अफ़सोस की बात थी कि जिस वक़्त संसद में सरकार के लोग ठिठोली, छींटाकशी कर रहे थे जब मणिपुर में लाशें 3 महीने से दफ़न किए जाने का इंतज़ार रही हैं. इतनी बेरहमी और इतनी बेहिसी के साथ कोई समाज किस कदर और कितने दिन ज़िंदा रह सकता है?
‘मोदी माहिर ट्रोल हैं’ प्रधानमंत्री के एक सितारा प्रशंसक ने संसद में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के उत्तर में दिए गए उनके भाषण पर निहाल होते हुए लिखा. इस तारीफ़ के बाद इस भाषण के बारे में कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं रह जाती.
नरेंद्र मोदी के प्रशंसक इस समय अश्लील आनंद में गोते लगा रहे हैं. वे विश्लेषक, जो राहुल गांधी की तैयारी की कमी की शिकायत कर रहे थे, नरेंद्र मोदी और अमित शाह की शानदार वक्तृता की तारीफ़ कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि वे पूरी तैयारी से आए थे जबकि विपक्ष की तैयारी नहीं थी.
गृह मंत्री ने कई जगह ग़लतबयानी की, कहा कि बर्मा में हिंसा के कारण कुकी मणिपुर आए और इस वजह से मेईतेई लोगों में आशंका पैदा हुई लेकिन मीडिया ने इस पर कोई सवाल नहीं किया. गृह मंत्री के इस बयान पर कुकी समुदाय ने कड़ा एतराज जतलाया. इसके अलावा गृह मंत्री ने कहा कि ‘कुकी डेमोक्रेटिक फ्रंट’ नामक संगठन म्यांमार में संघर्ष कर रहा है लेकिन इस नाम का कोई संगठन है ही नहीं.
क्यों इस ग़लतबयानी पर सवाल नहीं किया गया? ग़लतबयानी के अलावा इस बयान से यह भी प्रकट हुआ कि संघीय सरकार भी मेईतेई बहुसंख्यकवादी मणिपुर सरकार के साथ है. फिर उससे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह मणिपुर में शांति स्थापित करेगी.
संसद में गृह मंत्री की कई मामलों में ग़लतबयानी के बारे में कोई सवाल नहीं किया गया. अमित शाह ने कहा कि मोदी के कहने पर यूक्रेन और रूस ने तीन दिन तक युद्ध बंद कर दिया था. इस सरकार का विदेश मंत्रालय कह चुका है कि यह झूठ है. क्यों मीडिया ने इस झूठ पर कोई सवाल नहीं किया?
कलावती और राहुल गांधी को लेकर गृह मंत्री ने जो ग़लतबयानी की, उसे तो उनका राजनीतिक अधिकार ही माना जाएगा. संसद में ग़लतबयानी बड़ा अपराध है. लेकिन यह क्यों हमारी चिंता का विषय नहीं है? क्यों मिथ्या, अर्धसत्य को स्वीकार किया जा रहा है? क्या यह भारत की जनता के साथ धोखा नहीं है? यह कहने की जगह गृह मंत्री की प्रशंसा की जा रही है कि उन्होंने पूरी तैयारी की थी? ग़लतबयानी की तैयारी?
प्रधानमंत्री की लफ्फ़ाज़ी को तो ख़ैर उनकी खूबी ही माना जाता है. फ़ब्ती, छींटाकशी, छिछोरेपन को लोकप्रियता के लिए आवश्यक माना जाता है. आक्रामक और हिंसक भाषा देश के सर्वोच्च पद के व्यक्ति के लिए उपयुक्त मानी जाने लगी है. चालाकी तो ख़ैर ज़रूरी है ही.
