प्रेमचंद के साहित्य में स्त्रियां: परंपरा और प्रगतिशीलता का द्वंद्व

आज की संवेदनशीलता में प्रेमचंद के साहित्य में वर्णित स्त्रियां निश्चित रूप से परंपरा या पितृसत्ता के हाथों अपने अस्तित्व को मिटाती हुई नज़र आएंगी, पर उनके कथ्य को ऐतिहासिक गतिशीलता में रखकर देखें, तो नज़र आता है कि ये स्त्रियां अपने समय की परिधि, अपनी भूमिका को विस्तृत करती हैं, ऐसे समय में जब ये परिधियां अत्यंत संकरी थीं.

/
प्रेमचंद. (फोटो साभार: रेख्ता/इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

आज की संवेदनशीलता में प्रेमचंद के साहित्य में वर्णित स्त्रियां निश्चित रूप से परंपरा या पितृसत्ता के हाथों अपने अस्तित्व को मिटाती हुई नज़र आएंगी, पर उनके कथ्य को ऐतिहासिक गतिशीलता में रखकर देखें, तो नज़र आता है कि ये स्त्रियां अपने समय की परिधि, अपनी भूमिका को विस्तृत करती हैं, ऐसे समय में जब ये परिधियां अत्यंत संकरी थीं.

प्रेमचंद. (फोटो साभार: रेख्ता/इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

प्रेमचंद आधुनिक भारतीय साहित्य के ऐसे लेखक हैं, जिनकी रचनाओं में निहित वैचारिकता के पुनर्पाठ की आवश्यकता हर दौर में और अधिक प्रासंगिक लगने लगती है या यूं समझें कि समय के उनके साहित्य की नई-नई जरूरतें निकलती जा रही हैं. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने प्रेमचंद के साहित्य के विषय में लिखा था कि कैसे उन्हीं की उंगली पकड़कर हिंदी-उर्दू का कथा साहित्य सही मायनों में डी-क्लास हो पाया था, पर इस विश्लेषण से भी आगे बढ़कर अगर प्रेमचंद को हम साहित्य की पूर्व-प्रचलित परंपरा से विद्रोह के रूप में ग्रहण करें तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

हिंदी साहित्यिक परंपरा में जहां स्त्रियां केवल कथा में एक पात्र मात्र से अधिक की स्थिति में उपस्थित नहीं थी, वहां यह संभवतः प्रेमचंद ही थे जिन्होंने अपने स्त्री पात्रों को एक ठोस सामाजिक-आर्थिक आधार पर रखकर उनकी राजनीतिक अभिव्यक्ति को संभव बनाया. और यहां हम राजनीति की बात इसीलिए कर रहे हैं कि लेखक की लेखनी से निकलकर पन्नों पर आकार ग्रहण करते शब्द- जिनसे अंततः साहित्य निर्मित होता है- वह एक विशिष्ट अर्थ में विशुद्ध राजनीतिक कर्म है.

प्रेमचंद का समय औपनिवेशिकता के साथ भारतीय राष्ट्रवाद के संघर्ष के तीव्रतर होते जाने का दौर था. यही वह दौर था, जब राष्ट्र-राज्य की व्यापक पृष्ठभूमि में महिलाओं की परिवर्तित होती हुई भूमिका को देखते हुए उन्होंने अपनी कहानियों, समाज में उसके स्थान को लेकर उसकी एक नई छवि की कल्पना की.

पर इन सबके साथ ही प्रेमचंद के स्त्री पात्रों को लेकर जो आलोचना-दृष्टि है, गौर करें तो वह मुख्यतया दो अतिवादों में सीमित होकर रह जाती है. मसलन अगर एक धड़ा वह है जो उन्हें उदारवादी मानकर स्त्रियों के चित्रण में उनकी प्रगतिशील दृष्टि का विश्लेषण करता है तो वहीं दूसरी तरफ आलोचकों का एक बड़ा वर्ग उन्हें अंततः परंपरा की ही दुहाई देने वाला मानता है.

