके नेताओं को निशाना बना रहे हैं. कई आदिवासी महिलाएं जो आवाज उठाने में आगे रहती हैं, वन अधिकारियों के निशाने पर हैं. अंग्रेजों की तरह ही मध्य प्रदेश सरकार पर भी अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले समुदाय के अपराधीकरण करने का भूत चढ़ा हुआ है.’

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