मीडिया में कुछ लोग दबे स्वर से कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री को मणिपुर पर कुछ और बोलना चाहिए था. लेकिन उन्हें यह कहने की हिम्मत नहीं हो रही कि आख़िर यह कैसे क़बूल किया जा सकता है कि देश के सबसे महत्त्वपूर्ण विषय मणिपुर को अपने दो घंटे के भाषण में प्रधानमंत्री ने सिर्फ़ 6 मिनट के लायक़ समझा. उसमें भी खोखली बयानबाज़ी के अलावा कुछ नहीं कहा.
‘देश मणिपुर के साथ हैं या यह सदन मणिपुर के साथ है,’ हिंसाग्रस्त मणिपुर के लिए यह कोई सांत्वना नहीं है. मणिपुर की समस्या यह नहीं है. समस्या यह है कि मणिपुर की अल्पसंख्यक कुकी आबादी यह कह रही है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार उसके साथ नहीं है. समस्या यह है कि मणिपुर दो हिस्सों में बंट चुका है और ये दोनों एक दूसरे के शत्रु बन चुके हैं. शांति का सूरज कभी उगेगा, यह मणिपुर में हिंसा के शिकार लोगों के लिए कोई आश्वासन नहीं है.
इस तरह की कोरी लफ़्फ़ाजी उस वक्त जब विपक्ष जानना चाहता है कि मणिपुर की हिंसा रोकने के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए. प्रधानमंत्री के लिए लेकिन मणिपुर विषय नहीं था. विषय वे ख़ुद थे.
जब वे भाषण दे रहे थे, दिल्ली के क़रीब हरियाणा में उन्हीं की पार्टी की सरकार की लापरवाही या मिलीभगत के कारण भारी हिंसा हो चुकी थी. और उसके बाद सरकार ने मुसलमानों पर भारी हिंसा की. लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण में इस हिंसा पर कोई अफ़सोस नहीं था. मारे गए लोगों के लिए सांत्वना का एक शब्द नहीं था.
क्या हरियाणा के लिए भी विपक्ष को एक नया अविश्वास प्रस्ताव लाना होगा कि प्रधानमंत्री या संघीय सरकार की ज़ुबान खुले? हरियाणा में हिंसा के बाद सरकार की बुलडोज़री हिंसा पर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने सख़्त टिप्पणी करते हुए उसे नस्लकुशी ठहराया. लेकिन भारत की संघीय सरकार ऐसे बर्ताव कर रही है मानो कहीं कुछ नहीं हुआ. दिल्ली के पास हज़ारों लोग बेघर हो चुके हैं और सदन में प्रधानमंत्री हंसी अपने दरबारी सांसदों के साथ हंसी-ठट्ठा कर रहे हैं.
विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर भारतीय जनता पार्टी सरकार का जवाब मणिपुर का सरासर अपमान था. नरेंद्र मोदी और अमित शाह के भाषण में कोई अफ़सोस, मणिपुर की तकलीफ़ के प्रति संवेदना का लेश मात्र नहीं था. भाजपा के समर्थक कितनी ही ताली बजाएं, भारत की जनता को इसे लेकर अवश्य चिंतित होना चाहिए कि उसके शासक कितने क्रूर तरीक़े से आत्मग्रस्त हो सकते हैं.
जिनमें अभी इंसानियत बची हुई है उनमें इस भाषण के बाद उदासी, निराशा, क्षोभ, घिन और क्रोध और शर्म के भाव ही उभरे. क्या मणिपुर की जनता भारत की सरकार के इसी बर्ताव के लायक़ है? क्या मणिपुर में जो आग लगी है, उसे बुझाने के लिए भारत सरकार के पास सहानुभूति के दो शब्द भी नहीं हैं.
यह बड़े अफ़सोस की बात थी कि इस वक्त सदन में सरकार के लोग ठिठोली, छींटाकशी कर रहे थे जब मणिपुर में लाशें 3 महीने से दफ़न किए जाने का इंतज़ार रही हैं. इतनी बेरहमी और इतनी बेहिसी के साथ कोई समाज किस कदर और कितने दिन ज़िंदा रह सकता है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)