इस प्रकार इन दो अतिवादों से जूझते हुए प्रेमचंद के साहित्य में वर्णित स्त्रियों की कभी भी सम्यक परीक्षा नहीं हो पाती. इसलिए न केवल साहित्य के आलोचकों बल्कि इतिहासकारों ने भी प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री के स्वर को समझने की कवायद की है और हर बार प्रेमचंद-साहित्य के प्रति हमारी समझ में इजाफा ही होता आया है.

इतिहासकार चारु गुप्ता मानती हैं कि कैसे एक विशुद्ध भौतिकवादी-नारीवादी विश्लेषण से ही हम एक लेखक के तौर पर प्रेमचंद के वैचारिक संघर्ष और सामाजिक परिवर्तन की धारा को समझ सकते हैं और उनके साहित्य में वर्णित स्त्रियों को ग्रहण कर सकते हैं.  

जैसा कि गुप्ता कहती हैं, प्रेमचंद के कथा-साहित्य में स्त्री पात्रों का जो समुदाय बनता है वह मोटे तौर पर चार विशिष्ट वर्गों में समाहित किया जा सकता है. पहला वर्ग तो नारीत्व का आदर्श रूप ली हुई स्त्रियों का है, दूसरा वर्ग आदर्श नारियों का एकदम ही उलट, पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित स्त्रियों का बनता है, तीसरा वर्ग उन स्त्रियों का है जो शोषित और दमित हैं और चौथा वर्ग विद्रोहिनी या आवाज़ उठाने वाली स्त्रियों का है. पर इन एकदम ही नियत खांचों का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि यह सभी वर्ग अपने आप में निश्चित और रूढ़ हों, बल्कि कई बार एकाधिक चरित्रगत विशेषताएं आपस में घुली-मिली होती हैं और एक संश्लिष्ट स्त्री पात्र का गढ़न प्रेमचंद कर रहे होते हैं.

पर इन पात्रों के हवाले से प्रेमचंद साहित्य को समझने से पहले स्वयं प्रेमचंद की स्त्री संबंधी अवधारणा को समझना आवश्यक होगा.

प्रेमचंद की दृष्टि में स्त्री के विलासिनी और कामुक रूप से अधिक महत्व उस स्त्री छवि का है जो अपने स्त्रीत्व के आदर्श रूप में परिवार और समाज की धुरी है. बंबई से 7 सितंबर 1934 को इंद्रनाथ मदान को लिखे गए अपने पत्र में प्रेमचंद अपनी राय इस प्रकार व्यक्त करते हैं: ‘स्त्री का मेरा आदर्श त्याग है, सेवा है, पवित्रता है, सब कुछ एक में मिला-जुला. त्याग जिसका अंत नहीं, सेवा सदैव सहर्ष और पवित्रता ऐसी कि कोई कभी उस पर उंगली न उठा सके.’

इस प्रकार देखा जाए तो स्त्रीत्व की यह उच्च भूमि ही प्रेमचंद की कथा-कहानियों में भी स्त्री चरित्र के लिए एक अभीष्ट रूप का निर्माण करता है. मसलन प्रेमचंद की एक कहानी स्वर्ग की देवी में कथा की केंद्रीय पात्र लीला जीवन की तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी अपना धैर्य और विश्वास बनाए रखती है. पुरुष के हृदय परिवर्तन पर आधारित यह कहानी दिखलाती है कि कैसे स्त्री अपने त्याग, सेवा और सहनशीलता से किसी भी विपरीत परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकती है.

इसी प्रकार बड़े घर की बेटी कहानी में आनंदी के माध्यम से यह दिखलाते हैं कि कैसे यह एक स्त्री के ही उच्च संस्कार हैं जो एक परिवार को टूटने से बचा लेते हैं और इस प्रकार संयुक्त परिवार की मर्यादा और इज़्ज़त एक स्त्री के हाथों में ही होती है.

