नई फैक्ट-चेक इकाई लाने वाले आईटी नियमों पर कोर्ट ने कहा- चींटी मारने के लिए हथौड़ा नहीं ला सकते

स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजींस द्वारा संशोधित आईटी नियमों को चुनौती देने वाली याचिकाएं सुनते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट की पीठ ने कहा कि वह अभी तक यह नहीं समझ पा रही है कि आईटी नियमों में इस संशोधन की क्या ज़रूरत थी.

(इलस्ट्रेशन: द वायर)

स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजींस द्वारा संशोधित आईटी नियमों को चुनौती देने वाली याचिकाएं सुनते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट की पीठ ने कहा कि वह अभी तक यह नहीं समझ पा रही है कि आईटी नियमों में इस संशोधन की क्या ज़रूरत थी.

(इलस्ट्रेशन: द वायर)

मुंबई: बॉम्बे हाई कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि सरकार के विरुद्ध सोशल मीडिया पर फर्जी सामग्री डालने के खिलाफ हाल ही में संशोधित सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) नियम ज्यादती हो सकते हैं, और चुटकी लेते हुए कहा कि कोई चींटी को मारने के लिए हथौड़ा नहीं ला सकता है.

एनडीटीवी के मुताबिक, जस्टिस गौतम पटेल और जस्टिस नीला गोखले की खंडपीठ ने यह भी कहा कि वह अभी भी नियमों में संशोधन के पीछे की जरूरत नहीं समझ पा रहे हैं. अदालत ने जोड़ा कि पीठ इस बात को भी समझ नहीं पा रही है कि सरकार के एक प्राधिकरण को यह तय करने की पूर्ण शक्ति दी गई है कि क्या फर्जी, झूठा और भ्रामक है.

अदालत ने कहा, ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सरकार भी उतनी ही भागीदार है जितना एक नागरिक है और इसलिए किसी नागरिक को सवाल करने और जवाब मांगने का मौलिक अधिकार है और सरकार जवाब देने के लिए बाध्य है.

पीठ संशोधित आईटी नियमों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी. स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजींस ने नियमों के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की है और उन्हें मनमाना एवं असंवैधानिक बताया है. साथ ही दावा किया है कि उनका नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर भयानक प्रभाव पड़ेगा.

अदालत ने यह भी सवाल किया कि संशोधित नियमों के तहत स्थापित की जाने वाली फैक्ट-चेकिंग यूनिट (एफसीयू) के फैक्ट कौन चेक करेगा. जस्टिल पटेल ने कहा, ‘ऐसी धारणा है कि एफसीयू जो कहेगा, वह निर्विवाद रूप से अंतिम सत्य होगा.’

शुक्रवार को एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजींस की ओर से वकील गौतम भाटिया ने नियमों के खिलाफ अपनी दलीलें रखनी शुरू कीं. भाटिया ने अदालत को बताया कि सोशल मीडिया पर फर्जी सामग्री पर नजर रखने के लिए कम प्रतिबंधात्मक विकल्प भी उपलब्ध हैं.

पीठ ने टिप्पणी की कि ऑफलाइन सामग्री में कुछ जांच-परख (फिल्टरेशन) भी होती है लेकिन सोशल मीडिया मध्यस्थों के लिए अभी तक ऐसी कोई फैक्ट-चेकिंग नहीं है.

अदालत ने कहा, ‘तथ्यों की कुछ तो जांच होनी चाहिए. किसी स्तर पर किसी को तो सोशल मीडिया पर सामग्री के तथ्य जांचने चाहिए. लेकिन आपका (याचिकाकर्ता) यह कहना सही हो सकता है कि यह (नियम) ज्यादती हैं. आप एक चींटी को मारने के लिए हथौड़ा नहीं ला सकते.’

पीठ ने कहा कि कोई भी व्यक्ति झूठ बोलने के मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर रहा है और एक नागरिक केवल यह कह रहा है कि उन्हें अपने बयान की सत्यता का बचाव करने का अधिकार है.

पीठ ने ज्यादती के पहलू को किनारे रखते हुए कहा कि वह अभी तक यह नहीं समझ पा रही है कि आईटी नियमों में इस संशोधन की क्या जरूरत थी.

जस्टिस पटेल ने कहा, ‘वह कौन-सी चिंता है जिसके कारण इस संशोधन की आवश्यकता पड़ी? इसके पीछे क्या व्याकुलता है? मैं अभी भी नहीं जानता.’