इन कहानियों में स्त्रियों के त्याग और सहनशीलता के कारण ही परिवार रूपी संस्था बचाई जा पाती है और कहीं-न-कहीं यह इस बात की ओर भी संकेत करता है कि व्यक्ति प्रेमचंद के लिए परिवार व्यवस्था की व्यक्तिगत और सामाजिक अर्थवत्ता बहुत है. परिवार, प्रेमचंद की दृष्टि में वह इकाई है, जिसे बाह्य संसार की निर्ममताओं और निष्ठुर प्रहारों से बचाकर रखने की आवश्यकता है और प्रायः परिवार व्यवस्था को बचाने और विकसित करने का पूरा दारोमदार एक स्त्री पर ही होता है.

इस परिवार रूपी संस्था को ही संरक्षित और सुचारु रूप से नियंत्रित करने के लिए स्त्रियों की सहनशीलता, आत्मबलिदान और क्षमा जैसे मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है. इसलिए प्रेमचंद जिस स्त्री को अपने कहानियों में उभारते हैं वह प्रायः पातिव्रत्य के गुणों से लैस पत्नी का होता है जो एकनिष्ठ और पवित्र होती है.

सती कहानी इसका अच्छा उदाहरण है. इस कहानी में मूलिया जिसका शक्की पति कल्लू उसकी सुंदरता के कारण उसे विश्वासपात्र नहीं मानता, अंततः उसकी एकनिष्ठ सेवा भावना से द्रवित हो जाता है. कहानी में जिस प्रकार कल्लू की मृत्यु के बाद भी मूलिया किसी के भी प्रणय निवेदन को स्वीकार न कर आजीवन सती के रूप में रहना स्वीकार करती है, वह स्त्री की एकनिष्ठता को उभारता है.

इसी प्रकार रानी सारंधा, शाप और मर्यादा की वेदी कहानियों में स्त्री की पवित्रता, त्याग और क्षमाशीलता जैसे चारित्रिक विशिष्टताओं को सोद्देश उभारा गया है.

§

नारी का एक और प्रमुख रूप जो प्रेमचंद अपनी कहानियों में आराध्य मानते हैं वह है- स्त्री का मातृ स्वरूप. प्रेमचंद जिनकी स्वयं की मां का देहांत उनकी बाल्यावस्था में ही हो गया था, मां के स्थान को रेखांकित करते हुए अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘मैं आठ साल का था तभी मेरी मां नहीं रही. उसके पहले की मेरी स्मृतियां बहुत धुंधली हैं. कैसे में बैठा अपनी बीमार मां को देखता रहता था, जो उतनी ही मुहब्बती और मौका पड़ने पर उतनी ही कठोर थी, जितनी कि अब अच्छी माएं होती हैं.’

इसीलिए प्रेमचंद अपनी कहानियों में मां की चरित्रगत विशिष्टताओं को स्त्री के आदर्श रूप का चरमोत्कर्ष मानते हैं. उनके यहां स्त्री कामुकता, विलासिता या मानव-सुलभ इच्छाओं के परवश नहीं हो सकती और यह सब गुण स्त्रियों के व्यक्तित्व का उज्ज्वल पक्ष नहीं हो सकता. इसलिए प्रेमचंद की स्त्री पात्र दैहिक कामनाओं से परिपूर्ण स्त्री नहीं है, बल्कि प्रायः वह एक कर्तव्यनिष्ठ पत्नी या समर्पित माता के रूप में ही ग्राह्य और पूज्य है.

पर स्त्रियों की इस समाज संपोषित, परिवार संरक्षित दृष्टि से उपजी विशेषताओं का यह एकतरफा अर्थ नहीं होना चाहिए कि प्रेमचंद के स्त्री पात्र मर्यादा और परंपरा को बिना किसी प्रश्न के स्वीकार कर रही हैं. मसलन, उनके स्त्री पात्र कुछ जरूरी प्रश्न भी पूछते हैं. मनोवृत्ति कहानी में स्त्री पर ही सभी अपेक्षाओं के भार डालने की प्रवृत्ति पर एक युवती प्रश्न उठाती है- ‘स्त्री ही पुरुष के आकर्षण की फिक्र क्यों करे? पुरुष क्यों स्त्री से पर्दा नहीं करता.’

इसी प्रकार मातृत्व का उज्जवल रूप भी अपनी संतान को अंधा प्रेम करने के लिए मात्र नहीं हैं बल्कि वह उसके अवगुण पर भी उसी प्रकार की लज्जा महसूसने वाला है जैसा कि उसके किसी अच्छे काम पर ममत्व उड़ेलेने वाला.

कातिल की मां कहानी की रामेश्वरी अपने खूनी बेटे के खिलाफ भरी कचहरी में केवल इसीलिए बयान देती है कि उसकी जान बचाने के लिए झूठी गवाही दे कर वह इतने सारे घर बर्बाद होते नहीं देख सकती. स्त्री, राष्ट्रवाद के इन चरम वर्षों में स्वयं राष्ट्र का प्रतीक थीं. वह जीवनदायिनी माता है जो राष्ट्र के नागरिक रूपी संतान का भरण-पोषण करती है. वह स्त्री रूपी राष्ट्र ही है जिसे बाह्य आक्रमण से, चाहे वह राजनीतिक हो या सांस्कृतिक, बचाना है. इसीलिए प्रेमचंद स्त्री की इस पालन करने वाली छवि पर अधिक आस्था रखते हैं न कि उसके एक अतिशय यौनिक स्वरूप पर.

जिस प्रकार गांधी जी ने औपनिवेशिक दमन से निबनटने के लिए भारतीय राजनीति के स्त्रीकरण की बात की थी, जहां स्त्रियों के धैर्य, त्याग, सहनशीलता, क्षमा, दया इत्यादि गुणों को उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ एक सशक्त प्रविधि माना गया था, वहीं सांस्कृतिक रूप से प्रेमचंद इसे साहित्य में अभिव्यक्त कर रहे थे.

उनके कालजयी उपन्यास गोदान में जिस प्रकार डॉ. मेहता ऑल इंडिया वुमन कॉन्फ्रेंस के वार्षिक सम्मेलन में स्त्रियों को उनके उत्कृष्ट गुणों की याद दिलाते हुए उन्हें पुरुषों से श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं, यह उनकी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक सोद्देश्यता का ही प्रमाण है. ‘मुझे खेद है, हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहां नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिरकर विलास की वस्तु बन गई है. पश्चिम की स्त्री स्वच्छंद होना चाहती है, इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विकास कर सके. हमारी माताओं का आदर्श विलास कभी नहीं रहा.’

इसी प्रकार मिस्टर मेहता का सेवा विषयक जो तर्क है, वह हमें आज के संदर्भों में तो प्रेमचंद की दृष्टि की सीमा लग सकती है पर औपनिवेशिक संदर्भों से इसे जोड़कर देखने से हमें इसके भिन्न अर्थ नजर आएंगे. और विचार किया जाए तो मेहता के विचार स्वयं प्रेमचंद के ही विचार हैं यह मानना भी दृष्टि का संकरापन ही होगा.

‘स्त्री धरती के समान है. उसमें अपार सहनशक्ति है. पुरुष इसमें अक्षम है. स्त्री ही पुरुष रूपी नौका को पार लगा सकती है. स्वच्छंद स्त्रियों से प्रेम किया जा सकता है, विवाह नहीं. नारी में पुरुष के गुण आ जाएं तो वह कुलटा हो जाती है.’