अदालत ने कहा कि नियम फर्जी, झूठे और भ्रामक की सीमाओं पर भी चुप हैं.

पीठ ने नागरिकता कानून का जिक्र करते हुए कहा, ‘अगर कोई यह राय लिखता है कि इस कानून के प्रावधानों का प्रभाव ऐसा-ऐसा है, तो क्या ऐसे विरोधी विचार को फर्जी, झूठा और भ्रामक मानकर हटाने का आदेश दिया जा सकता है?’

कोर्ट ने सवाल किया, ‘क्या नियमों में ऐसा कुछ नहीं है जो हमें यह बताता हो कि सीमा क्या है? कि यह वह सीमा है जिसे फर्जी, झूठा और भ्रामक माना जाएगा. क्या अटकलें इसे फर्जी, झूठा और भ्रामक बनाती हैं.’

अदालत ने इस बात पर भी विचार किया कि सरकार द्वारा गठित एक प्राधिकरण अंतिम रूप से यह कैसे तय कर सकता है कि क्या सच है और क्या झूठ है.

पीठ ने कहा, ‘यह जटिल जान पड़ता है कि नियम फैक्ट-चेकिंग यूनिट को यह तय करने की पूर्ण शक्ति देते हैं कि यह झूठा है और यह भ्रामक है. हमारे अनुसार, कानून की अदालत को छोड़कर किसी को भी यह बताने का अधिकार नहीं है कि क्या सच है और क्या झूठ. यहां तक कि एक अदालत भी यही कहती है कि शायद यह सच हो सकता है और शायद यह झूठ है.’

अदालत ने कहा कि संशोधन के बिना भी, सरकार के पास प्रेस सूचना ब्यूरो (पीआईबी) है जो नियमित रूप से कोई गलत या फर्जी सामग्री होने पर सोशल मीडिया पर पोस्ट करता है.

अदालत ने कहा, ‘सरकार का मामला क्या यह है कि यदि संशोधन नहीं किया गया तो सोशल मीडिया मध्यस्थ अनियंत्रित हो जाएंगे.’

उल्लेखनीय है कि इससे पहले पिछली सुनवाई में भी अदालत ने केंद्र से पूछा था कि जब पीआईबी मौजूद है तो फैक्ट चेक इकाई की ज़रूरत क्यों पड़ी.

पीठ ने पूछा था, ‘वे कह रहे हैं कि फैक्ट चेक इकाई को अभी नहीं बनाया गया है, लेकिन पीआईबी लंबे समय से अस्तित्व में है. हमें उत्तरों में स्पष्टीकरण कहां मिलेगा कि वह एजेंसी (पीआईबी) अपर्याप्त क्यों है और आपको संशोधन की आवश्यकता क्यों है? जब भी पीआईबी कोई स्पष्टीकरण जारी करता है, तो हर समाचार चैनल और अखबार उसे प्रसारित करते हैं.’

हाईकोर्ट नेयह भी जोड़ा था कि अगर किसी नियम या कानून का प्रभाव असंवैधानिक है, तो उसे जाना होगा, चाहे उसका मकसद कितना भी प्रशंसनीय क्यों न हो.

ज्ञात हो कि इस साल 6 अप्रैल को केंद्र सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम- 2021 में कुछ संशोधनों की घोषणा की थी, जिनमें सरकार से जुड़ी ‘फर्जी, झूठी या भ्रामक’ ऑनलाइन सामग्री को चिह्नित करने के फैक्ट-चेक यूनिट स्थापित करने का भी प्रावधान था.

तीन याचिकाओं में अदालत से संशोधित नियमों को असंवैधानिक घोषित करने और सरकार को नियमों के तहत किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करने से रोकने का निर्देश देने की मांग की गई.

कुणाल कामरा ने यह कहते हुए नियमों के खिलाफ याचिका दायर की थी कि वह एक व्यंग्यकार हैं और सरकार के फैसलों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणियां पोस्ट करते हैं और संशोधित नियमों से टिप्पणियों को पोस्ट करने की उनकी क्षमता पर अंकुश लगेगा क्योंकि उन्हें झूठा करार दिया जाएगा और उनकी सामग्री या उनके एकाउंट को मनमाने ढंग से ब्लॉक भी किया जा सकता है.

इससे पहले द वायर समेत कई मीडिया संगठनों द्वारा आईटी नियमों में पुराने बदलावों को भी चुनौती दी गई थी. तब बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन धाराओं के प्रावधान पर रोक लगा दी थी जो सीधे डिजिटल समाचार साइटों पर लागू होती हैं.