प्रेमचंद की रचनाओं में एक विशिष्ट वर्ग की स्त्रियां, जिनके प्रति हमें वह एक सुस्पष्ट पूर्वाग्रह से ग्रस्त नजर आते हैं, या जिन्हें कहीं भी लेखकीय सहानुभूति नहीं देते, वह हैं- पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित स्त्रियां. यह प्रायः वह वर्ग है जहां स्त्रियां पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के कारण स्वतंत्रता को अपने अस्तित्व के निर्धारण का सबसे अहम बिंदु मानती हैं.

मसलन मिस पद्मा कहानी में पद्मा ऐसी ही एक स्त्री है जो, पेशे से वकील है और एक उन्मुक्त जीवन दर्शन की हिमायती है. वह विवाह को समाज व्यवस्था की वह बुराई मानती है जिसकी वजह से स्त्रियां हमेशा पुरुष की दासी बनकर रहने के लिए अभिशप्त रहती हैं.

पद्मा के विचार प्रेमचंद लिखते हैं: ‘भोग में उसे कोई नैतिक बाधा न थी, इसे वह केवल देह की एक भूख समझती थी. इस भूख को किसी साफ-सुथरी दुकान से भी शांत किया जा सकता है और पद्मा को साफ-सुथरी दुकान की हमेशा तलाश रहती थी.’ इसलिए प्रसाद जिसे पद्मा प्रेम करती है उसके साथ बिना विवाह के रहती है और अंततः कहानी का अंत प्रेमचंद इस बिंदु पर करते हैं कि पद्मा संतान को जन्म देने वाली है और उससे विरक्त और अपने ही भोग-विलास में रत प्रसाद पद्मा की सारी जमा-पूंजी लिए अपनी ही एक छात्रा के साथ विदेश भ्रमण के लिए निकल जाता है.

प्रेमचंद इस प्रकार पाश्चात्य संस्कृति की नकल से विकसित की गई स्वतंत्रता और अधिकार की परिभाषा की नैतिक विफलता को दिखलाते हैं.

इसी प्रकार शांति कहानी भी प्रेमचंद के इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है कि पाश्चात्य सभ्यता के रंगों में रंगी हिंदुस्तानी स्त्री नैतिकता का आत्मबल खो देती है- वह शक्ति जिसके बल पर वह विषम से विषम परिस्थितियों में भी विजय प्राप्त कर सकती है.

प्रेमचंद की इस दृष्टि के केंद्र में अंततः हमें इस दौर की उपनिवेशवाद विरोधी मानसिकता का प्रभाव ही समझना चाहिए जो भारतीय-राष्ट्रीय संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करके औपनिवेशिक दमन का प्रतिपक्ष निर्मित करना चाहता था. पर यहां राष्ट्र को संस्कृति से जोड़कर देखने की दृष्टि भी है जो औपनिवेशिक आधुनिकता को अनिवार्यतः राष्ट्र-विरोधी बना देती थी.

§

प्रेमचंद की सुधारवादी आग्रह से लिखी गई कहानियां में उन स्त्रियों को लेखक ने उभारा है, जहां वह समाज के हाशिये पर जीने के लिए अभिशप्त हैं. इन कहानियों में वह स्त्री विमर्श का ही एक सशक्त संस्करण प्रस्तुत करते नज़र आते हैं. मसलन विधवाओं की भारतीय परिवार-व्यवस्था में दारुण स्थिति पर अगर प्रेमचंद बेटों वाली विधवा, वरदान, धिक्कार, स्वामिनी, सुभागी, बूढ़ी काकी में बात करते हैं तो वहीं वेश्याओं पर भी अपने उपन्यास सेवासदन और कई कहानियों में वह विचार करते हैं.

बेटों वाली विधवा में फूलमती के हवाले से न केवल एक संयुक्त परिवार में विधवाओं की स्थिति पर वह प्रश्न उठाते हैं बल्कि, संपत्ति पर उनके अधिकार के हवाले से एक सामाजिक-आर्थिक आलोचना करते नजर आते हैं. विधवाओं के प्रति प्रेमचंद की संवेदनशील दृष्टि सिर्फ उनकी लेखनी का ही हिस्सा नहीं, बल्कि उनके आचरण और जीवन का भी सत्य था.

प्रेमचंद न केवल स्वयं बाल-विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया था बल्कि शारदा बिल जो विवाह के लिए वैधानिक उम्र को बढ़ाने और विधवाओं को पति की संपत्ति में हिस्सा देने के लिए लाया गया था, प्रेमचंद उसे भी मुखर समर्थन देते हैं.

अक्टूबर 1933 में लिखी अपनी टिप्पणी ‘विधवाओं के गुजारे का बिल’ में वह साफ-साफ लिखते हैं: ‘हिंदू समाज के पतन का मुख्य कारण अगर जाति भेद है, तो विधवाओं की दुर्दशा भी उसका ख़ास सबब है.’

इसी प्रकार वेश्याओं पर प्रेमचंद की दृष्टि सुधारवादी होकर भी इस अर्थ में क्रांतिकारी समझी जा सकती है कि वह उनके ढके-छुपे संसार पर प्रकाश डालने का सामाजिक साहस करते हैं.

वेश्या कहानी में वह स्त्री के वेश्या बन जाने के निर्णय पर लिखते हैं: ‘कोई स्त्री स्वेच्छा से रूप का व्यवसाय नहीं करती. अगर मैं भ्रष्ट हूं तो जो लोग यहां अपना मुंह काला करते हैं, वे कुछ कम भ्रष्ट नहीं हैं.’

स्त्री को लेकर समाज की एक पक्षपात पूर्ण, भेदभावपूर्ण विरोधी दृष्टि का पता हमें उनकी एक प्रभावी कहानी मनोवृत्ति से भी पता चलती है. सुबह-सुबह पार्क में एक बेंच पर उन्मुक्त होकर सोती हुई एक स्त्री को देखकर जिस प्रकार वहां से गुज़रने वालों लोगों में जो प्रतिक्रियाएं होती हैं, प्रेमचंद उसे समाज के मनोविज्ञान को समझने का एक जरिया बनाते हैं. जहां अधिकतर लोग उसे एक स्वच्छंद वेश्या समझते हैं, वहीं कुछ लोग उसके मांग में सिंदूर देखकर उसे कुलवधू भी समझते हैं पर सबकी दृष्टि में एक धिक्कार और तिरस्कार ही छिपा रहता है.

§

प्रेमचंद को उनके सांस्कृतिक-राष्ट्रीय संदर्भ में देखने की आवश्यकता है. स्वतंत्रता संग्राम जो अपने कलेवर में ही पितृसत्तात्मक था, प्रेमचंद उन्हीं स्वरों को अपनी रचनाओं में पकड़ रहे थे. इसीलिए प्रेमचंद की कहानियां अपने समय से प्रभावित थीं और इस पूरी दौर की विभिन्न अंतर्विरोधी विचारों के घात-प्रतिघात को ही अभिव्यक्त कर रही थीं.

प्रेमचंद की रचनाएं अगर बहुत अधिक रैडिकल स्वर नहीं भी ले पाती हैं तो उसकी वजह जैसा कि चारु गुप्ता कहती हैं यह है कि किसी लेखक विशेष की विचारधारा की शक्ति और उसका प्रभाव अपने युग के भौतिक वस्तु-स्थितियों या वास्तविकताओं से एकदम ही अलग नहीं हो सकती. इसलिए प्रेमचंद की कहानियों में परंपरा और प्रगतिशीलता का द्वंद्व उनकी रचनात्मक विरासत की साझी ज़मीन है. इसलिए आज की समसामयिकता से भरी संवेदनशीलता में प्रेमचंद के साहित्य में वर्णित स्त्रियां निश्चित रूप से परंपरा या पितृसत्ता के हाथों अपने अस्तित्व को मिटाती हुई नज़र आएंगी, पर प्रेमचंद के कथ्य को उसकी ऐतिहासिक गतिशीलता में रखकर देखने से यह प्रतीत होगा कि प्रेमचंद की स्त्रियां अपने समय की परिधि, अपनी भूमिका को विस्तृत करती है, एक ऐसे समय में जब यह परिधियां अत्यंत संकरी थी.

आलोचक जीतेंद्र श्रीवास्तव लिखते हैं कि सन 1931 के समाज में प्रेमचंद की स्त्री अधिकारों से संबंधी बातें, जो उनके एक लेख ‘नारी जाति के अधिकार में उल्लिखित हैं- कितनी महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी थीं और प्रेमचंद की बातों को पढ़-सुनकर पुरुष वर्ग कितना खलबलाया होगा, इसकी कल्पना कठिन नहीं है. सिवाय तत्कालीन स्त्री आंदोलनों के किसी और लेखक में यह स्पष्टता नहीं दिखलाई पड़ती है.

स्त्री-पुरुष संबंधों में देह के स्तर पर भी उतनी ही समानता की वकालत प्रेमचंद करते हैं और यह इस बात की ओर संकेत करता है कि प्रेमचंद अपने समय के स्त्रीवादी आंदोलनों से एकदम ही अछूते नहीं थे. देह पर स्त्री का स्व-अधिकार और उसकी अपनी स्वतंत्रता का प्रश्न प्रेमचंद भी अपनी रचनाओं के माध्यम से उठाते हैं.

गोदान की झुनिया अपने प्रेम की शुरुआत ही में कहती हैं, मर्द दूसरी औरत के पीछे दौड़ेगा तो औरत भी ज़रूर मर्दों के पीछे दौड़ेगी. मर्द का हरजाईपन औरत को उतना ही बुरा लगता है, जितना औरत का मर्द को. यही समझ लो. मैंने तो अपने आदमी से साफ-साफ कह दिया था, अगर तुम इधर-उधर लपके, तो मेरी भी जो इच्छा होगी वही करूंगी.’

गोदान में वर्णित कई स्त्री पात्र चाहे वह धनिया हो या झुनिया या सिलिया या सोना- सब कहीं न कहीं अपने आस-पास की प्रचलित परंपरा और व्यवस्था से विरोध करती हैं, भले ही वह विरोध बहुत क्रांतिकारी न भी हो, वह स्त्री को एक अस्तित्व प्रदान करता है. इसीलिए ऐसा सोचना कि प्रेमचंद अपने युगानुरूप ही स्त्रियों को अभिव्यक्त मात्र कर रहे थे, प्रेमचंद के साहित्य में निहित प्रगतिशील और कालातीत मूल्यों की उपेक्षा होगी. इसीलिए प्रेमचंद मात्र चित्रण नहीं कर रहे थे बल्कि वस्तु-स्थितियों, युग की प्रबल वैचारिकता में एक सार्थक हस्तक्षेप भी कर रहे थे.

इसीलिए प्रेमचंद ने अपनी स्त्री दृष्टि से जिन प्रश्नों को अपने समय में उठाया था, उसमें से आज भी कई प्रश्न अनुत्तरित हैं. अतिशय शहरीकरण से अगर स्त्रियों की स्थिति में थोड़ी भी बेहतरी आई है तो वह बेहतरी समाज के सिर्फ एक ख़ास तबके और एक नियत शहरी परिवेश तक ही सीमित है. स्त्री जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज भी दोहरे शोषण का शिकार है और मध्ययुगीन जड़ों की उस पर पकड़ आज भी ढीली नहीं हुई है, ऐसे में प्रेमचंद को बारंबार पढ़ना और उनके पाठ से आज की समस्याओं को थोड़ा और गहरे उतरकर देखने की प्रक्रिया न केवल साहित्य बल्कि समाज में भी सतत चलनी चाहिए.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq bandarqq dominoqq pkv games slot pulsa pkv games pkv games bandarqq bandarqq dominoqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq